Sunday, 28 January 2018

नारी के बिना सूना सब संसार !

 नारी पुरुष की पूरक सत्ता है।वह मनुष्य की सबसे बड़ी ताकत है। उसके बिना पुरुष का जीवन अपूर्ण है। नारी उसे पूर्ण करती है। मनुष्य का जीवन अन्धकारयुक्त होता है तो स्त्री उसमें रोशनी पैदा करती है। पुरुष का जीवन नीरस होता है तो नारी उसे सरस बनाती है। पुरुष के उजड़े हुए उपवन को नारी पल्लवित बनाती है।
इसलिए शायद संसार का प्रथम मानव भी जोड़े के रूप में ही धरती पर अवतरित हुआ था। संसार की सभी पुराण कथाओं में इसका उल्लेख है कि भगवान् ने अपने शरीर के दो भाग किए तो आधे से पुरुष और आधे से स्त्री का निर्माण हुआ।’
इस तरह के कई आख्यान हैं जिनसे सिद्ध होता है कि पुरुष और नारी एक ही सत्ता के दो रूप हैं और परस्पर पूरक हैं। फिर भी कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व और त्याग के कारण पुरुष की अपेक्षा नारी कहीं अधिक महान है । वह जीवन यात्रा में पुरुष के साथ नहीं चलती वरन् उसे समय पड़ने पर शक्ति और प्रेरणा भी देती है। उसकी जीवन यात्रा को सरस, सुखद, स्निग्ध और आनन्दपूर्ण बनाती है नारी, पुरुष की शक्तियों के लिए उर्वरक खाद का काम देती है। महादेवी वर्मा ने नारी की महानता के बारे में लिखा है-
‘नारी केवल माँस पिण्ड की संज्ञा नहीं है, आदिम काल से आज तक विकास पथ पर पुरुष का साथ देकर उसकी यात्रा को सफल बनाकर, उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर और अपने वरदानों से जीवन में अक्षय शक्ति भर कर मानवी ने जिस व्यक्तित्व, चेतना और हृदय का विकास किया है उसी का पर्याय नारी है।’
    इसमें कोई सन्देह नहीं कि नारी धरा पर स्वर्गीय ज्योति की साकार प्रतिमा है। उसकी वाणी जीवन के लिए अमृत स्रोत है। उसके नेत्रों में करुणा, सरलता और आनन्द के दर्शन होते हैं। उसके हास्य में संसार की समस्त निराशा और कड़ुवाहट मिटाने की अपूर्व क्षमता है। नारी सन्तप्त हृदय के लिए शीतल छाया है। वह स्नेह और सौजन्य की साकार देवी है। नारी पुरुष की शक्ति के लिए जीवन सुधा है। त्याग उसका स्वभाव है, प्रदान उसका धर्म, सहनशीलता उसका व्रत और प्रेम उसका जीवन है।’
कवीन्द्र रवीन्द्र ने नारी के हास में जीवन निर्झर का संगीत सुना है। जयशंकर प्रसाद ने कहा है-
नारी केवल तुम श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में॥
संसार के सभी महापुरुषों ने नारी में उसके दिव्य स्वरूप के दर्शन किये हैं जिससे वह पुरुष के लिए पूरक सत्ता के ही नहीं वरन् उर्वरक भूमि के रूप में उसकी उन्नति, प्रगति एवं कल्याण का साधन बनती है। स्वयं प्रकृति ही नारी के रूप में सृष्टि के निर्माण, पालन-पोषण संवर्धन का काम कर रही है। नारी के हाथ बनाने के लिए हैं बिगाड़ने के लिए नहीं। परिस्थिति वश-स्वभाव वश नारी कितनी ही कठोर बन जाय किन्तु उसकी वह सहज-कोमलता कभी ओझल नहीं हो सकती जिसके पावन अंक में संसार को जीवन मिलता है। प्रेमचन्द के शब्दों ‘नारी पृथ्वी की भाँति धैर्यवान् शान्त और सहिष्णु होती है।’
नारी की प्रकट कोमलता, सहिष्णुता को कुछ पुरुषों ने कई बार उसकी निर्बलता का चिन्ह मान लिया है और इसलिए उसे अबला कहा है। किन्तु वह यह नहीं जानते कि कोमलता, सहिष्णुता के अंक में ही मानव जीवन की स्थिति संभव है। क्या माँ के सिवा संसार में ऐसी कोई हस्ती है जो शिशु की सेवा, उसका पालन-पोषण कर सके। संसार में जहाँ-जहाँ भी चेतना साकार रूप में मुखरित हुई है उसका एक मात्र श्रेय नारी को ही है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि नारी समाज की निर्मात्री शक्ति है, वह समाज का धारण, पोषण करती है संवर्धन करती है।
नारी अपने विभिन्न रूपों में सदैव मानव जाति के लिए त्याग, बलिदान, स्नेह, श्रद्धा, धैर्य, सहिष्णुता का जीवन बिताती है। माता-पिता के लिए आत्मीयता, सेवा की भावना जितनी पुत्री में होती है उतनी पुत्र में नहीं होती। पराये घर जाकर भी पुत्री अपने माँ-बाप से अलग नहीं हो सकती। उसमें परायापन नहीं आता, उसके हृदय में वही सम्मान, सेवा की भावना भरी रहती है जैसी बचपन में थी। भाई-बहिन का नाता कितना आदर्श, कितना पुण्य-पवित्र है।  माँ तो माँ ही है। पुत्र की हित चिन्ता, उसका भला, लाभ हित सोचने वाली माँ के समान संसार में और कोई नहीं है। संसार के सब लोग मुँह मोड़ लें किन्तु एक माँ ही ऐसी होती है जो अपने पुत्र के लिए सदा सर्वदा सब कुछ करने के लिए तैयार रहती है।
पत्नी के रूप में नारी मनुष्य की जीवन संगिनी ही नहीं होती अपितु वह सब प्रकार से पुरुष का हित-साधन करती है। शास्त्रकार ने भार्या को छः प्रकार से पुरुष के लिए हित-साधक बतलाया है-
कार्य्येषु मन्त्री, करणेषु दासी, भोज्येषु माता, रमणेषु रम्भाः
धर्मानुकूला, क्षमाया धरित्री, भार्या च षड्गुण्यवती च दुर्लभा॥
‘कार्य में मंत्री के समान सलाह देने वाली, सेवादि में दासी के समान काम करने वाली, भोजन कराने में माता के समान पथ्य देने वाली, आनन्दोपभोग के लिए रम्भा के समान सरस, धर्म और क्षमा को धारण करने में पृथ्वी के समान-क्षमाशील ऐसे छः गुणों से युक्त स्त्री सचमुच इस विश्व का एक दुर्लभ रत्न है।’
राम के जीवन से सीता को निकाल देने पर रामायण पीछे नहीं रहता। द्रौपदी, कुन्ती, गाँधारी आदि का चरित्र काल देने पर महाभारत की महान गाथा कुछ नहीं रहती, पाण्डवों का जीवन संग्राम अपूर्ण रह जाता है। शिवजी के साथ पार्वती, कृष्ण के साथ राधा, राम के साथ सीता, विष्णु के साथ लक्ष्मी का नाम हटा दिया जाय तो इनके लीला, गाथा चरित्र अधूरे रह जाते हैं।
प्राचीन काल से नारियाँ घर गृहस्थी को ही देखती नहीं आ रही, समाज, राजनीति, धर्म, कानून, न्याय सभी क्षेत्रों में वे पुरुष की संगिनी ही नहीं रही वरन् सहायक, प्रेरक भी रही हैं। उन्हें समाज में पूजनीय स्थान दिया गया है। महाराज मनु ने तो अपनी प्रजा से कहा था।
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवताः।’
जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं। क्योंकि समाज में नारी को समान, पूज्य-स्थान देकर जब उसे पुरुष का सहयोगी, सहायक बना लिया जाता है तो ही समृद्धि, यश, वैभव बढ़ते हैं, जिससे सुख, शाँति, आनन्दपूर्ण जीवन बिताया जा सकता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि नारी का सहयोग मानव जीवन में उन्नति, प्रगति, विकास के लिए आवश्यक है, अनिवार्य है। वह समाज उन्नति नहीं कर सकता, जहाँ स्त्री जो मानव-जीवन का अर्द्धांग ही नहीं एक बहुत बड़ी शक्ति है, को सामाजिक अधिकारों से वंचित कर उसे लुँज-पुँज एवं पद-दलिता बना कर रखा जाता है।
आवश्यकता इस बात की है कि हम नारी को समाज से वही प्रतिष्ठा दें, जिसकी आज्ञा हमारे ऋषियों ने, मनीषियों ने दी है। उसे जीवन के सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ावें। हम देखेंगे कि नारी अबला, असहाय न रहकर शक्ति सामर्थ्य की मूर्ति बनेगी। वह जीवन यात्रा में हमारे लिए बोझा न रहकर हमारी सहायक, सहयोगिनी सिद्ध होगी। तब हमें उसके भविष्य के संबंध में चिन्तित न होना पड़ेगा। वह अपनी रक्षा करने में स्वयं समर्थ होगी। अपना निर्वाह करने में समर्थ होगी। हमारे सामाजिक जीवन की यह एक बहुत महत्वपूर्ण माँग है कि सदियों से घर बाहर दीवारी में गंदे पर्दे, बुर्के की ओट में छिपी हुई पराश्रिता, परावलम्बी, अशिक्षित, अन्धविश्वास ग्रस्त, संकीर्ण स्वभाव नारी को वर्तमान दुर्दशा से उभारें। उसे समानता, स्वतंत्रता की मानवोचित सुविधा प्रदान करें। उसे शिक्षित, स्वावलम्बी, सुसंस्कृत एवं योग्य बनावें। तभी वह हमारे विकास में सहायक बन सकेगी। भारतीय संस्कृति को गौरवान्वित करने में योग दे सकेगी।

Saturday, 27 January 2018

'शादी की सालगिरा' ही क्यों ? वैवाहिक जीवन में तनाव यदि इसीतरह बढ़ता रह तो मासगिरा साप्ताहगिरा दिनगिरा और घंटामिनट सेकेंड गिरा भी मनाई जाने लगें तो क्या आश्चर्य !

