Saturday, 19 May 2018

chikit

                             
                                                              डॉ .शेषनारायण वाजपेयी 
  ज्योतिषाचार्य,व्याकरणाचार्य,
एम. ए. हिंदी, पी.जी.डी.पत्रकारिता 
Ph.D. हिंदी(ज्योतिष) B.H.U 

               
                                     ज्योतिषायुर्वेद               

                                                                       1.
                                                    चिकित्सा में पूर्वानुमान  -
      किसी के शरीर में रोग होने से पहले ही उनका पूर्वानुमान लगाकर रोक थाम के लिए उचित प्रयास किसे जा  सकते हैं !पूर्वानुमान हो जाने पर आहार विहार खान पान रहन सहन आदि स्वास्थ्य अनुकूल संयमित बना करके उचित चिकित्सकीय सावधानियाँ वरती जा सकती हैं इस प्रकार से कई रोगों को प्रारंभ होने से पहले ही रोका जा सकता है !जो  रोग प्रारंभ हो भी गए उनका विस्तार होने से पहले ही उन्हें चिकित्सकीय सावधानियों से समाप्त किया जा सकता है !इसके लिए ज्योतिष आयुर्वेद और योग जैसे शास्त्रों में अनेकों विधि व्यवस्थाएँ मिलती हैं !रोगों की इसी पूर्वानुमान पद्धति से प्रारंभ में ही रोगों की असाध्यता का पूर्वानुमान लगा लिया जाता है !
     ज्योतिष शास्त्र के द्वारा समय का अनुसन्धान करके ,योग के द्वारा शरीर के आतंरिक अनुभवों का अनुसंधान करके एवं आयुर्वेद के द्वारा शरीर में दिखने वाले अरिष्ट लक्षणों के आधार पर साध्य कष्टसाध्य एवं असाध्य रोगों  का पूर्वानुमान लगा लिया जाता है ! इसके साथ साथ मृत्यु के आसन्न समय का भी पूर्वानुमान भी लगा लिया जाता है !
        प्रचलित चिकित्सा कर्म में प्रायः किसी के शरीर में  हो चुके रोगों की चिकित्सा पर ही ध्यान होता है वे रोग जैसे जैसे बढ़ते जाते हैं जाँच और चिकित्सा का दायरा वैसे वैसे बढ़ता चला जाता है !चिकित्सा के द्वारा कुछ रोगों से मुक्ति मिल  जाती है चिकित्सा के बाद भी कुछ रोग चला करते हैं यहाँ तक कि सघन चिकित्साकाल में भी कुछ  रोगियों की मृत्यु होते देखी जाती है !ऐसी परिस्थिति में प्रारंभिक काल से ही पूर्वानुमान  की बहुत बड़ी आवश्यकता होती है !
    प्रायः किसी को कोई रोग एक बार हो जाने के बाद रोगी को रोग जनित पीड़ा तो मिल ही चुकी होती है ! अब वो पीड़ा और अधिक न बड़े और उसे घटाने का प्रयास करके रोगी को स्वस्थ करना यह विधा चिकित्सा की दृष्टि से वर्तमान समय में प्रचलित है किंतु आवश्यक होने के बाद भी यह विधा चिकित्सा के संपूर्ण उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पाती है !रोग होने से पूर्व रोग का पूर्वानुमान लगाकर किसी को रोगी होने से बचा लेना चिकित्सा की सर्वोत्तम पद्धति है ! इसमें ज्योतिषशास्त्र का भी सहयोग लिया जा सकता है !     
                                                             2.
                        ऋतुओं के विकार से होने वाले रोगों का पूर्वानुमान -
    मेष संक्रांति से वृष के अंत तक ग्रीष्मऋतु मानी गई है ,मिथुन और कर्क में प्रावृट,सिंह और कन्या संक्रांति में वर्षा,तुला और बृश्चिक  में शरद ,धनु और मकर में हेमंत तथा कुंभ और मीन की संक्रांति में बसंत ऋतु  होती है ! इसी क्रम में समय के अनुशार ही दोष संचित कुपित और शांत होते रहते  हैं ! - शार्ङ्गधर संहिता 
       कई बार ऋतुओं के जो स्वाभाविक गुण हैं उन गुणों की अधिकता होने से या उनके विपरीत गुण आ जाने से वातादि दोष प्रकुपित हो जाते हैं इससे उनसे संबंधित तरह तरह के रोग पनपने लगते हैं!
