Friday, 20 November 2015

अफसरों का ये दुर्भाग्य ही है कि उन्हें ऐसे नकारा नेतापुत्रों की जी हुजूरी करनी पड़ती है जो शपथपत्र भी न पढ़ पाते हों !

इसे लोकतंत्र का सम्मान कहें या शिक्षा का अपमान !                                                     शिक्षा की जब दुर्दशा ही होनी है तो क्यों शिक्षा ? क्यों परीक्षा ?शिक्षा के लिए बड़ी बड़ी योजनाएँ क्यों ?जिन नेतापुत्रों की शिक्षा चपरासियों जैसी हो उन्हें मंत्री !उपमुख्यमंत्री या मुख्यमंत्री !जैसे बड़े पदों पर सुशोभित किया जाना कहाँ का न्याय है !ऐसे लोग सदन की चर्चा समझ सकेंगे क्या ?प्रश्न पूछ सकेंगे और उत्तर दे सकेंगे ! अशिक्षित लोग सदन में न कुछ बोल पाते हैं न और न समझ पाते हैं और समझे बिना पूछें क्या ?खाली बैठे बैठे बोर हुआ करते हैं !कभी कभी प्रसंग वश सदन की सार्थक चर्चा में स्वाभाविक मतभेद होने के कारण चर्चा में उत्तेजना बढ़ ही जाती है लोग जोर जोर से बोलने लगते हैं ऐसे में इन खाली बैठे अशिक्षित नेताओं की नींद टूटती है अपने आदर्श नेताओं को चीखते  चिल्लाते देखकर उत्तेजना तो इन्हें भी आ ही जाती है इन्हें ये समझते देर नहीं लगती है कि 'झगड़ा हो गया है' तो ये भी अपने स्तर से सँभाल लेते हैं मोर्चा !वो  चाहें गाली गलौच देना हो या स्पीकर के सामने से कागज खींच कर लाना हो या फिर माईक फेंकने से लेकर कुर्सी फेंकना हो यहाँ तक कि कुस्ती लड़ने से लेकर चाँटा मारने तक में इन्हें कोई संकोच नहीं होता है झगड़ा तो झगड़ा !इसके अलावा अशिक्षित नेता सदन की गम्भीर चर्चाओं में और किस काम के !
     बंधुओ!ऐसे लोगों को नेता बनाने की मजबूरी क्या होती है पता नहीं !मेरे हिसाब से सदन में चर्चा करना तो इनके बश का नहीं ही होता है !
    वैसे भी मुख्यमंत्री माता पिता के जो  पुत्र सभी प्रकार की सुख सुविधाओं  में पल बढ़ कर भी पढ़ न पाए हों कितने अयोग्य रहे होंगे वे !ऐसे गुण विहीन क्षमता विहीन अनुभव विहीन नकारा नेता पुत्रों की जी हुजूरी करनी पड़े उन बड़े बड़े अधिकारियों को जिन्होंने अपनी एक एक स्वाँस शिक्षा साधना में लगाई हो !ये उन अधिकारियों की शिक्षा का कितना बड़ा अपमान है ? 
   किसी छात्र को अफसर बनने के लिए बड़ी कठोर साधना करनी पड़ती है  पढ़ने के लिए बचपन में ही न केवल घर द्वार छोड़ कर  दूर जाना पड़ता है अपितु शिक्षा के लिए घर द्वार भूलना भी पड़ता है!सब सुख भोग की भावनाओं का विसर्जन करना पड़ता है!अपनी सारी इच्छाओं को मारना पड़ता है केवल इतना ही नहीं कहाँ तक कहें कुछ बनने के लिए विद्यार्थी को भावनात्मक रूप से एक बार मरना पड़ता है! यदि कुछ बन कर निकल पाया तो यह उसका नूतन अर्थात नया जन्म  होता है, यदि नहीं बन पाया तो वह इतना टूट चुका होता है कि उसे अपना मन मारकर आजीवन जीवन ढोना पड़ता  है ! 

     ऐसे बलिदानी विद्यार्थियों को खाने का स्वाद,  स्वजनों से संवाद एवं हास्य विनोद की भावनाओं पर नियंत्रण करते हुए पूर्ण संयमित जीवन जीना पड़ता है! जब नींद बलपूर्वक अपनी चपेट में ले ले तो रात्रि और जब विद्यार्थी बलपूर्वक अपनी नींद को धक्का देकर भगा दे वहीँ सबेरा हो जाता है! सच्चे विद्यार्थी के जीवन में इस सूर्य के उदय अस्त का कोई महत्त्व नहीं होता उनका अपना सूरज अपना मन होता है रात-रात भर जगने का हर क्षण दिन के समान होता है इस व्रती जीवन की तुलना केवल एक सच्चे साधक से की जा सकती है!