शादी की सालगिरा बिना मनाए ही मर गए होंगे कितने पुराने लोग !क्या उनके वैवाहिक जीवन में इतनी घुटन रहती थी ?या उन बेचारे पूर्वजों को इतना ज्ञान ही नहीं रहा होगा क्योंकि पुरानीसभ्यता में जीनेवाले हड़प्पा की खुदाई से निकले हुए वे लोग रहे होंगे शायद !!आखिर हम अपने को कितना ज्ञानवान और उन्हें कितना मूर्ख समझने की भूल निरंतर करते जा रहे हैं हम लोग !जिन्होंने हमें बंदरों की संतान बतायाउन अधेड़ों को विद्वान मानने की भूल !वारे हम वाह !!
     भारतीय संस्कृति में पहले पति पत्नी में इतना अधिक स्नेह होता था कि उसी ख़ुशी में पता ही नहीं चल पाता  था कि जिंदगी बीत कब गई इसलिए सारा जीवन ही एक साल से कम लगा करता था इसलिए वे लोग बेचारे सालगिरा मना ही नहीं पाए किंतु जबसे वैवाहिक जीवन में तनाव अविश्वास आदि बढ़ने लगा तबसे स्नेह दिखाना जरूरी समझा जाने लगा !
     अब तो जो जितने दिन साथ बिता लेता है वो उतने ही दिनों का उत्सव मना लेना चाहता उसे लगता है कि भविष्य का क्या भरोसा !काम से काम इस साल की फोटो तो साथ साथ बन ही जाए !
    वैसे भी  वैवाहिक जीवन में तनाव और अविश्वास के कारण  वैवाहिक जीवन में जबसे एक एक दिन और रात गिनगिन कर काटने पड़ने लगे तब से ऐसे हैरान परेशान लोग एक दूसरे को साथ साथ रहने का भरोसा दिलाने के लिए मनाने लगे शादी की सालगिरा !यह तो एक तरह की वैवाहिक बहुमत सिद्ध करने जैसी प्रक्रिया है शादी की सालगिरा  तो अभी तो सालगिरा ही मन रही है तनाव की तरक्की यदि इसी प्रकार से होती रही तो मासगिरा  साप्ताहगिरा  दिनगिरा और घंटा मिनट  सेकेंड गिरा भी मनाई जाने लगें तो कोई बड़ी बात नहीं होगी !वस्तुतः ये शादी से हैरान परेशान लोगों ने शुरू की थी किंतु बाद में लोग इसे वैवाहिक बहुमत सिद्ध करने का सरल फैशन मानने लगे !
    सच्चाई तो ये है कि 'सालगिरा' शब्द  'सालग्रह' का तद्भवशब्द माना जा सकता है ! 'सालग्रह' अर्थात जन्म समय के आधार पर वर्ष भर बाद आने वाली जन्म की तिथि को तिथि के स्वामीदेवता का पूजन करके वर्ष भरके ग्रहों और उनकी दशाओं का ज्योतिषीय आधार पर पता लगाकर ग्रहों का पूजन करना ही इस 'आयुपर्व' को मनाने का उद्देश्य होता है इसे 'वर्षगाँठ' भी कहते  हैं अर्थात जीवन के दोवर्षों के मिलन का पर्व !इसमें दीपक को जलाकर उसकी गवाही में देवपूजन करके मंगलगीत  हुए वेदमंत्रों के उद्घोष के साथ अगले वर्ष में प्रवेशमंत्र  अगले वर्ष में प्रवेश करने की पवित्र परंपरा रही है इससे वर्ष भर आने वाले संकटों को टाला जाता रहा है और लंबी आयु की कामना की जाती रही है !किंतु वर्तमान समय में इस आयुपर्व का सत्यानाश करने के लिए कितने तरीके अपनाए गए  -
. तिथियों की जगह तारीखों के आधार पर होने लगी सालगिरा जिसमें 'गिरा' अर्थात 'ग्रहों' को तो बिल्कुल भुला ही  दिया गया फिर कैसी सालगिरा केवल तोहफे देकर ! ये तो आयु का आशीर्वाद पाने का पर्व हो तुच्छ तोहफे आयु से  अधिक महत्त्व रखते हैं क्या ?दूसरी बात तिथियों का तो देवता होता है यह  तिथि देवता के पूजन करने का पर्व होता है!तारीख़ का स्वामी कोई देवता होता ही नहीं है !जिस सालगिरा से तिथिस्वामी  और ग्रहों का पूजन दोनों गायब हों वो कैसी साल गिरा !
       इसके बाद वर्षगाँठ  तो दो वर्षों को जोड़ने का आयुपर्व  है फिर इसमें काटने पीटने की बात कहाँ से आ गई !नकलची लोग 'केक ' तो काटते जा रहे हैं किंतु ये केक था कौन है कौन किसका बेटा बाप भाई शत्रु या मित्र था इसका इतिहास क्या है आखिर इसने ऐसे कौन से पाप किए थे इसे काटा क्यों जाता है !यदि ये किसी राक्षस या बुरी आत्मा का ही प्रतीक है तो इसके माँस को खाया क्यों जाता है !किसी को पता नहीं केवल काटे खाए जा रहे हैं जीवन के इतने शुभ अवसर पर इतना अशुभ प्रतीक !इसके बाद मोमबत्ती बुझाने का क्या औचित्य ?मतलब पिछले वर्ष में जो थोड़ा बहुत प्रकाश था उसे भी बुझा कर अब अंधकारमय बनाने की इच्छा !आश्चर्य !!ये कैसी परंपरा और इसके उद्देश्य क्या हो सकते हैं ये दिमागी दिवालियापन नहीं तो क्या है !
     भारतीय संस्कृति का मानना है कि पिछले वर्ष का जो थोड़ा बहुत अन्धकार रह भी गया हो उसे भी समाप्त करने की कामना करने के लिए दीपक जलाए जाते थे किंतु मोम बत्तियाँ बुझाने का उद्देश्य आखिर क्या हो सकता है !
         नीरस वैवाहिक जीवनों में एक एक दिन गिन गिन कर काटना पड़ता है जबकि प्रसन्नता पूर्ण वैवाहिक जीवन में साल निकल कब जाता है पता ही नहीं लग पाता है !पुराने लोगों के वैवाहिक जीवनों में इतनी खुशियाँ थीं कि साल कब पूरा हुआ उन्हें पता ही नहीं लग पाया होगा इसीलिए उस समय शादी की साल गिरा नहीं होती थी अब होती है !उनका मानना था कि जहाँ खुशियाँ हैं वहाँ हिसाब किताब ही क्यों ?जहाँ तनाव है वहाँ हर सेकेंड पर सालगिरा ! फिर भी टूटते हैं विवाह !आपसी विश्वास की कमी को तोहफे पूरी कर देंगे क्या ?धन के घमंडी लोग बात बात में तोहफे लेकर खड़े हो जाते हैं अरे बिना तोहफे के प्रेम हो तब तो प्रेम तोहफे दिखाकर प्रेम तो तोहफों तक ही रहता तोहफे टूटे तो तलाक !ये सालगिरा होती  है या वैवाहिक जीवन में भरोसा दिखाने के लिए बहुमत सिद्ध करने की प्रक्रिया !



      
      
      

Tuesday, 16 January 2018

जीवन में 'भाग्य' की भूमिका !copy


       कई बार देखा जाता है कि बहुत बच्चे एक साथ स्कूल में एक कक्षा में एक साथ पढ़ते हैं किंतु सब पर असर अलग अलग हो रहा होता है !ऐसे ही अस्पतालों में चिकित्सा का परिणाम अलग अलग होता है !बहुत लोग एक जैसा आचरण करते हैं किसी को उससे हानि होती है किसी के लिए सामान्य होते हैं वे कर्म और किसी और के लिए वही कर्म लाभ प्रद होते हैं !कोई एक गाँव घर मोहल्ला शहर देश आदि किसी एक के लिए अच्छा होता है तो दूसरा उसी में घुटन का अनुभव कर रहा होता है !किसी एक वस्तु का व्यापार एक ही समय में किसी एक के लिए लाभप्रद होता है तो दूसरा उसी में नुक्सान उठाए जा रहा होता है !कोई एक स्त्री या पुरुष किसी एक ही समय कुछ लोगों की शत्रुता का शिकार हो रहा होता हैतो कुछ लोग उसी समय उससे मित्रता करने के लिए बेचैन हो रहे होते  हैं कोई एक स्त्री या पुरुष जिस समय अपने पति या पत्नी से घृणा करते करते उससे संबंधविच्छेद (तलाक)कर लेना चाहता है तो उसी समय उसी स्त्री या पुरुष के प्रति बहुत लोग आकर्षित हो रहे होते हैं उससे विवाह करके उसके साथ जीवन बिताने के सपने देख रहे होते हैं !