      चूँकि ऋतुओं का सीधा संबंध सूर्य से है इसलिए सूर्य के बनते बिगड़ते स्वभाव का और घटते बढ़ते प्रभाव का असर ऋतुओं पर पड़ता ही है!इसलिए ऋतुओं के स्वाभाविक गुणों के घटने बढ़ने आदि विकारों का कारण सूर्य है और सूर्य पर प्रभाव डालने वाले ग्रहों की दृष्टि और युति आदि है !
     इस प्रकार से ऋतुएँ सूर्य आदि ग्रहों  के आधीन हैं और सूर्य की गति युति आदि का आकलन सिद्धांत गणित एवं फलित ज्योतिष के द्वारा किया जा सकता है ! इससे सूर्य आदि ग्रहों के स्वभाव प्रभाव के घटने बढ़ने का गणितागत अनुसंधान करके उसी के आधार पर ऋतुओं में आने वाले संभावित विकारों और उन विकारों के कारण होने वाले संभावित रोगों का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है !
       उसी के अनुशार उचित आहार विहार संयम सदाचरण एवं संभावित रोगों से बचने के लिए औषधि आदि के द्वारा रोग निरोधक (प्रिवेंटिव) चिकित्सकीय सावधानियाँ वरती जा सकती हैं !ऐसे प्रयास से संभावित रोगों के होने से पूर्व ही रोगों को नियंत्रित करके लोगों को रोगी होने से बचाया जा सकता है !
          अन्य मत से ऋतुओं का कारण सूर्य और चंद्र दोनों को  ही माना गया है -
 'अग्निसोमात्मकंजगत' "त एते शीतोष्णवर्ष लक्षणाश्चन्द्रादित्ययोः" अर्थात ऋतुओं के परिवर्तन का कारण सूर्य और चंद्र हैं !इसमें भी      "वर्षाशरदहेमंताः तेषु भगवान् आप्यायते सोमः " 
     अर्थात वर्षा शरद और हेमंत ये तीन  चंद्र के प्रभाववाली ऋतुएँ हैं ! 
         इसी प्रकार से शिशिर बसंत और ग्रीष्म ये सूर्य के प्रभाव वाली ऋतुएँ हैं !
                      "शिशिरवसंतग्रीष्माः भगवान् आप्यायतेर्कः !"    
      इससे सूर्य एवं चंद्र की गति युति आदि का आकलन सिद्धांत गणित एवं फलित ज्योतिष के द्वारा करके ऋतुओं में आने वाले संभावित विकारों का और उनके कारण होने वाले संभावित रोगों का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है ! ऐसे रोगों को भविष्य में  होने से रोकने के लिए सावधानी पूर्वक चिकित्सा शास्त्र के द्वारा प्रभावी प्रयास करके समाज को ऋतु विकारजन्य संभावित रोगों की पीड़ा से बचाया जा सकता है !
                                        3.
महामारी फैलने का पूर्वानुमान - 
   सूर्य चंद्र आदि ग्रहों नक्षत्रों आदि के दुष्ट संयोग से प्राकृतिक परिस्थितियाँ बिगड़ने लग  जाती हैं !
                        नक्षत्रग्रहचंद्रसूर्यानिलानां दिशां च प्रकृति भूतानामृतु वैकारिकाः भावाः !   
                                                                                                                         -चरक संहिता  
    इससे उस क्षेत्र या जनपद में वातादि दोष प्रकुपित होकर वहाँ के वायु,जल,देश और समय को विकारवान बना देते हैं !ग्रहों के ऐसे कुयोग सामूहिक रोगों के द्वारा उस जनपद को नष्ट करने वाले होते हैं !
           इमानेवं दोषयुक्तांश्चतुरो भावान जनपदोध्वंसकरान !