   लोकसभा या विधान सभाओं में लड़ने - झगड़ने वाले ,शोर मचाने वाले ,माइक फेंकने या कुर्सी मारने वाले  नेता लोग किसी  मज़बूरी में तो ऐसा नहीं करते हैं आखिर उन्हें भी उन्हीं के अनुशार क्यों न समझा जाए !   
 आज राजनीति के बिना किसी भी क्षेत्र में किसी का भी गुजारा नहीं है यदि कोई सीधा शालीन समझदार आदमी राजनीति न भी करना चाहे तो दूसरे लोग उसके साथ राजनीति करके उसे फँसा देंगे इसलिए उसे चाहकर या अनचाहे भी करनी होती है राजनीति !किंतु राजनैतिक जगत में आज अधिकांश कैसे लोग सक्रिय हैं ये किसी से छिपा नहीं है स्वदेश से लेकर विदेश तक हमारी लोकसभा या विधानसभाओं की कार्यवाही देखने वालों को अच्छी तरह से पता है कि भारतीय राजनीति जिस ओर बहक  चुकी है यदि समय रहते उसे रोका  न गया तो परिस्थितियाँ ज्यादा भी बिगड़ सकती हैं ।           आज सांसदों विधायकों से कहा जाता है कि आप चर्चा में भाग लें किंतु चर्चा के लिए ज्ञान अनुभव और अध्ययन की आवश्यकता होती है किंतु जिसके पास ये तीनों न हों वो वहाँ बैठकर क्या करे !और चुप  कहाँ तक बैठे ! इसलिए  लोकसभा या विधान सभाओं में अपनी अपनी कला योग्यता का प्रदर्शन हर कोई करना चाहता है जिसे भाषण देना आता है सो भाषण देता है और जिसे गाली देना आता है सो गाली देता है !जिसे कुस्ती लड़ना आता है सो उठापटक करता है इसी पाकर से माइक फेंकने के स्पशलिस्ट माइक फ़ेंक कर मारते हैं और कुर्सी फेंकने की कला के विशेषज्ञ कुर्सी फ़ेंक फ़ेंक कर मारते देखे जाते हैं , कई बार कुछ विधान सभाओं में कुछ सदस्य लोग अपने मोबाईल में ब्लू फ़िल्म देखते भी देखे गए !इसी प्रकार से कार्यवाही के बीच कुछ लोग सो जाते हैं बेचारों को नहीं समझ में आती है वो सार गर्भित चर्चा तो कैसे समझें और क्या करें ! 
    कुल मिलाकर संसद और विधान सभाएँ चूँकि देश और प्रदेश के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती हैं ऐसी परिस्थिति में देश और प्रदेशों में जितने भी प्रकार के लोग होते हैं सभी कलाओं से संपन्न लोग यदि कहीं एक जगह बैठेंगे तो वहाँ चर्चा तो कम बाजारों और मेलों  जैसा वातावरण ही मुश्किल से बन पाएगा फिर हाय तोबा क्यों ?
   बंधुओ !मैंने खुद चार विषय से MA किया है BHU से Ph.D. किया है विभिन्न विषयों में सौ से अधिक किताबें लिखी हैं उनमें कई काव्य हैं हमारी लिखी हुई 27 किताबें प्रारंभिक कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में पढ़ाई भी जा रही हैं और भी बहुत कुछ है- (See More  About Me http://jyotishvigyananusandhan.blogspot.in/p/blog-page_7811.html  )
        इतने सबके बाद भी अच्छी अच्छी राजनैतिक पार्टियों से जुड़ने के लिए गया वहाँ के मठाधीशों को अपनी योग्यता प्रमाण पत्र दिखलाए उनकी कापियाँ भी दीं अपनी लिखी हुई किताबों की प्रतियाँ भी उन्हें भेंट कीं इसके बाद उनसे उस राजनैतिक पार्टी में अपने योग्य सेवा माँगी जिसमें मेरी शिक्षा का भी सदुपयोग हो सके किंतु उन नेताओं ने अपनी पार्टी में हमें प्रवेश देना ही ठीक नहीं समझा !
    बंधुओ !जब इन राजनेताओं ने हमारे अंदर न जाने ऐसी कौन सी अयोग्यता दो मिनट में भाँप ली कि हमें अपनी पार्टी में सक्रिय रूप से जोड़ना ठीक नहीं समझा गया !ऐसी परिस्थिति में देश के और बहुत सारे पढे लिखे लोगों को राजनैतिक दल केवल सैम्पल पीस के रूप में ही रखते होंगे या फिर हमारी तरह ही मुख मोड़ लेते होंगे उनसे भी !और उन्हें भी वापस भेज दिया जाता होगा उनके घर !
   यदि सच्चाई यही है तो लोकसभा या विधान सभाओं में लड़ने - झगड़ने वाले ,शोर मचाने वाले ,माइक फेंकने या कुर्सी मारने वाले नेताओं को ही दोषी क्यों माना जाए !यदि है तो राजनीति का वर्तमान सारा सिस्टम ही दोषी है उसे सुधारने के प्रयास भी तो किए जाने चाहिए साथ ही सांसद और विधायक बनने के लिए भी शिक्षा और सदाचरण की कुछ तो खींची ही जाएँ सीमा रेखाएँ जिनका पालन मिलजुलकर सभी लोग करें !
   

     

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