     किसी एक लड़की या लड़के से बहुत लड़के या लड़कियाँ स्नेह करने लगते हैं किंतु उन्हें पाने में कोई एक सफल होता है !वो भी तभी तक उसके साथ रह पाएगा जब तक उसका साथ उसका भाग्य देगा !किसी गाड़ी का एक्सीडेंट होता है उसमें बैठे बहुत लोग उस दुर्घटना के एक साथ एक जैसा शिकार होते हैं किंतु कुछ बिल्कुल स्वस्थ बने रहते हैं कुछ घायल हो जाते हैं कुछ मर जाते हैं !नौकरी या पद प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए या चुनाव जीतने के लिए बहुत लोग अधिक से अधिक परिश्रम कर रहे होते हैं किंतु सफल कोई कोई ही होता है जबकि कर्म तो सभी करते हैं परिश्रम भी सभी करते हैं किंतु सबको अलग अलग फल मिलने का कारण यदि सबका अपना अपना भाग्य नहीं तो दूसरा और क्या हो सकता है !बचपन में किए गए लोग युवा अवस्था में फल देते हैं यही बचपन में किए गए कर्म युवा अवस्था के लिए भाग्य बन जाते हैं कर्मों का ऐसा ही संबंध पिछले जन्म जन्मान्तरों से चला करता है !बचपन में लगाए गए रोगनिरोधक टीके जैसे युवा अवस्था में भी फलदायी होते हैं इसलिए वे युवा अवस्था के लिए भाग्य बन जाते हैं !उसी प्रकार से कर्मजनित भाग्य को भी समझा जाना चाहिए !
     इसीलिए भाग्यवादी संस्कारों से प्रभावित आज भी बहुत लोग कहते सुनते देखे जाते हैं कि  "भाग्य से अधिक और  समय से पहले किसी को कुछ भी नहीं मिलता वो कितना भी प्रयास क्यों न कर ले" !बहुत से गरीब ग्रामीण साधनविहीन और असफल लोग  अपने अभावों और असफलताओं के लिए भाग्य पर सारे दोष मढ़कर अपने मन को हल्का कर लिया करते हैं इसीलिए आज भी ऐसे लोग अधिक संतोषी होते देखे जाते हैं उनका मानना होता है कि  "जो भाग्य में बदा था सो मिला" या "भाग्य में  बदा था तो क्या मिलता" "ईश्वर के घर देर है अंधेर नहीं " "भाग्य में ही नहीं बदा था तो कोई क्या कर लेगा" ऐसी  तमाम बातें हैं जिन पर विश्वास करके लोग विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य नहीं खोते हैं !बहुत लोग हैरान परेशान या जीवन में अनेकों बार असफल आदि होते हुए भी इसी भाग्य के भरोसे तनाव अवसाद (डिप्रेशन)के शिकार  होने से आज भी बच जाया करते हैं!इसीप्रकार से लोग पहले भी अपनी असफलता का दोष भाग्य पर डाल कर स्वाभिमान पूर्वक भगवान् के भरोसे जीवन व्यतीत कर लिया करते थे!
        यह भाग्य भावना ही है जो प्राचीन समाज में सभी प्रकार के अपराधियों पर अंकुश लगाए रखती थी !भाग्य भावना वाले अपराधी लोग सोच लिया  करते थे कि जब जो भाग्य में बदा है वही मिलना है तब चोरी चकारी लूट पाट क्यों करनी ! बेईमानी क्यों करनी !किसी की हत्या क्यों करनी !उन्हें पता था कि जो दुःख हम दूसरे को देंगे वो हमें भी मिलेगा !इस भय से लोग एक दूसरे के साथ उत्तम आचरण करने का  प्रयास किया करते थे !
      उनका मानना होता था कि अच्छे काम करने के लिए ईश्वर ने जीवन दिया है ये ईश्वर की धरोहर है इसलिए आत्महत्या क्यों करनी ! ईश्वर ने जितने साधन दिए हैं उतने में हमने पूर्ण ईमानदारी से प्रयास किए है फिर भी यदि कुछ ऐसा अप्रिय हो ही गया है तो भाग्य में यही बड़ा होगा इसलिए तनाव क्यों करना !इसी भावना से किसी को किसी दूसरे से यदि कोई ठेस भी लग जाती थी तो भी लोग सह जाया करते थे !यहाँ तक कि पति या पत्नी से ठेस लगने पर भी लोग भाग्य भावना से ही सब कुछ सहकर भी साथ साथ रहकर प्रेम पूर्वक जीवन यापन कर लिया करते थे उनका मानना होता था कि हमारे भाग्य में जो बदा  था वो हमें मिला !हो न हो यह दुःख तकलीफ भी बदी ही हो जब तक बदी है तब तक तो भोगनी ही पड़ेगी!आदि !! उनका ये भाग्य भरोसा काम भी आता था कुछ समय बाद घर गृहस्थी में सब कुछ सामान्य और प्रेमपूर्वक चलने लगता था ! इसी प्रकार से माता पिता भाई बहन आदि सभी सगे संबंधों से मिलने वाली पीड़ा को भाग्य भावना से ही तो लोग सह जाया करते थे !जिनसे दूर दराज के संबंध भी होते थे उनसे भी जाने अनजाने में यदि कोई चोट मिल जाया करती थी तो उन्हें भी यह समझ कर क्षमा कर दिया करते थे कि मेरे भाग्य में बदा  ही यही था !इसी प्रकार से किसी बहुत सुंदर लड़की या लड़के से विवाह करने की इच्छा होने पर भी भाग्य के भरोसे छोड़ दिया करते थे कि हमारे भाग्य में बदा  होगा तो इससे विवाह हो जाएगा उसके लिए तनाव क्यों करना !
    इसी प्रकार से अगर किसी को व्यापार आदि में हानि हो जाया करती थी या किसी के द्वारा धोखाधड़ी पूर्वक कोई नुकसान कर दिया जाता था या अन्य प्रकार से कोई दुःख तकलीफ पहुँचा भी देता था तो भी वो व्यक्ति उदारता पूर्वक भाग्य भावना के कारण ही तो सबकुछ सह जाया करता था उसे लगता था जो हमारे भाग्य में बदा  है वो तो भोगना ही पड़ेगा यदि आज ऐसा हुआ है तो कल अच्छा भी होगा !आदि भाग्य भाव प्रबल  करके लोग सहनशीलता पूर्वक सबकुछ सह जाया करते थे इससे बड़ी सारी आपराधिक घटनाएँ घटते घटते भी टल जाया करती थीं !ऐसी सोच बना लेने से बड़े सारे संबंध बिगड़ते बिगड़ते बचा लिया करते थे वे लोग !बड़े सारे तनाव तो ऐसे ही आपस में एकदूसरे से भाग्यचर्चा से जुड़े अपने अपने अनुभव बता कर टाल लिया करते थे वो लोग !
     इसी बीच हमारे समाज को न जाने किसकी नजर लग गई और पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित अत्याधुनिक अदूरदर्शी अनुभव विहीन संवेदनाहीन अल्पज्ञ चिंतकों का अचानक प्रभाव बढ़ने लगा !उन लोगों ने पाश्चात्य संस्कृति का खुद तो अंधानुकरण किया ही साथ ही सारे समाज को ही उसी ज्वाला में धकेल दिया !ये भाग्य विरोधी उन्माद प्रारंभ में तो कुछ लोगों  तक ही सीमित था इसलिए तब तो संतोष किया जा सकता था क्योंकि उससे होने वाले लाभ हानि भी उन्हीं कुछ लोगों तक ही सीमित रह जाते थे किंतु अति तब हो गई जब उन कुछ लोगों ने भाग्यभावना के साथ न केवल अत्याचार करना शुरू किया अपितु अपने आधारविहीन कुतर्कों से जब भाग्य भावना को कुचलना शुरू किया तो मान्यताओं पर मरमिटने वाला अपना भोलाभाला समाज गोरे अंग्रेजों से तो बच आया किंतु अपने काले अंग्रेजों की सतही झूठी एवं आधार विहीन बातों का शिकार हो गया !ऐसे लोगों ने समाज को विश्वास में लेकर बिचारों के साथ जो बिष दिया उसे आज तक भोग रहा है समाज !ऐसे बिषधरों को ये भी याद नहीं रहा कि यदि अपने देश वासी भाग्य भावना को ही भूल जाएँगे तब ये समाज आराजकता की ओर मुड़ जाएगा जिसे रोक पाना किसी सरकार और शासन के बश का नहीं होगा !
     भाग्य भावना के कुचले जाने के कारण ही वर्तमान समय  में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्तियों से निपटना दिनोंदिन कठिन होता जा रहा है !शासन की समस्या है कि प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षा नहीं दी जा सकती और सभी अपराधियों को चिन्हित कैसे किया जाए !किसको कहाँ कहाँ कैसे कितना रखाया जाए !महिलाओं की सुरक्षा आज सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है बड़े बूढ़ों की मानमर्यादाएँ मिटाने पर तुले हुए हैं अत्याधुनिक लोग !ऐसी परिस्थितियों के दुष्परिणाम भी झेल रहा है यही समाज !
      भाग्य और कर्म में अंतर -
    वस्तुतः भाग्य और कर्म दोनों ही तो कर्म हैं अंतर  है कि  भाग्य प्राचीन या पिछले जन्मों के कर्मों का समूह है तो कर्म अर्थात वर्तमानकर्म !कुछ अधूरे लोग वर्तमान कर्म को तो कर्म मानते हैं किंतु प्राचीन अर्थात पिछले जन्मों के कर्मों को कर्म नहीं मानते हैं जबकि दोनों हैं कर्म ही प्राचीन हों या आधुनिक !दोनों के ही फल प्रत्येक व्यक्ति को भोगने पड़ते हैं !प्रत्येक व्यक्ति इन दोनों के संयुक्त फल को भोगता  हुआ जीवन व्यतीत करता है उसे दोनों ही दृष्टियों से बहुत सतर्कता और सावधानी से आगे बढ़ना होता है!
     इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि जीवन एक रथ है भाग्य और कर्म इसके दो पहिए हैं !जीवन रूपी रथ को दौड़ाने के लिए भाग्य और कर्म को साथ साथ लेकर चलना बहुत आवश्यक है!एक पहिए को हम आगे बढ़ाते जाएँ और दूसरे की ओर ध्यान ही न दें तो ऐसे रथ में गति आ पाएगी क्या ?
     इसी प्रकार से पिछले जन्मों के या अपने द्वारा पहले किए गए अच्छे कर्मों के प्रभाव से इस जन्म में कुछ लोगों का भाग्य इतना अधिक साथ दे रहा होता है कि वो जो कुछ भी चाहते हैं या जैसी इच्छा करते हैं वो सब कुछ उन्हें आगे से आगे मिलता चला जाता है उसके लिए उन्हें अधिक प्रयास भी नहीं करने पड़ते हैं उन्हें वैसे अपने अनुकूल साधन मिलते चले जाते हैं सहायक लोग मिलते चले जाते हैं वैसे ही माता पिता भाई बहन पत्नी परिवार पडोसी कार्य सहयोगी आदि मिलते चले जाते हैं पूर्वजन्मों के सत्कर्मों ,पुण्यों या भाग्य के प्रभाव से ऐसे लोग जीवन के किसी भी क्षेत्र में कभी पराजय का मुख ही नहीं देखते सब कुछ उन्हें सामान्य प्रयासों से ही मिल जाता है वो लोग भाग्य के इतने अधिक धनी होते हैं !
       ऐसे लोगों को कई बार एक बड़ा  भ्रम हो जाता है कि उनका सम्पूर्ण विकास उनके अपने कर्मों उचित निर्णयों योग्यता कार्यकुशलता अदि के कारण हुआ है इसलिए ऐसे लोग अपनी सफलता के उन्माद में है किसी को केवल कर्म करने और अधिक से अधिक परिश्रम करने की सलाह देने लगते हैं कई बार ऐसे लोग दूसरों को कर्मवाद का उपदेश देते हुए ललकारने लगते हैं कि कथन परिश्रम से सब कुछ पा लेना संभव है या वो लोग कायर हैं जो अपने परिश्रम के द्वारा अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते !ऐसे लोगों की वीरतापूर्ण बातों का लाभ केवल उन लोगों को हो पाता है जिनका भाग्य तो अच्छा होता है किंतु वे अपनी लापरवाही या अकर्मण्यता के कारण उसका लाभ नहीं उठा पा  रहे होते हैं वो ऐसी सलाहों को मानकर सुधर जाते हैं!किंतु जिनका भाग्य ही न साथ दे रहा हो उनके लिए ऐसी सलाहें हमेंशा लाभप्रद ही नहीं होती हैं वो ऐसे लोगों को बेशर्म बना देती हैं उनका तनाव बढ़ा देती हैं उन्हें अवसाद में डुबा देती हैं कई बार तो ऐसे अवसाद ग्रस्त लोग निरंतर प्रयासों को करने के बाद भी असफल रहने के कारण बेबशी में अपराधी तक बन जाते हैं जिनमें उनकी कोई गलती नहीं होती ऐसे भले लोग भी यदि उनके प्रयास निरंतर असफल होते जा रहे हों फिर भी उन्हें ताने दिए रहें हों तो सहनशीलता की भी सीमा होती है !ऐसी तमाम मजबूरियों में वे अपराधों की ओर मुड़ते हैं या आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठा लेते हैं !
      किसी को परिश्रम करके काम करने की सलाह देना बहुत अच्छी बात है किंतु उसके जीवन परिस्थितियों मनस्थिति स्वास्थ्य स्थिति आदि को ध्यान में रखते हुए ही उसे ऐसी सलाह दी जानी चाहिए !अच्छी से अच्छी सलाह देने वाले सलाहकार को इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि उसकी सलाह का पीड़ित पर किसी भी प्रकार से दुष्प्रभाव न पड़ने पाए क्योंकि पीड़ित व्यक्ति अपने मानसिक संसार में न जाने किस समस्या में उलझा हो हो सकता है कि न कह पा  रहा हो और न ही सह पा रहा हो !ऐसे लोगों के लिए कर्मवाद की अच्छी से अच्छी सलाहें भी अनेकों प्रकार की समस्याएँ तैयार कर देती हैं !जैसे घी खाना बहुत अच्छा होता है और घी वात पित्त कफ आदि तीनों का संतुलन बनाने के लिए सहायक होता है असीम शक्तिबर्द्धक होता है किंतु कोई भी कुशल चिकित्सक किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य का अच्छे ढंग से परीक्षण किए बिना उसे गहि खाने के लिए प्रेरित नहीं करता है अपितु स्वास्थ्य की परिस्थितियों के आधार पर बहुतों को दूध घी मीठा मेवा आदि शक्तिबर्द्धक पदार्थ खाने से रोकना भी पड़ता है !इसलिए क्या किसे खाना चाहिए क्या नहीं किससे उसका स्वास्थ्य बनेगा और किससे बिगड़ेगा इसका निर्णय केवल उस व्यक्ति की स्वास्थ्य परिस्थितियों को समझकर ही लिया जा सकता है!उसी प्रकार से किस व्यक्ति के लिए किस समय किस प्रकार का काम लाभप्रद और सहायक हो सकता है इसका निर्णय कोई कुशल भाग्य चिकित्सक ही ले सकता है !
        कर्मवाद का उपदेश करने वालों को दूसरी बड़ी बात ये समझनी चाहिए कि कर्मवाद का उपदेश करके हम किसी को कर्म के लिए प्रेरित तो कर सकते हैं किंतु उससे वो सफल होगा ही उसका उसे आश्वासन नहीं दे सकते !कर्मवाद से पीड़ित मानसिकता वाले लोग अपनी असावधानी के कारण बहुतों की जिंदगी से खेलते देखते जाते हैं ऐसे लोगों में जीवन को समझने की योग्यता नहीं होती फिर भी दूसरों के जीवन को बिना समझे उन्हें समझाते हुए कई बड़ी समस्याओं में फँसा देते हैं !
       जैसे गाय का ही उदाहरण लें - हमारे यह मान लेने से कि परिश्रम पूर्वक केवल गोदोहन करने से गाय दूध को दूध देना ही पड़ेगा !ऐसे केवल कर्म से दूध मिल जाएगा क्या?कर्मवाद की सीमा यहीं तक है !इसके अलावा गाय दूध देती है या नहीं दूसरी बात प्राचीन कर्म अर्थात भाग्य को समझने के लिए देखना होगा कि जहाँ तक भाग्य और प्राचीन कर्मों की बात है तो उसमें देखना पड़ेगा कि पहले से गाय को अच्छा भोजन कराया गया या नहीं क्योंकि हमारे द्वारा खिलाए हुए अच्छे भोजन से ही तो गाय के स्तनों में दूध बनता है!इस प्रकार से हमारे गाय को द्वारा पहले दिया गया भोजन सेवा सुश्रूषा आदि से ही तो उसके स्तनों में दूध बना होगा!ये हैं प्राचीन कर्म अर्थात भाग्य और जो गोदोहन की प्रक्रिया है ये वर्तमान कर्म है!ये प्राचीन कर्म पद्धति हर प्रकार के कर्म में लागू होती है !एक प्रसिद्ध कहावत है कि "जो बोओगे वही काटोगे" इसमें बोना भाग्य है और काटना वर्तमान कर्म है !देखा जाए तो बोना और काटना दोनों ही कर्म हैं किंतु बोना अर्थात प्राचीन कर्म भाग्य बन जाता है और काटना अर्थात वर्तमानकर्म अभी के लिए तो केवल कर्म है किंतु भविष्य के लिए यह भी भाग्य बन जाएगा !ऐसी पारिस्थिति में कल्पना की जा सकती है कि भाग्य के बिना अकेला कर्म हमें केवल व्यस्त रख सकता है किंतु फल मिलना तो भाग्य पर ही आश्रित है !     कर्मवाद के उन्माद में हो जाते हैं कई प्रकार के अपराध !  
      केवल वर्तमान कर्मों के आधार पर तुरंत फल पाने का लालच देना व्यक्ति में पागलपन पैदा करता है उसे अपराधी बनाता है बलात्कारी बनाता है हत्यारा एवं आत्महत्यारा बनाता है !किए हुए कर्म का संपूर्ण फल तुरंत नहीं पाया जा सकता ! आज का बोया गया कर्मबीज कालांतर अर्थात भविष्य में भाग्यवृक्ष बनता है तब उसमें सफलता के फल लगते हैं इसीलिए कहते हैं कि वर्तमान समय के अच्छे कर्म ही भविष्य में फल देने योग्य बनेंगे तब उनकी संज्ञा भाग्य होगी !
