Wednesday, 22 April 2015

अरे नेताओ ! किसानों के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार कर रहे हो तुम ! कितने क्रूर हैं हृदय तुम्हारे !

देश के अन्नदाता किसानों के बलिदान को ब्यर्थ नहीं जाने दिया जाएगा तुमसे बदला लेकर रहेंगे !
  सरकारों के द्वारा मुवाबजे के रूप में दिए गए पचास पचास रूपए के चेकों ने किसानों को मरने पर मजबूर किया गया है !
   संघर्ष  से कभी नहीं डरा है किसान किंतु सह नहीं सका अपने बलिदान का अपमान !और टूट गया छोड़ रहा है इन लोकतंत्र के लुटेरों की कृपा पर जीने की आशा !और लटक रहा है फाँसी के फंदों पर !किसानों की इतनी बड़ी बिपत्ति पर सौ सौ पचास पचास रूपए के चेक आखिर किस लिए दिए गए हैं उन राजनैतिक सरकारी लोगों को कटघरे में खड़ा करके पूछी जानी चाहिए उनकी मंसा !आखिर ये चेक देने के पीछे उनकी सोच क्या थी !ऐसे लोगों पर आपराधिक केस दर्ज होने चाहिए जिन्होंने ऐसे चेक देकर किसानों को मरने के लिए उकसाया है । बंधुओ!कोई ऐसे ही नहीं मरता एक अँगुली काटने में कितनी पीड़ा होती है तो फिर फाँसी लगाने जैसी दारुण यातनाओं का वरण करने वाला किसान मरने के लिए मजबूर किया गया है तब मर रहा है नेता अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकने के लिए कर रहें ऐसी नीचता । अरे देश की आजादी को अकेले भोगने वाले नेताओ !किसानों को कुछ नहीं देना था तो न देते कम से कम उनकी मुशीबत का उपहास तो नहीं ही उड़ाना चाहिए था !ये सौ सौ पचास पचास रूपए के चेक संवेदन हीनता के सजीव उदाहरण हैं 
       ऐ किसानों का हक़ खा जाने वाले लोक तंत्र के लुटेरो ! क्या हैं तुम्हारी आय के अपने स्रोत,क्या है तुम्हारा कार्य व्यापार !कब करते हो काम कहाँ से आता है तुम्हारे पास अरबों रूपयों  का अंबार ? अरे बेशर्मों ! किसानों को सौ सौ रूपए के चेक देते हो तुम !सरकारी कोष तुम्हारी बपौती है क्या ?जनता के धन से तुम जहाजों पर चढ़े घूमते हो किसानों की जरूरत पर पचास पचास रुपयों के चेक !जिनका सारा जीवन ही लुट गया हो पहाड़ जैसा पूरा साल ही पड़ा हो पेटपालन की समस्या मुखबाए खड़ी हो उन्हें सौ सौ पचास पचास रूपए के चेक और दूसरी ओर सरकारी कर्मचारियों का महँगाई भत्ता बढ़ाना क्यों जरूरी था !
     राजनैतिक राक्षसों का इतना निर्मम व्यवहार ?
    एक सियासी गिरोह के सरगना मंच से देखते रहे फंदे में फँसा छटपटाता रहा किसान !उन पापियों को दया भी नहीं आई ! ये राजनैतिक कसाई गिद्धों की तरह तकते रहे तड़फते किसान के बेटे को ! सारा देश दहल गया है किंतु इन राजनैतिक कुकर्मियों की ओर से सुनाई दिए क्या संवेदना के स्वर!क्या दौड़ कर जा नहीं सकते थे ये उसके पास !आखिर क्यों नहीं रोके जा सकते थे इनकी बहादुरी के भाषण !ऊपर से इन बेशर्म मुखाकृतियों की भयावनी आवाजों ने तोड़ दिया है आम जनता को ! कल तो फेसबुक खोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ी टीवी चालू करने से डर लग रहा था इन  आपियों ने इतना निराश किया है कि अब तो इनका मुख देखने का भी मन नहीं होता कैसे ढोए जाएँगे ये पाँच वर्ष !जिनकी एक आवाज पर इकट्ठे हुए थे किसान उनके साथ ऐसा बर्ताव !यदि उनसे इतना भी लगाव नहीं था तो उन्हें बुलाया ही क्यों गया था !
