Monday, 22 February 2016

संत रविदास जी जैसे महापुरुषों के सम्मान का कारण उनका आदर्श है आरक्षण नहीं !

       पवित्र आचरण करने वाला व्यक्ति किसी भी जाति सम्प्रदाय में जन्म ले उसे सम्मान मिलता ही है और अपने आचरण ही अच्छे न हों  तो कितनी भी बड़ी आरक्षण जैसी सुविधाएँ किसी का सम्मान उत्साह और अनुभव नहीं बढ़ा सकतीं !
   कहने को तो रैदास जी का जन्म काशी में चर्मकार (चमार) कुल में हुआ था और काम भी कोई प्रतिष्ठित नहीं था जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था अपने काम को पूरी लगन तथा परिश्रम पूर्वक समय से  पूरा करने पर वे बहुत ध्यान देते थे।वे मधुर व्यवहार के धनी थे !इसीलिए उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी उनसे बहुत प्रसन्न रहते थे।वे परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था।
      ऐसे महापुरुषों को अपना आदर्श बताने वाले लोग 'दलितउद्योग' चला रहे हैं आरक्षण माँग रहे हैं संत रविदास तो देना सीखे थे माँगना तो उनके स्वभाव में ही नहीं था !वैसे भी माँगने वालों से लोग घृणा करते हैं जबकि देने वालों का सम्मान होता ही है।संत रविदास आज भी अपने गुणों के कारण ही सम्मानित हैं न कि आरक्षण के कारण !उनसे वर्तमान समाज को भी प्रेरणा लेनी चाहिए !
       'दलितउद्योग'चलाने वाले नेता और नेत्रियाँ संत रविदास का नाम लेकर वोट तो माँगना चाहते हैं किंतु उनके आदर्शों का पालन नहीं करना चाहते  !संत रविदास ने अपनी जाति कभी नहीं छिपाई और न ही कभी अपने काम को हीन  भावना से देखा !जातियों को कैस करने की बात तो उन्होंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोची होगी । उन्होंने अपनी पहचान अपाहिजों बीमारों जैसी कभी नहीं बनने दी जैसे आजकल होता है कि हमें आरक्षण नहीं मिला तो हम आगे नहीं बढ़ सकते !जबकि वे तो  अपने परिश्रम एवं त्याग पर भरोसा करते थे ! 
    उनकी प्रेरणा से इतना स्वाभिमान तो सबके अंदर होना चाहिए कि अपना विकास एवं अपने बच्चों का पालन पोषण हम आरक्षण जैसी सरकार की किसी की कृपा से नहीं अपितु अपनी कमाई और अपने  बलपर करेंगे !जो लोग ऐसा करते हैं उनके बेटा बेटियों के मन में भी उनकी इज्जत हमेंशा बनी रहती है उनके बच्चे भी अपने माता पिता के आदर्श जीवन पर हमेंशा गर्व करते  हैं किन्तु जब माता पिता ही भूतपूर्व आरक्षण  भोगी रह चुके होते हैं तो बच्चे भी सोचते हैं कि किसी लायक ही होते तो क्यों समाज पर बोझ बनते और क्यों हमें बनाते !सवर्णों की  तरह तरक्की करने का विकल्प तो उनके पास भी खुला हुआ था वो बीमार अपाहिज तो थे नहीं कि आरक्षण के बिना आगे नहीं बढ़ सकते थे । वो चाहते तो सवर्णों की निंदा करने के बजाए अपनी टर्की भी तो कर सकते थे  और समाज को दिखा सकते थे कि हम बिना आरक्षण के बल पर भी अपनी तरक्की कर सकते हैं !     केवल  'दलित का बेटा' और 'दलित की बेटी' बनकर जो लोग विधायक सांसद मंत्री मुख्यमंत्री जैसे बड़े पद हथिया  लेना चाहते हैं इसके बाद घपले घोटाले करके अरबों खरबोंपति बनकर अरबों खरबों की संपत्ति इकट्ठी करलेते हैं ऐसे लोग जिसके लिए प्रत्यक्ष तौर पर कहीं कोई व्यापार करते नहीं देखे जाते और न ही इसके लिए उनके पास समय ही होता है कुल मिलाकर सत्ता मिलते ही अरबों रूपए इकट्ठे कर लेने वाले दलित नेताओं नेत्रियों को चाहिए कि संत रविदास जैसे महापुरुषों से वे भी कुछ सीखें !
संत रविदास जी जातियाँ समाप्त करने की बातें तो करते रहे किंतु जातियों के नाम पर आरक्षण जैसे हथियारों से सवर्णों का हक़ हड़पने की भावना उनमें दूर दूर तक नहीं थी यथा - 
दो. जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
    "वो कहते हैं कि जब तक जातियाँ रहेंगी तब तक मनुष्य आपस में जुड़ नहीं पाएँगे !"
    उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा अरे भिखमंगो !भगवान को छोड़कर किसी और से माँगने वालो तो और कुछ मिले न मिले तुम यमराज के लोक जरूर आओगे -
दो. हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।
     किंतु संत रविदास जी के पवित्र आदर्शों एवं संदेशों पर भरोसा न करने वाले लोग आज आरक्षण माँगने के लिए या अन्य तमाम प्रकार की अन्य सरकारी सुविधाएँ लेने के लिए जातियों को जीवित रखना चाहते हैं । नेता  नेत्रियों को परवाह ही नहीं है संत रविदास जी के पवित्र आदर्शों की !अन्यथा वो भी सवर्णों की तरह ही अपना एवं अपने बच्चों के भरण पोषण को बोझ स्वयं उठाते अपने परिश्रम से कमाए हुए भोजन से आधेपेट भी रह लेते तो उस कमाई में स्वाभिमान तो होता आत्म सम्मान की भावना बनती बच्चों को भी ऐसे आदर्श जीवन से प्रेरणा मिलती बच्चे अपने माता पिता पर गर्व करते !किंतु आरक्षण की सुविधा लेकर लोग कितने भी ऊँचे पदों पर क्यों न पहुँच जाएँ फिर भी उनके मन से हीन  भावना नहीं जाती !
   जो सवर्ण बालक शिक्षा में वास्तव में अच्छे रहे होते हैं किंतु ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य आदि वर्ग के होने के कारण योग्य होने पर भी वो अवसर उनसे छीनकर उन लोगों को दे दिया जाता है जो उस योग्य नहीं थे !अयोग्य लोगों को योग्य स्थान पर बैठाने से काम तो होता ही नहीं है अपितु उस पद का सम्मान भी घट जाता है इसलिए योग्यता में जूनियर लोगों को आरक्षण के बलपर सीनियर बना देने से कोई सीनियर हो जाएगा क्या !
    यदि घोड़े की खाल गधों को ओढ़ाकर उन्हें घोड़े नहीं बनाया जा सकता तो आरक्षण भी तो एक ऐसी खाल की तरह ही है आरक्षण की आड़ में कम मेहनत करके केवल पेट भरा जा सकता है तरक्की नहीं की जा सकती !क्योंकि तरक्की की इच्छा रखने वाले किसी भी व्यक्ति को अपना बलिदान देना होता है संघर्ष स्वयं करना होता है !
  • कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
    वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
  • कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
    तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।
  • रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
    तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
  • हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
    दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
मन चंगा तो कठौती में गंगा।

  • वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।

     उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया। रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।
    एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा। रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।
वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया।
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।
उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।

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