    सिद्धांत है कि "जो पेड़ लगाएगा वो फल खाएगा !" क्योंकि फल तो पेड़ में लगेंगे जो पेड़ ही नहीं लगाएगा उसे बिना पेड़ के फल कैसे मिल जाएँगे ?यही तो है बिना भाग्य के निष्फलकर्म का उदाहरण ! इसीप्रकार से  "जो गाय को खाना खिलाएगा वो दूध दुहेगा!" क्योंकि गाय को खिलाए गए भोजन से ही दूध बनता है इसलिए गाय को कराए  गए  भोजन आदि सेवा कर्म से ही तो दूध बनता है यही तो भाग्यनिर्माण प्रक्रिया है यदि ऐसा होगा तो दूध दुहने का कर्म करने से दूध मिलेगा !इसी प्रकार से  "जो बोएगा वो काटेगा! ""जिसने जैसा किया उसने वैसा  भोगा!"आदि और भी बहुत कुछ समझा जाना चाहिए !इन सब बातों से सुनिश्चित होता है कि जो कुछ भी हम आज कर्म करके तुरंत पा लेना चाहते हैं वो हमें मिलेगा या नहीं इसका निर्णय बहुत पहले हो चुका होगा और जब इस बात का निर्णय हो रहा होगा उस समय हम इस कर्म की प्रक्रिया में सम्मिलित भी नहीं हुए होंगे तो आज अचानक सम्मिलित हो भी जाएँ तो उसका लाभ आज तुरंत हमें कैसे मिल सकता है ! 
    ऐसी परिस्थिति में पेड़ लगाए बिना जैसे फल नहीं तोड़े जा सकते !गाय को चारा खिलाए बिना दूध नहीं दुहा जा सकता है ! फसल बोए बिना जैसे काटना संभव नहीं है उसी प्रकार से भाग्य को भूलकर अर्थात भाग्य के बीज बोए बिना केवल वर्तमान समय में कर्मों को करके फ़सल काटने की उम्मींद नहीं रखनी चाहिए !

सुख शांति और संतोष भाग्य से मिलता है न कि कर्म से !
      वर्तमान वैश्विक समाज में मनोरोगियों की संख्या बहुत बढ़ती जा रही है विश्व के कई देशों की सरकारें इससे बहुत चिंतित भी हैं तनाव अवसाद आत्मग्लानि जैसी समस्याओं को रोकने के लिए सराहनीय प्रयास करना चाह रही हैं इसके लिए बड़े बड़े बजट फंड भी पास करती हैं विश्व चिंतित है तनाव ग्रस्त बड़े बड़े अधिकारियों फिल्मी कलाकारों शिक्षकों अर्थात अत्यंत संपन्न और प्रबुद्ध लोगों को भी आत्महत्या जैसे अत्यंत भयानक पथ पर कदम रखने के लिए मजबूर होना पड़ा रहा है !अत्यंत परिश्रम पूर्वक लोग अपने जीवन को सफलताओं और सुख सुविधाओं से सुसज्जित करते हैं इसके बाद ऐसे क्या कारण हो सकते हैं कि अत्यंत कठिनाई से प्राप्त किए गए इतने सारे सुख साधनों को भोगने की भावना छोड़कर इसके विपरीत उसे मृत्यु जैसी अत्यंत दारुण पीड़ा भी सुखद लगने लगती है !
        पहले गरीबों ग्रामीणों में मनोरोग की दुर्घटनाएँ इसीलिए कम थीं क्योंकि वे सुख के साधन जुटाने में लगे रहते थे और आशा बनी रहती थी कि जब सुख साधन सम्पूर्ण हो जाएँगे तब सुख भोगूँगा किंतु उनका सारा जीवन व्यतीत हो जाता था वे सारे सुख साधन जुटा ही नहीं पाते थे और आशा ही आशा में जीवन व्यतीत हो जाया करता था ये सुख साधन इकट्ठे करने की आशा उन्हें जीवन दान दिया करती थी और असफल होने पर वे उस मानसिक संकट से उबरने के लिए भाग्य भावना का सहारा ले लिया करते थे !किंतु कर्मवादियों ने उन्हें भी ऐसा भ्रमित किया है कि उन्होंने भी भाग्य भावना को नकारना शुरू कर दिया अब उन्हें भी लगने लगा कि हम कर्म करते हैं तो हमें भी फल मिलना ही चाहिए यदि ऐसा न हुआ तो निराश हताश होकर इन कर्मवादियों की कृपा से किसान भी आत्म हत्या करने लगे !अन्नदाता इतना अधिक सहनशील होता है कि बड़े से बड़े संकट सहकर भी वो आत्महत्या जैसे कदम नहीं उठा सकता था तब वो अपने कर्तव्य का पालन करने की भावना से कर्म करता था अब वो केवल फल प्राप्ति की कामना से कर्म करता है इसलिए तब अभाव से उत्पन्न हुए तनाव को वो सह जाता था किंतु फलभावना से जुड़ते ही अब तो 'इधर कर्म किया उधर फल मिलने लगे' जैसे स्विच सिस्टम का आदि किसान भी हो गया गरीबों ग्रामीणों में भी ऐसी ही भावना बैठ गई अब वहाँ से भी आत्म हत्या की दुर्घटनाएँ सुनाई पड़ने लगीं !
     वस्तुतः सुख शांति और संतोष जैसी अवस्थाएँ सुख साधनों से नहीं अपितु अपने भाग्य से मिलती हैं यदि ऐसा न होता तो समस्त सुख सुविधाओं के संसाधनों से संपन्न बड़े बड़े अधिकारियों फिल्मी कलाकारों शिक्षकों एवं अत्यंत संपन्न और प्रबुद्ध लोगों को भी आत्महत्या जैसे अत्यंत भयानक पथ पर कदम रखने के लिए मजबूर क्यों होना पड़ता !इससे ये बात स्पष्ट हो जाती है कि भाग्य भावना मिटते ही तनाव बढ़ने लग जाता है !
   भाग्य की उपेक्षा करने वाले और भाग्य भावना को न मानने की सलाह देने वालों ने ही समाज को तनाव अवसाद आत्मग्लानि के गर्त में धकेला है अब बेचारे इस परिस्थिति को नियंत्रित करने में लाचार बेबश हैं ! इसीलिए समाज में बढ़ता जा रहा है तनाव और यह आग लगाने वाले कर्मवादी न जाने कहाँ दुबके हुए हैं !
       जिस वृक्ष को आपने लगाया नहीं उसके फलों पर नैतिक अधिकार आपको कैसे मिल सकता है उसका नैतिक अधिकार आपको प्रयास पूर्वक प्राप्त करना होगा किंतु जो लोग बलपूर्वक बेईमानी पूर्वक या भ्रष्टाचार के धन से उन सुख सुविधाओं को संचित कर लेते हैं और जब उन्हें भोगने का प्रयास प्रारंभ करते हैं तो भाग्य में न बदे होने के कारण उन बेचारों की सुख भोगने की क्षमता ही समाप्त होते  चली जाती है उस धन का कमाया हुआ मीठा खाएँगे तो सुगर होगी ऐसे ही उस धन से खरीदकर जो भी खाएँगे वो भाग्यवानों के लिए अमृत होते हुए भी बेईमानों के लिए जहर होता चला जाएगा !जैसे गन्दा डीजल पेट्रोल गाड़ी का इंजन खराब कर देता है ऐसे ही भाग्य के विपरीत बेईमानी पूर्वक अर्जित किए गए सुख साधन शरीर के जिस अंग में भी लगते हैं उसे दीमक की तरह चाट जाते हैं !महँगी गाड़ी लेकर उस पर चलना चाहेंगे तो दुर्घटना हो जाएगी !कुछ खाना चाहेंगे तो उसी से संबंधित बीमारी  हो जाएगी !धन के बलपर सुंदर स्त्री या सुन्दर पुरुष का सुख भोगना चाहेंगे तो नपुंसकता आदि एक से एक भयानक रोग उत्पन्न हो जाएँगे !
     इस प्रकारसे सारे सुख साधनों से संपन्न लोग सुख भोगने योग्य न रहने के कारण उन भोग विलास के संसाधनों को देख देख कर दुखी हुआ करते हैं यही तनाव बढ़ते बढ़ते उन्हें आत्महत्या जैसी दारुण प्रवृत्ति की ओर खींच ले जाता है !उसके दुर्भाग्यपूर्ण निधन के बाद वो धन जिस जिस के पास जाता है उसके यहाँ भी वैसा ही जहरीला असर करता है उस धन से सुख पाने के प्रयास कोई कितने भी क्यों न कर ले किंतु ऐसा धन फेंकते फेंकते भी बहुत कुछ छीन कर चला जाता है जैसे तेजाब हाथ में रखकर तुरंत फ़ेंक भी दिया जाए तो भी हाथ तो जला ही देता है उसी प्रकार से भाग्य में बड़े सुखों को भोगने की भावना अपने को ही नष्ट कर देती है !जबकि भाग्यवान लोगों के यहाँ यही सुख बड़ी आसानी से कृपा पूर्वक पहुँचते हैं और उन्हें सुख शांति संतोष आदि प्रदान करते हैं !
   फल प्राप्ति की कामना से किया गया कर्म मनोरोगी बना देता है !
      कर्मवादी लोग समाज के सीधे साधे भोले भले लोगों को भ्रमित करके सुन्दर सुन्दर सुख साधनों को भोगने के लिए प्रेरित करते हैं ललकारते हैं दुदकारते हैं बताते हैं कि इन्हें भोगना तुम्हारा अधिकार है ये तुम्हारे भोगने के लिए ही बने हैं इन्हें तुम कर्म करके प्राप्त कर सकते हो !संसार में ऐसी कोई दुर्लभ वास्तु नहीं है जो कर्म करके प्राप्त नहीं की जा सकती है इस दुनियां में कर्म करके सब कुछ पाना संभव है !आदि आदि और भी ऐसा बहुत कुछ !
