राजनीति को भोगने की निंदा करने वाले 'आपिए' विधायकों का भी अब डोल रहा है धीरज ! और अब इनपर सत्ता सुंदरी का शुरूर इस कदर छाता जा रहा है कि अब तो इन्हें होश ही नहीं है कि चुनावों के पहले अपनी सादगी ईमानदारी के विषय में जनता से कहा क्या करते थे और अब करने क्या लगे हैं !जनता की पेट की रोटियों के हिस्से का पैसा फूँकने जा रहे हैं विज्ञापन पर !शपथ लेने वाले दिन अरविंद जी उपदेश कर रहे थे घमंड मत करना और कुछ दिन बाद खुद ही अपने बरिष्ठ साथियों को लात मारने की बातें करने लगे थे कुछ दिन पहले अन्ना जी से कह रहे थे सचिवालय पवित्र करने को किन्तु बाद में पता लगा कि अपवित्र सचिवालय नहीं अपितु इनके दिमाग हैं अब अन्ना जी से क्यों नहीं कह देते हैं कि हम लोगों पर छिड़क दिजिए अपनी त्याग तपस्या का गंगाजल !
अब तो सत्ता भोगने के लिए मचल रही हैं इनकी आत्माएँ टूटते जा रहे हैं संयम के बाँध , बिचलित होती भावनाएँ , आत्म संयम के लड़खड़ाते डगों से झाँकने लगी हैं इनकी सत्ता बासनाएँ अब ये वही बन जाना चाहते हैं जिसके विरुद्ध युद्ध छेड़कर यहाँ तक पहुँचे हैं ! और उदाहरण देते हैं काँग्रेस और भाजपा के, अरे तुमने तो उनसे अच्छा विकास करने और सादगी का जीवन जीने के आश्वासन दिए थे किंतु आज तुम इतना बदल गए कि जिस राजनीति को आप लोग सेवा कहा करते थे उसी सेवा की सैलरी न केवल ले रहे हो अपितु बढ़ाने की माँग कर रहे हो मतलब अब तुम्हें चाहिए और अधिक सैलरी ! बंधुओ !सेवा तो तभी तक है जब तक सैलरी न ली जाए ! सैलरी लेकर किया जाने वाला काम सेवा नहीं अपितु नौकरी है !
अरे जनप्रतिनिधियो ! देश की जनता को क्यों देखते हो इतनी गिरी नजर से
!इतनी ही सभ्यता और उदारता जनता के लिए भी बरतते तुम तो लगता कि हम देश
वासियों को भी जीवित समझते हो तुम !
अरे देश के कर्णधार जन प्रतिनिधियो !तुम्हारा गुजारा यदि लाखों रुपयों में
नहीं होता है तो कल्पना कीजिए कि उनका क्या होता होगा जिनकी सौ रूपए रोज
की भी निश्चित आय नहीं है उनमें भी जिनके यहाँ काम करने वाला बीमार हो जाए
या कुछ और विपरीत घटित हो जाए उनकी जिंदगी कैसे बीतते होगी !आखिर वो किसकी
ओर देखें !क्या ये देश उनका नहीं है ! क्या उनका देश के विकास में कोई
योगदान नहीं है ! अरे नेताओ !गरीबों के लिए केवल योजनाएँ लांच होती हैं
पैसा तो पैसे वालों को ही मिलता है गरीबों को तो केवल सपने दिखाए जाते हैं !
आखिर सारे बड़े लोगों के सम्बन्ध उस ललित मोदी से ही क्यों निकल रहे हैं
किसी गरीब से क्यों नहीं हैं !
बंधुओ ! 'विधायक ' लोग जनता का धन इस
तरह से लेकर अपने घर भरेंगे तो क्या यही जनसेवा व्रत है उनका ! देश ने
उनको चाभी
पकड़ा दी है तो इसका मतलब ये है क्या कि केवल अपना घर भरो !'विधायक ' सैलरी बढ़ाने की माँग करें और दूसरी ओर भूखों मर
रहा है गरीब और मजदूर वर्ग !
बंधुओ ! देश में लोकतंत्र
की स्थापना केवल सरकारों और सरकारी कर्मचारियों के लिए ही हुई थी क्या ?
जब चाहो तब अपनी सैलरी बढ़ा लो जब चाहो तब अपने सरकारी कर्मचारियों की बढ़ा
लो, मीडिया वालों को चुप करने के लिए उन्हें विज्ञापन दे दो अपने सब खुश
!बाकी देशवासियों से क्या लेना देना !