                                                                         -चरक संहिता 
       इससे वहाँ की वायु औषधियाँ अन्न जल आदि सब प्रदूषित होकर रोगकारक हो जाते हैं !इन्हें उपयोग करने से रोग होने लगते हैं !इस प्रकार से उस क्षेत्र में महामारी फैल जाती है और उनका उपयोग किए बिना जीवन जी पाना संभव ही नहीं  होता है ! यथा -           
                       - तासामुपयोगाद्विविधरोगप्रादुर्भावोमरको वा भवेदिति ! 
                                                                                               -सुश्रुत संहिता
    ऐसे ग्रहदूषित अन्न,जल एवं औषधियों आदि का उपयोग करने को रोका गया है !अदूषित बनस्पतियों का और अदूषित जल का एवं पुराने अन्न का उपयोग करने को कहा गया है !!यथा -
                                 " तत्र अव्यापान्नानां औषधीनामपां चोपयोगः "
    ऐसी परिस्थिति में सावधानी वरतने हेतु उतने समय के लिए निवात स्थान में रहकर यथा संभव वायु दोषों से बचाव किया जा सकता है !यंत्रों के द्वारा जल को शुद्ध करके उसका उपयोग करते हुए ग्रहदूषित जल के उपयोग से बचा जा सकता है ! इसीप्रकार से ग्रह दूषित स्थान से बचाव के लिए उतने समय के लिए दूसरे स्थान में जाकर बसा जा सकता है !किंतु ग्रहदूषित काल अर्थात समय से बचना संभव नहीं है समय तो सभी जगहों पर साथ ही रहेगा !इसलिए बुरे समय से बच पाना सबसे कठिन है ! 
       अतएव समय के दोष का परिमार्जन करने के लिए अदूषित समय  में संगृहीत बनस्पतियोँ के द्वारा  समयशास्त्र के  अनुशार अच्छे समय में निर्मित औषधियों के  प्रयोग  से ग्रहदूषित समयजन्य रोग पीड़ा से भी बचा जा सकता है !ऐसी समयबली औषधियों के प्रयोग से ग्रहदूषित वायु,जल,देश और समय आदि चारों प्रकार के प्रदूषण जनित रोगों की पीड़ा से बचा जा सकता है !
                                   चतुर्ष्वपि तु दुष्टेषु कालान्तेषु यदा नराः !
                                    भेषजे नोपपाद्यंते न भवंत्यातुरा तदा !!
                                                                                     -चरक संहिता 
       
         इसमें सबसे बड़ी बिचारणीय बात ये है कि उस क्षेत्र के वायु,जल,देश और समय आदि को प्रदूषित करने वाला समय आने वाला है जिससे अन्न,जल ,औषधियाँ आदि दूषित हो जाएँगी इसका पूर्वानुमान पहले से कैसे किया जा सकता है और बिना इसके उनके उपयोग से बचने का प्रयास कैसे किया जा सकता है !क्योंकि विपरीत ग्रहों का संयोग बनते ही प्रकृति पर उनका दूषित प्रभाव तुरंत पड़ने लगता है इससे   वायु,जल,देश और समय आदि साथ ही साथ दूषित होते चलते हैं !जब इस ग्रह जनित प्रदूषण के प्रभाव से प्रदूषित वायु,जल,देश और समय आदि दूषित होकर समाज को रोगों की चपेट में ले ही लेते हैं उसके बाद समयबली औषधियों के प्रयोग से यदि रोगों से मुक्ति मिल भी जाए तब भी लोगों को रोग जनित पीड़ा तो मिल ही गई यदि इस पीड़ा से भी मुक्ति दिलानी है उसके लिए आवश्यक है कि रोग होने ही न पाए और रोग होने से पहले ही रोग का निदान एवं उसकी चिकित्सा हो जाए तब तो चिकित्सा के सर्वोत्तम उद्देश्य की सिद्धि हो सकती है !
     इसके लिए चिकित्सक को भविष्य में वायु,जल,देश और समय आदि के प्रदूषित करने वाले ग्रहों के दुष्ट संयोग का पूर्वानुमान भगवान् पुनर्वसु आत्रेय की तरह ही ज्योतिषशास्त्र के द्वारा बहुत पहले से ही कर लिया जाना चाहिए !तभी ऐसे कुयोग के विषय में समाज को भी पहले से सावधान किया जा सकता है !इसके साथ साथ ऐसे रोगों से मुक्ति दिलाने हेतु बनस्पतियों के संग्रह एवं औषधियों के निर्माण के लिए  चिकित्सकों को अदूषित समय भी मिल जाएगा ! ऐसे पूर्वानुमान ज्योतिषशास्त्र के द्वारा ही प्राप्त  किए जा सकते हैं ! 