     ऐसे कर्मवादियों के बहकावे में आकर उसने जितनी जहाँ जो जो अच्छी से अच्छी चीजें जीवन में जिसकिसी के पास भी देखी सुनी आदि होती हैं उन सबको पाने खाने भोगने की भावना बलवती हो जाती है जबकि अभी तक उनके लायक वो अपने को समझता ही नहीं था !अब वो उन्हें पाने के लिए न केवल प्रयास करता है अपितु उनकी चाहत में मरने मरने पर उतारू हो जाता है यहाँ तक कि उन्हें पाने के लिए अब तो उसे कितना भी बड़ा पाप या अपराध आदि करना पड़े उससे भी वो नहीं हिचकता है!ये बात बाद की है कि भाग्य के विपरीत अर्जित किए गए वे सुख साधन उसके लिए कितने सहायक होते हैं किंतु वो फल प्राप्ति की इच्छा के उन्माद में वर्तमान समय में तो अपराध करने लग ही जाता है !
        अन्याय की से साढ़े भाग्य या प्राचीन कर्मों को न मानने वाला ज्ञानदुर्बल बेचारा कर्मवादी गरीबों ग्रामीणों दीन दुखियों अपाहिजों असफ़लों भोले भाले भाग्यपीड़ित समाज को तमाम प्रकार की मनगढंत कहानियाँ सुना सुना कर कर्म करके तुरंत फल पाने के लिए प्रेरित करता या ललकारता है उसके कर्म के बदले तुरंत फल पाने के झूठे सपने दिखाता है जिस पर किसी का बश ही नहीं है और न ही किसी का अधिकार ही है फिर भी ऐसे कैरियर सलाहकार या केवल सलाहकार कर्म के साथ फल को जोड़कर व्यक्ति को कई प्रकार की समस्याओं में फँसा देता है उसे समझाता है कि तुम कोई लक्ष्य बना लो और उसके लिए कर्म करने लगो सफलता अवश्य ही तुम्हारा कदम जरूर चूमेगी !किंतु कब चूमेगी और चूमेगी भी या नहीं इसका कोई मजबूत जवाब या प्रमाण उसके पास नहीं होते हैं फिर भी तुरंत फल पाने का लालच देकर कर्म के कुएँ में धकेल देते हैं सलाहकार !सलाह मानने वाला अपने कर्म और कर्म के समय को न देखकर केवल फल पाने के लिए बेचैन हो रहा होता है उसका एक एक पल भार की तरह बीत रहा होता है और तुरंत फल पाने के लालच में कोई न कोई अपराध कर बैठता है !इसी प्रकार से " प्रयास करने वालों की कभी हार नहीं होती है "जैसे जुमले भी हवा में उछाला करते हैं नासमझ सलाहकार लोग !ऐसे सलाहकार बड़े बड़े फलों का लालच देकर न जाने कहाँ कहाँ से कुदा  देते हैं भोले भले सीधे साधे भाग्यपीड़ित लोगों को !     लोगों को समझाते हैं कि सफलता परिश्रमी व्यक्ति के चरण चूमती है ये बात तो सही है किंतु वो पुराना परिश्रमी रहा हो तब न !जिससे उसके द्वारा पहले किया जा चुका परिश्रम उसका भाग्य बन चुका हो ! इसका मतलब ये नहीं है कि किसी को लक्ष्य हासिल करने का लालच देकर उसे परिश्रम करने के लिए प्रेरित कर दिया जाए और फिर आशा की जाए कि उसे फल मिल ही जाएगा !किंतु जो सलाहकार लोग ऐसे ही कर्म करते हैं ऐसे आधार बिहीन लालच दे देकर उन्होंने बहुतों को अपराध के गर्त में धकेला होता है एवं बहुतों को बलात्कारी बना दिया होता है और बहुतों के जीवन के साथ खिलवाड़ किया होता है !
     उदाहरण स्वरूप जैसे किसी व्यक्ति ने किसी फ़िल्म को देखकर या कोई कहानी सुनकर या किसी दूसरे को गाड़ी बँगला कोठी आदि के अच्छे अच्छे सुख भोग करते देखकर ये सब कुछ तुरंत पाने के लालच में वो किसी सलाहकार के पास जाता है तो वो सलाहकार अपनी वही घिसी पिटी बात बोल देता है कि प्रयास करने वाले कभी पराजित नहीं होते हैं !उनकी बात मानकर वो बेचारा अपने भाग्य की परवाह किए बिना प्रयास करने लगता है और ताबड़तोड़ परिश्रम करता है !उसके द्वारा किए गए उस तत्कालीन कर्म से वो तुरंत जीवन का कोई ऐसा बड़ा लक्ष्य बनाकर उसे हासिल कर लेना चाहता है किंतु बार बार असफल होने के बाद निराश हताश होकर जब वो उन्हीं सलाहकार साहब के पास पहुँचता है तो वो फिर प्रयास में कभी का रोना रोकर उसे ही दोषी ठहरा देते हैं ऐसी परिस्थिति में वो निरपराध व्यक्ति सारे नैतिक प्रयास करके तो थक चुका होता है इसलिए वो प्रयास में कमी के आरोप सह नहीं पाता और अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए अपराध का रास्ता चुन लेता है बात अलग है कि लक्ष्य का साधन उसे इससे भी नहीं होता है और वो जेल चला जाता है किंतु वह अपने प्रयास की कमी की रिक्तता को पूरा जरूर कर लेना चाहता है !
    कोई लड़का किसी सुंदर लड़की को देखता है वो उस पर मोहित हो जाता है और उसे पा लेना चाहता है !केवल कर्मवादी सलाहकार महोदय उससे कहते हैं कि प्रयास  करने वालों की कभी हार नहीं होती है !प्रयास करते रहो सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी किंतु वो अपनी सीमा में सारे प्रयास कर चुका होता है फिर भी जब सफलता नहीं मिलती है अर्थात वो लड़की उसे नहीं मिल पाती है तब सलाहकार की बातों से उसका भरोसा उठने लगता है और उसे पश्चात्ताप होने लगता है कि उसने तो कहा था कि "कर्म करो सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी" किंतु मैंने तो सारे प्रयास कर लिए इसके पीछे लगने के कारण पढ़ाई में काम धंधा सारा चौपट हो गया नौकरी छोड़ आया घर वालों की निगाह से गिर गया किंतु इस लड़की का हमसे बोलना तो दूर हमारी ओर देखती भी नहीं है यदि यह पता होता तो इसके चक्कर में पड़कर मैं अपना जीवन क्यों बर्बाद करता !सलाहकार महोदय में तो कहा था कि प्रयास करोगे तो लक्ष्य अवश्य मिलेगा फिर मिला क्यों नहीं !ऐसा चिंतन करते करते सलाहकार से तो उसका भरोसा टूटता  है ही  साथ ही उस लड़की के प्रति लगाव के कारण आज तक हुई अपनी संपूर्ण हानि के लिए वो उसे जिम्मेदार मानने लगता है जिसमें उसका कोई दोष भी नहीं होता है फिर भी वो  उसे दोषी मानकर दंडित करने का निश्चय कर लेता है !ऐसी निराश हताश परिस्थिति में घटित होती हैं लड़कियों पर एसिड फेंकने जैसी घटनाएँ या फिर हत्या आत्महत्या अथवा गंभीर अवसाद में डूब जाने जैसी घटनाएँ !      
      इस प्रकार से जो लोग भाग्य को न मानकर केवल कर्म को ही महत्त्व देते हैं और लगातार सफल होते जाते हैं वे इतने अधिक भाग्यशाली होते हैं कि भाग्य उनका हर परिस्थिति में साथ दिया करता है और वो आगे बढ़ते चले जाते हैं !इसीलिए ऐसे लोगों को लगने लगता है कि जीवन में केवल कर्म की भूमिका है और  भाग्य का कोई आस्तित्व ही नहीं है !इसलिए ऐसे लोग औरों को भी केवल कर्मवाद का उपदेश करने लगते हैं किंतु उन बेचारों का भाग्य यदि उतना अच्छा नहीं होता है तो वही कार्य उसी प्रकार से करने पर भी उसे लाभ नहीं होता है अपितु कई बार तो हानि होते भी देखी जाती है !इसी प्रकार से किसी भाग्यवान रोगी को किसी औषधि से या किसी डॉक्टर के द्वारा दी गई औषधि से यदि लाभ हो जाता है तो वो वही औषधि और वही चिकित्सक अन्य रोगियों को भी बताता है किंतु "जिसका जैसा भाग्य उसे वैसा लाभ " इस सिद्धांत से उन बेचारे रोगियों का यदि उतना अच्छा भाग्य न हुआ तो वही औषधि और वही चिकित्सक उसके लिए निरर्थक सिद्ध हो जाता है ! समय और भाग्य के इस सूक्ष्म विज्ञान को न समझ पाने के कारण समाज का बहुत बड़ा वर्ग निरर्थक प्रयास करते हुए भटकता रहता है और हर जगह से निराश हताश होकर तनाव का शिकार हो जाता है !ऐसी परिस्थिति में किसका कैसा भाग्य है किसे किस काम में किस स्तर तक हानि लाभ आदि हो सकता है ये तो किसी 'भाग्यवेत्ता 'या 'समयवैज्ञानिक' को ही पता होगा इसकी सच्चाई तो वही बता सकता है !