    यह कैसी किसानों की चिंता ! फंदे में फँसे छटपटाते किसान को देखकर भी बंद नहीं हो सके भाषण ! सियासीगिद्धों की नजर सिर्फ रैली की सफलता पर थी ! राजनैतिक गिद्धों के पुलिस तथा केंद्र सरकार विरोधी सियासी बयानों का वह समय नहीं था वह समय गजेन्द्र की सुरक्षा एवं उसके परिवारी जनों को ढाढस बँधाने का था उस परिवार के साथ समर्पण पूर्वक खड़े होने का था !किंतु इनका पालतू शिखंडी विरोधी पार्टियों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा था । मंच से एक मुचंड महारथी समझा रहा था कि इस घटना के लिए पुलिसवाले कैसे कैसे दोषी हैं ! अरे किसान को हत्या के लिए उकसाने वाले पापियो !क्या तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं थी ? यदि रैली किसानों के लिए होती तो जीवन मृत्यु से झूलते किसान को देखकर रोक दी जाती रैली और बंद होते भाषण !किंतु रैली राजनीति के लिए थी जिसकी सफलता के लिए आवश्यक थी कोई दुर्घटना तभी तो रैली चर्चित हो पाती जैसा कि अब हो रहा है इन राजनैतिक कसाइयों के हिसाब से रैली सफल मानी जाएगी ! उस किसान के लटकने के बाद जिस उत्साह में रैली जारी थी आरोप प्रत्यारोप के भड़काऊ भाषण दिए जा रहे थे उससे लगता है कि ये राजनैतिक कुकर्मी ऐसी दुर्घटनाओं के लिए पहले से ही तैयार होकर आए थे ऐसे पापी नेताओं के हृदयदर्पण में कहाँ प्रतिबिंबित हो पाती हैं गरीबों की पीड़ाएँ !
     यह कैसी किसानों की हमदर्दी ! किसान  पेड़ पर लटकता छटपटाता रहा रैली चलती रही सियासी भाषण परोसे जाते रहे यदि रैली किसानों के लिए होती तो तुरंत बंद कर दी जाती रैली पहले किसान को देखा जाता किंतु किसानों को तो मोहरा बनाया जा रहा था वस्तुतः भावी प्रधानमंत्री बनने बनाने के लिए बिसात बिछाई जा रही थी !धंधे का सवाल था आखिर बंद कैसे कर दी जाती रैली !
    मृतप्राय  किसान को अस्पताल भेजा गया क्या दो शब्द संवेदना के नहीं होने चाहिए थे क्या सामूहिक रूप से परमात्मा से प्रार्थना नहीं कराई जा  सकती थी किसान की सुरक्षा के लिए क्या उन पापियों को तुरंत अस्पताल में नहीं पहुँचना चाहिए था क्या उनके अपने घर का कोई होता तो भी रैली चलती रहती और पुलिस पर ठीकरा फोड़कर चालू कर दी जाती भाषण बाजी !
      इन आपी  बेशर्मों ने जिन शब्दों में संवेदनाएँ व्यक्त की हैं वो शब्द वो भाव भंगिमाएँ तुरंत पुलिस को कटघरे में खड़ा किया जाने लगना ,किसान की जीवनांतक पीड़ा पर सियासी बयान  देते हुए उस राष्ट्र व्यापी भयंकर वेदना का रुख केंद्र सरकार की ओर मोड़ने लगना ,जिस बेदना से सारा देश सदमे में थाइतने बड़े हादसे के बाद भी उन शिखंडियों के राजनैतिक भाषणों एवं बयानों से जो साफ झलक रहा था उसमें उस किसान के प्रति न तो कोई हमदर्दी थी और न ही ईश्वर से कोई प्रार्थना थी और न ही उन बेशर्म मुखाकृतियों पर संवेदना के कोई भाव ही थे !