       भगवान् पुनर्वसु आत्रेय ने ज्योतिषशास्त्र का सहयोग लेकर जिस प्रकार से आषाढ़ मास में ही भविष्य संबंधी रोगों का पूर्वानुमान लगाकर उससे संबंधित चिकित्सकीय तैयारियों के लिए उपदेश कर दिया था यदि आज भी ज्योतिषशास्त्र  के सहयोग से समय संबंधी ऐसे अनुसंधान किए जाएँ तो आज  भी भविष्य में घटित होने वाले रोगों को होने से पहले ही सावधानी पूर्वक उन्हें रोका जा सकता है !
                                                               4. 
                             औषधीयद्रव्य , बनस्पतियाँ और समय -
      बुरे समय के प्रभाव से बनस्पतियों जैसे विकार आ जाते हैं उसी प्रकार से अच्छा समय आने पर बनस्पत्तियों के गुण भी बहुत अधिक बढ़ जाते हैं !ऐसे समय में यदि औषधीय द्रव्यों बनस्पतियों आदि का संग्रह किया जाए और सही समय पर  औषधियों का निर्माण किया जाए !तो वो औषधियाँ बहुत अधिक गुणकारी हो जाती हैं !इसीप्रकार से अच्छे समय पर रोगियों को औषधि खिलाई जाए तो रोगी को रोगमुक्ति दिलाने की दिशा में कई गुना अधिक अनुकूल प्रभाव पड़ता है !अच्छे समय के संयोग से बनस्पतियों एवं औषधीय द्रव्यों का अच्छा प्रभाव बहुत अधिक बढ़ जाता है !यथा -                    
1.   मेष राशि के सूर्य में मसूर को नीम के पत्तों के साथ खावे तो एक वर्ष तक सर्प से भय नहीं होता है !
                  मसूरं निम्बपत्राभ्यां खादेत मेषगते रवौ !
                  अब्दमेकं न भीतिः स्यात विषात्तस्य न संशयः !!
                                                                                            -चक्रदत्त
 2. संतान के लिए - रसरत्न समुच्चय में वर्णित प्रयोग -
  •    सर्पाक्षी प्रयोग -
            रविवार के दिन सर्पाक्षी को मूल एवं पत्र सहित उखाड़ कर लाना होता है !   
  •  देवदाली प्रयोग -
       रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र हो उस दिन देवदाली की जड़ को लाकर प्रयोग करना होता है !
  •  अश्वगंधा प्रयोग -
 रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र हो उस दिन अश्वगंधा की जड़ को लाकर प्रयोग किया जाता है !    
  •  कर्कोटकी प्रयोग -
कृत्तिका नक्षत्र में पूर्व दिशा की ओर मुख करके बाँझ ककोड़े की जड़ को खोद कर लाया जाता है ! 

   पुंसवन कर्म -
    अपामार्ग आदि कई प्रकार की औषधियों का प्रयोग पुष्य में करने के लिए कहा गया है !यथा -

                    पिबेतपुष्ये जले पिष्टानेक द्वित्रि समस्तशः !!
                                                                     -अष्टांगहृदय                             -
कालकृत औषधियाँ -
  अति वायु वाले  समय में ,वायु रहित समय में ,धूप ,छाया,चाँदनी युक्त समय ,अंधकार ,शीत,उष्ण,वर्षा आदि युक्त  समय का उपयोग बनस्पतिसंग्रह ,औषधि निर्माण और चिकित्सा  में किया जाता है !
   प्रवालपिष्टी बनाने में प्रवाल  को चाँदनी में रखते हैं ! इसी प्रकार से औषधीय द्रव्यों को निश्चित समय तक भूमि या धान्यराशि में रखने  आदि का विधान बताया गया है !