       कुलमिलाकर जैसे कर्म किए बिना कुछ नहीं मिल सकता ये सच है उसी प्रकार से जिसके भाग्य में जो बदा ही नहीं है वो उसे तत्काल कर्म करने से भी नहीं मिल सकता है !कर्म और भाग्य की अलग अलग परिभाषा करते हुए हमें ध्यान रखना होगा कि भाग्य भी हमारे द्वारा किए गए अत्यंत पुराने कर्मों का ही समूह होता है!इस प्रकार से भाग्य और कर्म दोनों हमारे द्वारा किए गए कर्म ही होते हैं किंतु 'भाग्य' हमारे द्वारा किए गए कर्मों का प्राचीन समूह होता है और वर्तमान कर्म तो वर्तमान समय में किएजा रहे होते हैं !हमें प्राचीन कर्मों का फल तो मिलता ही है साथ ही हमारे द्वारा किए गए  हमारे प्राचीन कर्मों का समूह भी हमें सुख दुःख पहुँचाता रहता है !पुराने लोग अपने बच्चों को सिखाया करते थे कि बेटा !आधी रोटी या नमक रोटी खा लेना लेकिन बुरे कर्म नहीं करना अच्छे कर्म करना क्योंकि बुरे कर्म करने से पाप लगता है और अच्छे कर्म करने से पुण्य होता है इस प्रकार से अपने किए हुए अच्छे और बुरे कर्मों से हर किसी के भाग्य का निर्माण होता है !शास्त्र कहता है कि अपने किए हुए अच्छे बुरे दोनों कर्म हर किसी को अवश्य भोगने पड़ते हैं इन्हीं दोनों के सम्मिलित फल को भाग्य कहा जाता है !अपने अच्छे कर्मों से बना अपना भाग्य अपने को सुख देता है एवं अपने बुरे कर्मों से बना भाग्य अपने को दुःख देता है इस प्रकार से हर किसी को मिलने वाला सुख और दुःख हर किसी के अपने अच्छे बुरे  परिणाम होता है इसलिए यदि चाहते हो कि हमें दुःख न मिले तो दूसरे को दुःख न दो !जो सुख पाना चाहता है वो दूसरों को भी सुख देने का प्रयास करे !हमारे द्वारा एकांत में भी किए गए अच्छे बुरे कर्म भी ईश्वर देखता है उसके अनुशार अच्छे बुरे कर्मों का फल देता है !बड़े बूढ़ों के द्वारा कही गई ऐसी बातें लोग बड़ी श्रृद्धा से सुनते मानते एवं अनुकरण किया करते थे !ऐसी बातों का ही प्रभाव था कि लोग एक दूसरे की मदद किया करते थे एक दूसरे की सुरक्षा कर लिया करते थे और की बहू बेटी को भी अपनी बहू बेटी के जैसा आदर देते थे!क्योंकि उन्हें पता था कि दूसरों की बहू बेटी की रक्षा हम करेंगे तो हमारी बहू बेटी की रक्षा भगवान् करेंगे !जिस समाज में अधिकाँश लोग इस प्रकार की पवित्र सोच से संपन्न हो जाएँ तो बलात्कार भावना पनपेगी ही कैसे !चोर लुटेरे हत्यारे धोखाधड़ी आदि करने वाले  दुःख देने वाले लोग कहाँ से आते !क्योंकि सबको भरोसा होता था कि दुःख देने से दुःख मिलेगा और सुख देने से सुख मिलेगा इसलिए सुख पाने के लालच में ही सही लोग एक दूसरे को सुख देने का प्रयास किया करते थे जिसे वे सुखी नहीं भी कर पाते थे उन्हें भी प्रयास जन्य पुण्य तो मिल ही जाता था जो अच्छे भाग्यनिर्माण में सहायक होता था !

कर्मवादियों का भ्रम :
       बहुत लोगों को देखा जाता है कि वे भाग्य समय आदि की बिना परवाह किए ही काम करते हैं फिर भी लगातार सफल होते चले जाते हैं ऐसे लोग भाग्य के अत्यंत धनी होते हैं प्रवाल भाग्य के कारण  वे जब जो निर्णय  लेते हैं वे अच्छे और भाग्य सम्मत ही होते हैं इसीलिए वे सफल होते चले जाते हैं  ऐसी परिस्थिति में उन्हें अधिक प्रयास भी नहीं करने पड़ते हैं और कुछ समय प्रयत्न करने के बाद ही सफल हो जाते हैं वस्तुतः वो   उनके भाग्य के उदय होने का वास्तविक समय होता है!दूसरी ओर दुर्बल भाग्य वाले लोग लगातार प्रयास करने के बाद  भी सफल नहीं हो पाते हैं और कुछ आधे अधूरे सफल हो पाते हैं !ऐसे लोगों की असफलता में भी कर्मवादियों को उन्हीं की कमी दिखाई पड़ रही होती है !
      ऐसी परिस्थिति में भाग्यवान लोग  दुर्बल भाग्य वाले लोगों को अपनी तरह से काम करने की अकल दे रहे होते हैं ताकि वे भी सफल हो जाएँ किंतु उन दोनों की बराबरी कैसे की जा सकती है !
      प्रयास करने के बाद भी उचित समय न होने के कारण सफलता मिलने में यदि कुछ लोगों को काफी समय लग जाता है और उचित समय आने पर वे सफल होते हैं तो कर्मवादी सलाहकार लोग यहाँ भी अपने बचने का रास्ता निकाल ही लेते हैं और ऐसे लोग समझाने लगते हैं -"कोई पत्थर टूटता भले अंतिम प्रहार से हो किंतु इसका मतलब ये कतई नहीं होता है कि उसके ऊपर पहले किए गए प्रयास निष्फल हो गए !"अर्थात उस पत्थर को तोड़ने में  उस पर पहले किए गए प्रहारों की भी भूमिका मानी जानी चाहिए !किंतु वो ये नहीं बता पाते हैं कि तमाम प्रहार झेलने के बाद भी जो पत्थर नहीं टूटे उन पर किए गए समस्त प्रहारों की भूमिका को कैसे समझा जाए !अर्थात उनकी कोई भूमिका रही भी या नहीं !
   बहुत सारे ऐसे प्रकरणों में एक से एक योग्य लोगों के प्रयासों को विफल होते देखा जाता है जिसमें उसकी कोई कमी नहीं होती है फिर भी उसके कामों में रुकावट होती देखी जाती है ! 
      भाग्य  और समय का संबंध :
     भाग्य के प्रबल प्रभाव को समझने के बाद अब यह निर्णय कर पाना अत्यंत कठिन होता है कि किसका भाग्य उसके जीवन के किस वर्ष में कितना अधिक प्रभावी होगा और उस भाग्य का जीवन से जुड़े किस काम में कितना सहयोग और कितना असहयोग रहेगा !स्वास्थ्य की दृष्टि से कब कैसा भाग्य रहेगा !संबंधों की दृष्टि से कब कैसा भाग्य रहेगा !वैवाहिक विषयों की दृष्टि से कब कैसा भाग्य रहेगा !भूमि भवन वाहन आदि की दृष्टि से भाग्य कब कितना साथ देगा आदि!जीवन से जुड़े ऐसे सभी विषयों को अच्छी तरह जाँच परख कर उसी के अनुसार अपने जीवन को व्यवस्थित करने का प्रयास किया जा सकता है !इससे असफलता मिलने या प्रतिकूलताओं के बीच रहकर भी व्यक्ति का धैर्य नहीं छूटता है !क्योंकि ऐसा समय आएगा उसके इतने दिनों बाद अच्छा समय भी आएगा ये उसे पहले से ही पता होता है इसलिए वो सबकुछ सहकर भी समय व्यतीत कर लेता है !
     भाग्य दो प्रकार का होता है एक जन्म से दूसरा कर्म से !जन्म से वो भाग्य प्रारंभ होता है जो पिछले जन्म के कर्मों से संबंधित होता है अर्थात हमारे किए हुए तत्कालीन कर्म ही कुछ समय बाद भाग्य बनकर हमारे सामने आ जाते हैं और हमें भोगने पड़ते है !ऐसे कर्म जब बुढ़ापे में या मृत्यु से कुछ समय (वर्ष)पहले हो जाते हैं तो उन्हें भाग्य बनने में जो और जितना समय लगता है उतने समय में उसी व्यक्ति का जन्म हो जाता है और उस जीवन के लिए वह स्थिर भाग्य बन जाता है !इसलिए जन्म से जुड़े हुए भाग्य का प्रभाव भी व्यक्ति के सारे जीवन तक चलता है उसी के अनुशार ही प्रयास के परिणामों में अंतर पड़ने लग जाता है !इससे जीवन के सभी पक्षों में सफलता असफलता आदि मिलती चली जाती है !भाग्य के इस पक्ष को समझने के लिए ऐसे व्यक्ति के जन्म के क्षण का अनुसंधान करके यह जाना जा सकता है कि इसके जीवन में कब अर्थात किस वर्ष में किस प्रकार के प्रयास के द्वारा कितना हानि लाभ सुख दुःख आदि मिलना संभव है कब किस प्रकार के प्रकरणों से इसे विशेष सावधानी रखनी चाहिए !ये क्या पढ़ेगा इसकी किस विषय को पढ़ने में कितनी रूचि किस वर्ष में रहेगी !इसीप्रकार से इसका कार्यक्षेत्र क्या बनेगा उसमें किस वर्ष कितने समय तक किस प्रकार का अच्छा या बुरा परिणाम सहना पड़ेगा आदि ! 
     भाग्य का दूसरा प्रकार है जो इसी जन्म में बनता और इसी जन्म में भोगना पड़ता है इसके बनते समय यदि सावधानी बरती जाए इसके बाद इसे बदलने के प्रयत्न गंभीरता पूर्वक किए जाएँ तो इसके विषैलेपन अर्थात विपरीत फल को कम किया जा सकता है और अच्छाइयों को प्रयत्न पूर्वक विशेष अधिक बढ़ाया जा सकता है!