कृषि के विज्ञापनों या गरीबी हटाओ के विज्ञापनों पर जितना ध्यान होता है
क्या कृषि के विकास पर और गरीबी हटाने पर भी उतना ही ध्यान होता है क्या ?
आप के विधायक ऐसा क्या खाते और पहनते हैं कि इन्हें लाखों रूपए की सैलरी भी कम पड़ जाती है!
ये लोग जब विधायक नहीं थे तब इनके घर का कैसे होता था गुजारा !आखिर तब इनकी क्या थी मासिक आय !और उसमें तब इनका गुजारा होता था तो अब क्यों नहीं हो रहा है और यदि यही था तो सबकी बुराई क्यों करते फिरते रहे थे 'आप' के ये नेता लोग !
दूसरी
ओर किसान मजदूर जिनकी 100 Rs भी दैनिक आय निश्चित नहीं होती फिर भी वो लोग
स्वाभिमान से जी लेते हैं ये विधायक और सरकारी कर्मचारी हजारों लाखों रूपए
सैलरी पाने के बाद भी सैलरी का ही रोना रोया करते हैं आखिर क्या है इनका आदर्श
और लोग क्या इनसे प्रेरणा लेंगे !दूसरी
ओर किसान और मजदूर मिट्टी खाकर अपना पेट भरते हैं क्या ?या उनकी दवा के
लिए सरकार की कोई स्पेशल व्यवस्था है या वो बीमार नहीं होते या उनके बच्चों
की पढ़ाई के लिए कोई विशेष सुविधा है या उनके बीबी बच्चों को अच्छा खाने
पहनने का शौक नहीं होता !खैर !कुलमिलाकर ये ढंग ठीक नहीं है !
देश की जनता को क्यों देखा जाता है इतनी दीनता पूर्ण नजर से !
किसानों मजदूरों सहित देश की सभी जनता के विकास के लिए होने वाले चुनावों
का पाँच वर्षीय कार्यकाल केवल कुछ नेताओं का विकास करते करते बीत जाता है
तभी तो विकास भी केवल नेताओं का ही दिखता है बाकी जनता का विकास तो जब
किया ही नहीं जाता तो दिखे क्या !
राजनीति में घुसते समय कौड़ियों के नेता पाँच वर्ष में करोड़ों अरबों में खेलने लगते हैं !
विधायक कहने को तो चौकीदार हैं और जनता मालिक है !किंतु क्या ये सच है ?
बंधुओ ! जब चौकीदार मालामाल होता जा रहा हो और मालिक कंगाली के कारण छीछालेदर भोगने पर मजबूर हो !और जब मालिक से चौकीदार की संपत्ति बढ़ने लगे तब दाल में कुछ काला जरूर होता है !
देश वासियों को खुश करने के लिए कहते हैं कि जनता देश की मालिक है और
ये जनता के चौकीदार हैं किंतु जनता कंगाल होती जा रही है और ये
मालामाल!ऐसा कहीं होता है क्या कि चौकीदार मालामाल होता जा रहा हो और मालिक की छीछालेदर होती जा रही हो ?और
जब मालिक से चौकीदार की संपत्ति बढ़ने लगे तब दाल में कुछ काला जरूर होता
है !बंधुओ !जब चौकीदार जब स्वार्थ लोलुप हो जाए केवल अपने और
अपनों को देखने लगे तो फिर चौकीदार बदलदेने में ही भलाई होती है क्या
दुर्भाग्य है हम देशवासियों का !हमें धिक्कार है !!
'विधायकों का बेतन बढ़ेगा !'
'अंधा बाँटे रेवड़ी अपने अपने को देय '
किंतु इसमें नया क्या है ये सतयुग तो है नहीं जो प्रजापालन में ईमानदारी
बरतना जरूरी हो ये तो कलियुग है इसमें तो पाप बढ़ना ही है यही
तो विकृति है ! जो खुद कमाए खुद खाए ये 'प्रकृति' खुद कमाए दूसरों को
खिलाए ये 'संस्कृति' और दूसरे कमाएँ और खुद खाए यही तो ' विकृति ' है
हमारे नेता विकृति के शिकार हैं जनता कमाए विधायक खाएँ ! इनकी कैंटीन में
सस्ता भोजन मिले !ये वो विधायक हैं जिन्होंने अपने को जनसेवक बताया था ये
वही सेवा है क्या ?सेवा के बदले कुछ न लिया जाता है न लेने की इच्छा होती
है वहाँ तो
केवल समर्पण होता है - भरत जी कहते हैं कि 'सबते सेवक धर्म कठोरा '
'सेवा
धर्मों परम गहनों योगिनामप्यगम्यः',,
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