      रोगी की सूचना देने वाले दूत के आने  समय -
     कृत्तिका ,आर्द्रा,श्लेखा,मघा ,मूल ,पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपदा, पूर्वाफाल्गुनी,भरणी नक्षत्रों  में और चतुर्थी ,नवमी और षष्ठी तिथि में संध्याकाल में जिस रोगी के लिए कोई व्यक्ति आता  लिए शुभ नहीं होता है !- शुश्रुत

    इसीप्रकार से माधव निदान में देवता आदि  के ग्रहण के समय  को भी ज्योतिष शास्त्र  के द्वारा समझाया गया  है !             
       इस प्रकार से ज्योतिष शास्त्र और चिकित्सा शास्त्र के संयुक्त अनुसंधान से चिकित्सा संबंधी कई आवश्यक बातों का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है !इसके साथ ही साथ बनस्पतियों के संग्रह के लिए एवं औषधि निर्माण के लिए अत्यंत उत्तम समय का चयन किया जा सकता है !ऐसी समयबली  औषधियों का प्रयोग करके समयजनित कष्ट साध्य रोगों से भी मुक्ति दिलाई जा सकती है !
                                                                    5.
आगंतुज रोगों का पूर्वानुमान -
     किसी रोग के प्रारंभ होने के समय या चोट लगने के समय के आधार पर अनुसंधान करके इस बात का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि ये रोग या चोट समय के अनुशार कितनी गंभीर है  अर्थात इससे कितने दिनों या महीनों में पीड़ामुक्ति मिलेगी अथवा ये किसी बड़े और गंभीर रोग का छोटा सा दिखने वाला प्रारंभिक स्वरूप तो नहीं है !यदि ऐसा है भी तो उसका बढ़ा हुआ संभावित स्वरूप कितना तक विकराल हो सकता है!उससे बचने के लिए सावधानियाँ किस किस प्रकार से वरती  जा सकती हैं ! इस प्रकार से समय का अनुसंधान करके ऐसी सभी बातों का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है !
      इसीप्रकार से जन्मसमय के आधार पर अनुसंधान करके भविष्य में घटित होने वाली स्वास्थ्य संबंधी दुर्घटनाओं का या भविष्य में होने वाले रोगों का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है !
    प्रायः देखा जाता है कि सामूहिक रोगों या महामारियों के फैलने पर उस क्षेत्र में रहने वाले बहुत सारे लोग उससे प्रभावित होते हैं अर्थात रोगी हो जाते हैं किंतु वहाँ रहने वाले सभी के साथ ऐसा होते नहीं देखा जाता है !इसी प्रकार से किसी दुर्घटना में बहुत सारे लोग एक साथ एक जैसे शिकार होते हैं !किंतु उन सबके साथ परिणाम एक जैसे नहीं होते हैं !कुछ स्वस्थ होते हैं कुछ अस्वस्थ रहते हैं और कुछ मृत हो जाते हैं !
     इसका कारण है कि उन सभी के जन्म समय के आधार पर उस समय जिनका जैसा समय चल रहा होता है रोग और दुर्घटना से वो उतना कम या अधिक प्रभावित होते हैं !उसका अपना समय यदि अच्छा चल रहा होता है तब तो बड़ा रोग पाकर या बड़ी दुर्घटना का शिकार होकर भी एक सीमा तक बचाव हो जाता है कई को तो खरोंच भी नहीं लगने पाती है इसी प्रकार से जिसका समय अच्छा नहीं या बुरा चल रहा होता है उसे परिणाम भी वैसे ही भोगने पड़ते हैं !
         इस प्रकार से किसी के जन्म समय का अनुसंधान करके उसके स्वास्थ्य से संबंधित भविष्य में घटित होने वाली अच्छी या बुरी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है !इससे उसे आगे से आगे सावधान करके भविष्य संबंधी रोगों और दुर्घटनाओं से बचाव के लिए प्रेरित किया जा सकता है इसके अतिरिक्त भी प्रिवेंटिव प्रयास किए जा सकते हैं !   