 इसका फल इसी जन्म में मिलने लग जाता है बचपन में किसी ने कोई प्रयास किया तो युवा अवस्था तक उसका फल मिलते दिखने लग जाता था !कई बार कुछ साधारण कर्मों के तो आज प्रयास किया जाएँ और कल फल मिलने लग जाता है किंतु कार्य के अनुशार इस  जन्म के कर्मों का परिमार्जन करके उन्हें भाग्य बनने से रोका भी जा सकता है उनके दुष्प्रभाव को प्रयत्न करके घटाया भी जा सकता है !
      इन दोनों प्रकारों के भाग्य का फल हमें जीवन के किस वर्ष में किस रूप में किस तरह से भोगने को मिलेगा !इसका पूर्वानुमान समय वैज्ञानिक लोग सफलता पूर्वक लगा लिया करते हैं !

             अधूरा कर्मवाद सबसे अधिक भयानक !-
     तत्कालीन कर्म को यदि कर्म माना जाता है तो प्राचीन कर्म भी तो कर्म ही हैं वही प्राचीन कर्म ही तो भाग्य कहे जाते हैं!जीवन रूपी रथ जो भाग्य और कर्म के दो पहियों पर तेजी से दौड़ते देखा जाता है उसी रथ से भाग्य का एक पहिया निकालकर केवल कर्म के आधार पर जीवन को दौड़ाने के प्रयासों में लगे हैं अत्याधुनिक जीवन जीने की इच्छा रखने वाले भाग्यविरोधी कर्मवादी लोग !उसी के दुष्प्रभाव समाज में सभी प्रकार के अपराधों एवं असहनशीलता के रूप में दिखाई पड़ रहे हैं !क्योंकि उससे रथ तो दौड़ना संभव था ही नहीं अपितु वही रथ नास्तिकवाद जैसी दुर्घटनाओं का शिकार होने लगा !
       भाग्य जैसी बातों को जब अत्याधुनिक पाश्चात्य दृष्टि से देखा जाने लगा तो उन्हें ये सब बकवास लगने लगा क्योंकि वे इसके महत्त्व को जानते समझते नहीं थे इसी भ्रम में  विकल्प सोचे बिना उन्होंने न केवल इसके विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया अपितु ऐसी बातों का बखान करने वाले समस्त भारतीय प्राचीन  विज्ञान को ही कटघरे में खड़ा कर दिया यहाँ तक कि आयुर्वेद  जैसा महान  चिकित्सा विज्ञान भी इसी कारण उपेक्षा का शिकार होता चला गया !उसे भी ऐसे लोगों ने बकवास कहना शुरू कर दिया !अतीत में ऐसे हठवादी  अज्ञानी अदूरदर्शी लोग धीरे धीरे भाग्यभावना को रौंदते एवं कर्मवाद  के बीज बोते चले गए !
     जीवन से पाप पुण्य की भावना मिटते ही सभी प्रकार के अपराध करने की प्रवृत्ति पैर पसारने लगी !मिलावट चोरी लूट अपहरण फिरौती बलात्कार भ्रष्टाचार वेश्यावृत्ति हत्या शिक्षकों का अपमान माता पिता का अपमान कन्याओं का अपमान जैसी दुर्घटनाओं का बोल बाला हो गया ! क्योंकि गलत काम करने से पाप लगेगा अच्छे काम करने से पुण्य होगा !पाप लगने से हमें दुःख मिलेगा एवं पुण्य करने से हमें सुख मिलेगा !हम जो भी अच्छे बुरे कर्म जहाँ कहीं भी कभी भी करते हैं समय हर समय साक्ष्य होता है इसलिए उसका लेखा जोखा उसी क्षण में हो जाता है उसके प्रभाव स्वरूप बनने वाले भोगने योग्य परिणामों (भाग्य) आदि सभी बातों को बकवास बताकर मिटाने के प्रयास किए गए !इसके दुष्परिणाम ये हुए कि सारे लोग भाग्यवाद से मुक्त होकर कर्मवाद का स्वच्छंद जीवन जीने लगे !स्वेच्छाचार जैसा पाप बढ़ते चला जा रहा है ! भाग्य समेत पाप पुण्य भावना मिटते ही लोगों के मन में ऐसी विचित्र सोच पनपने लगी-
      किसी काम लायक न रह जाने के कारण माता पिता जैसे बूढ़े लोग वृद्धाश्रमों में भेजे जाने लगे पाप पुण्य भावना हटते ही हमें इस दुनियाँ में लाने वाले वे पवित्र लोग बोझ बन गए !ऐसा बदलाव जब भविष्य में माता पिता बनने वाले लोगों को समझ में आया तो वे भी उसी के अनुशार बदलने लगे उन्हें भी यही स्वच्छंदता और स्वेच्छाचार पसंद आने लगा और संतान पैदा करने की  इच्छा ही छोड़ने लगे !उनका मानना है कि जब संतान को हमारे किसी काम आना ही नहीं है तो औरों के काम आने वाली संतानों को जन्म देने एवं उनका पालन पोषण करने में हम अपना समय क्यों बर्बाद करें !इस प्रकार से 'संतानमुक्तजीवन'  जीने की भावना प्रबल होने लगी ऐसे अत्यधुनिक लोग कुत्ते पाल कर अपने बच्चों जैसा स्नेह उन पर लुटा लेते हैं किंतु बच्चे नहीं पैदा करना चाहते !इसी प्रकार से पति पत्नी के आपसी विश्वासघातों एवं आपसी तनावों से भयभीत वर्ग कुत्ते-कुतियों में अपने वैवाहिक विषय सुख खोजने लगे लोग उन पर प्यार लुटाने लगे इसके अलावा भी अपना साथी बदल बदलकर मस्ती मारने लगे !हद तो तब हो गई जब आयुर्वेद के अनुशार कुम्भीक नामक नपुंसक स्त्रियाँ स्त्रियों से और पुरुष पुरुषों से शारीरिक संबंधों में संलिप्त होने लगे !
      कुल मिलाकर पापपुण्य हटने से कर्मवाद के ऐसे दुष्प्रभाव (साइडइफेक्ट)जीवन और समाज के सभी क्षेत्रों में दिखने लगे !अभी भी कर्मवाद का यदि इसी प्रकार से बोलबाला रहा तो वो दिन दूर नहीं जब ये समाज रहने लायक ही नहीं रह जाएगा !भाग्यवाद और पाप पुण्यवाद की बची खुची मर्यादाएँ मिटते ही समाज सम्पूर्ण रूप से आपराधिक प्रवृत्तियों का अड्डा बनकर रह जाएगा !जिसमें केवल अपराधी ही आनंदित हों सकेंगे बाक़ी संपूर्ण समाज को ही हमेंशा संशय ग्रस्त ही रहना होगा !
    वस्तुतः हमारे जीवन में कुछ वस्तुएँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती हैं जिनका न केवल धार्मिक अपितु वैज्ञानिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्व  होता  है जिनसे हम सबका जीवन प्रभावित होता है !ऐसे प्राचीन  विषयों में ज्ञान की कमी एवं इन विषयों में अनुसन्धान  करने वालों की कमी के कारण ये विषय महत्वपूर्ण होते हुए भी  आँखों से ओझल होते चले जाते हैं !ज्ञान न होने के कारण एवं कुछ समझाने वालों के अज्ञान के कारण तथा ऐसे विषयों में सरकारी उदासीनता ,उपेक्षा आदि के कारण कुछ अत्याधुनिक बनने की भावना से न केवल ऐसे विषय छोड़ दिए गए हैं अपितु भारतीय सनातन शास्त्रीय ज्ञान विज्ञान के प्रति घृणा पैदा करवाने वालों ने परिस्थिति यहाँ तक पैदा कर दी है जिससे आज सारे समाज में आपराधिक त्राहि त्राहि मची हुई है !
    लोगों के मन से पूजा पाठ के भाव समाप्त किए जा रहे हैं शुद्धि पवित्रता की भावनाएँ नष्ट हो रही हैं !बढे बूढ़ों का सम्मान समाप्त  किया  जा रहा है ! माता पिता के महत्त्व को घटाया जा रहा है! गिद्धों की तरह से महिलाओं के शरीरों में माँस एवं त्वचा पर ही निगाहें गड़ाए बैठे हैं अत्याधुनिक विचार धारा वाले अत्यंत कामी लोग ! नारी सम्मान का उपहास उड़ाया जा रहा है !आधुनिक कन्याओं के मनों में भी ये जहर घोला जा रहा है कि वे न केवल अपने प्रति पूज्य भावना को उपहास मानती हैं अपितु वे भी विधर्मियों की आँखों से ही अपने को देखने लगी हैं इसलिए वे भी मांस त्वचा बालों एवं वस्त्रों की बनावट में ही उलझती चली जा रही हैं !इस प्रकार से आधुनिकता के नाम पर बहुत कुछ जुड़ता छूटता चला जा रहा है !किन्तु ऐसे सभी अच्छे बुरे आचार व्यवहार  के  प्रभाव समाज को भोगने पड़ रहे हैं !लोग स्वतंत्रता के नामपर स्वच्छंदता की ओर बढ़ते जा रहे हैं !जो मन में आया वो करने लगना और जो कुछ पसंद नहीं है उसे छोड़ देना !यहाँ समझने वाली विशेष बात ये है कि कठिन चीज पसंद कभी आती नहीं है और हितकारी औषधि प्रायः कड़वी होती है !इसलिए सुविधावादी समाज हित और अहित की चिंता में पढ़कर सब कुछ भूलता चला जा रहा है !