देश का पेट भरने वाले किसान मर रहे हैं अपना और अपनों के पेट भरने के लिए !
अरे !देश के रईसों राजनेताओं धनवान बाबाओं तुम्हें धिक्कार !मरोगे तो क्या साथ ले जाओगे ये धन ?
     ऐ पापियो ! क्या तुम्हारी कमाई में किसानों का कोई हिस्सा नहीं हैं । सारी आपत्ति बिपत्ति सहकर भी प्रकृति और प्रशासन से जूझने वाला किसान हमेंशा देश का पेट भरता रहा आज उसका पेट भरने की बारी आई तो तुम नहीं  खड़े हो सके उसके साथ ! उसका सम्बल नहीं बन सके तुम !उसका विश्वास नहीं जीत सके ! तुम उसका हौसला नहीं बढ़ा सके उसका सहारा नहीं बन सके तुम उसे अपनापन  नहीं दे सके ! 
 खेलों और खिलाडियों पर  पैसे लुटाने वाले धनपिशाचो ! वहाँ तो करोड़ों रूपए देने की घोषणा करते रहते हो बढ़ चढ़ कर बोलियाँ लगाते हो किसानों के लिए क्या तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है !
    अरे !करोड़ों रूपए लगाकर बड़ी बड़ी सत्संगी रैलियाँ करने वाले बाबाओ !क्या किसानों  के लिए तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है ?
   साईं पत्थरों पर करोड़ों अरबों रूपए के मुकुट पहनाने वाले पाखंडियो !क्या किसानों के लिए तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है !
      अरे देश के किसानों का हिस्सा हड़पने वाले काले धन से धनी उद्योग पतियो ! क्या किसानों के लिए तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है !
  ऐ अकर्मण्य कर्मचारियो !अपनी फ्री की कमाई में से किसानों का हिस्सा भी निकालते जाओ !
        बिलासिता पर लाखों की खरीददारी करने वाले धनियो !क्या अपनी शौक शान से बचाकर किसानों का हक़ क्यों नहीं निकाल सके तुम !
     अरे !ब्यूटीपार्लरी संस्कृति में जीने  वाले लोगो जिस दिन किसान हाथ खड़े कर देगा उस दिन पिचक जाएँगे गाल तब रगड़ने से लाल नहीं होंगे!इसलिए ऐ सौंदर्य साधको ! कुछ कम सुंदरता ही सही कुछ तो हिस्सा निकालो किसानों के लिए भी ! 
      सरकार को चाहिए कि किसानों को भी प्राइमरी स्कूलों के शिक्षकों का दर्जा दे!
     जिससे उन्हें भी सैलरी की सिक्योरिटी हो उन्हें भी पेंशन मिले साथ ही ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के समय घबड़ाकर किसान आत्म हत्या न करे उसे सरकारी सैलरी का सम्बल बना रहे !  यदि सरकारी सुशिक्षित ट्रेंड शिक्षकों  से समाज को कोई लाभ नहीं है और लोग प्राइवेट में पढ़ाना चाह रहे हैं इसका सीधा सा मतलब है कि स्कूलों में पढ़ाई हो ही इसकी जिम्मेदारी सरकारी शिक्षकों की बिलकुल भी नहीं है यदि होती तो वो इस चुनौती को स्वीकार करते और अपने स्कूलों की प्रतिष्ठा बचाने का प्रयास करते हैं जिससे उनकी शिक्षा का लाभ  छात्रों को नहीं मिल पाता है फिर भी सरकार उन्हें सैलरी भी देती है पेंशन भी यदि उन्हें मिल सकता है तो किसानों को क्यों नहीं मिल सकता है ?

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