         इसी प्रकार से किसी रोगी के जन्म समय का अनुसंधान करके उसके स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल समय का पूर्वानुमान किया जा सकता है ! उस प्रतिकूल समय की अवधि तक उसके लिए अच्छे से अच्छे चिकित्सक और अच्छी से अच्छी औषधियों के प्रयोग निरर्थक या अल्पप्रभाव कारक सिद्ध होते हैं !ऐसे लोग उतने समय तक चिकित्सक और औषधियाँ बदल बदल कर समय व्यतीत किया करते हैं !बुरा समय बीतने के बाद  ही उनपर चिकित्सा आदि उपायों का असर होने लगता है और वे स्वस्थ हो जाते हैं !रोगी के जन्म समय का अनुसंधान करके रोगी की ऐसी परिस्थितियों का भी पूर्वानुमान लगाया जा सकता है !
                                                           6 . 
                       समय विज्ञान और पूर्वानुमान -
     ब्रह्मांड और शरीर की संरचना एक प्रकार से हुई है इसलिए जिन वात पित्त आदि दोषों के विकृत होने पर जिस दोष से प्रेरित होकर प्रकृति में भूकंप आदि उत्पात होते हैं उसी दोष का उसी प्रकार का असर मनुष्यादि जीवों पर भी पड़ता है और वे रोगी हो  जाते हैं जिसका असर उस क्षेत्र में 30 दिनों से लेकर 180 दिनों तक रहता है जो उत्तरोत्तर घटता चला जाता है !इसलिए प्राकृतिक आपदाओं के घटित  होने के समय के आधार पर अनुसन्धान करके इस बात का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि किस क्षेत्र में कब किस प्रकार के रोगों के  फैलने की संभावना है !  
     चिकित्सा शास्त्र के 'आतुरोपक्रमणीय' प्रकरण में किसी रोगी की चिकित्सा करने से पूर्व आयु का    पूर्वानुमान लगाने  के लिए कहा गया है जिसके लिए सुश्रुत आदि ग्रंथों में दीर्घायु मध्यमायु अल्पायु आदि पुरुषों के शारीरिक  लक्षणों का वर्णन  किया गया है ये मूल रूप से सामुद्रिक शास्त्र से उद्धृत हो सकते हैं जहाँ आयु के साथ साथ अन्य सभी प्रकार के रोगों के परीक्षण के लिए भी ऐसे सामुद्रिक लक्षणों का वर्णन किया गया है ! आयु संबंधी पूर्वानुमान लगाने के ऐसे लक्षण योग में भी हैं जहाँ रोगी के आतंरिक अनुभवों के आधार पर आयु संबंधी पूर्वानुमान लगा लिए जाते हैं !इसी प्रकार से ज्योतिष शास्त्र में रोग और मृत्यु के अलग अलग भाव ही हैं जिनका अनुसंधान करके इनसे संबंधित पूर्वानुमान लगाए जा सकते हैं ! वैसे भी आयु के विषय में चिकित्सक रोगी रोग और औषधि आदि चारों से अधिक महत्त्व समय का होता है !आयु पूर्ण होने का समय आने पर रोगी के शरीर  में लगने वाली तिनके की चोट भी बज्रप्रहार से अधिक पीड़ा देकर प्राण हर लेती है !
     -            "कालप्राप्तस्य कौन्तेय !बज्रायन्ते तृणान्यपि "       
        ऐसे ही ग्रहों की विपरीतता से वात पित्त आदि तीनों दोषों के पारस्परिक अनुपात बिगड़ने से या दोषों के प्रकुपित होने के दुष्प्रभाव से जिस समय जिस प्रकार से मनुष्य शरीर रोगी होने लगते हैं !इसीकारण से उस समय त्रिदोषों के न्यूनाधिक अनुपात का जो असर मनुष्य शरीरों पर पड़ रहा होता है वही असर प्रकृति और समस्त प्राकृतिक वातावरण पर भी पड़ रहा होता है !इसलिए  बनस्पतियाँ भी उस समय उसीप्रकार के दोषों से युक्त हो जाती हैं ! यही कारण है कि जो बनस्पतियाँ अपने जिन गुणों के कारण जिन रोगों से मुक्ति दिलाने के लिए प्रसिद्ध मानी जाती हैं वही बनस्पतियाँ ऐसे समय में उन्हीं रोगों पर असर हीन हो जाती हैं !
     ऐसी ही परिस्थिति में रोगों के बढ़ते जाने और औषधियों के असर न करने से रोग बढ़ते चले जाते हैं और महामारी आदि का स्वरूप  धारण करते  चले जाते हैं जब बुरे ग्रहों का दुष्प्रभाव घटता है तब वे रोग स्वतः समाप्त होने लग जाते हैं !ऐसे समयों का पूर्वानुमान ज्योतिष शास्त्र से किया जा  सकता है !
                          7.  
       समय स्वयं में ही औषधि है -
         इसीलिए चिकित्सा शास्त्र के ऋतुचर्या प्रकरण में 'समय' को आदि मध्य अंत रहित स्वयंभू भगवान् बताया गया है !अतएव चिकित्सा शास्त्र में समय की भी विशेष प्रधानता है !इसीलिए तो हेमंत ऋतु के समय में पित्तजन्य रोगों की शांति अपने आप से ही हो जाती है और ग्रीष्म ऋतु के समय में कफजन्य रोगों की शांति स्वतः हो जाती है इसी प्रकार से हेमंत ऋतु के समय में वातजन्य रोगों की शांति स्वयमेव  हो जाती है !
       अच्छे और अनुकूल ग्रह भी स्वास्थ्यरक्षक होते हैं सुश्रुत में 'ग्रहनक्षत्रचरितैर्वा' लिखा गया है यदि ग्रह नक्षत्रों के बुरे प्रभाव से रोग होते हैं तो उन्हीं ग्रहों के अनुकूल प्रभाव और उनकी उत्तमगति एवं अच्छे ग्रहों के साथ युति तथा अच्छे ग्रहों की दशाओं आदि के प्रभाव से रोगों से मुक्ति भी मिलती है ऐसे समय में रोगी को बहुत शीघ्र स्वास्थ्य लाभ हो जाता है !
       उत्तम समय में बनस्पतियों का संग्रह  यदि उत्तमरीति से किया जाए और ऐसे ही अनुकूल समय में  यदि उत्तम प्राकृतिक परिस्थितियों में ही  औषधियों का निर्माण किया जाए तो ये औषधियाँ अपने अपने उत्तम एवं संपूर्ण गुणों से युक्त अत्यंत प्रभावशाली हो जाती हैं !
     ऐसी औषधियों के आहरण और निर्माणकाल में अनुकूलग्रहादि परिस्थितियों का ध्यान रखा गया होता है इसलिए ग्रहबल, समयबल से संपन्न औषधियाँ विपरीतग्रह संयोग एवं प्रतिकूल समय के दुष्प्रभाव से फैलने वाली महामारियों में अचूक असर  करते देखी जाती हैं !ऐसी दिव्य औषधियाँ ग्रहजनित विपरीत स्वास्थ्य परिस्थितियों के कारण होने वाले रोगों से भी मुक्ति दिलाने में सक्षम होती हैं !
        बुरे समय में होने वाले रोग अच्छे समय में जैसे स्वतः दूर हो जाते हैं उसी प्रकार से अच्छे समय में निर्मित औषधियाँ भी बुरे समय या ग्रहों की विपरीतता में होने वाले रोगों से भी मुक्ति दिलाने में सहायक होती हैं !
                                      
                 निवेदक -
     डॉ.शेष नारायण वाजपेयी 
  फ्लैट नं 2 ,A-7 /41,कृष्णानगर,दिल्ली -51 
  मो.9811226973 /83  
   Gmail -vajpayeesn @gmail.com

Saturday, 12 May 2018

AB

समय और मौसम -
     'काले सर्वं प्रतिष्ठितं' अर्थात सब कुछ  समय में ही विद्यमान है !प्रकृति में या शरीर में अच्छे बुरे जो भी बदलाव होते हैं वो समय के कारण ही होते हैं समय जब जैसा होता है तब तैसे बदलाव होते रहते हैं इन बदलावों को देखकर ही पता लगता है कि समय बीत रहा है !कुल मिलाकर समय में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है !
                         'कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः '
     अर्थात समय ही सबको जन्म देता है और समय ही सबका संहार करता है !
             'अग्नि सोमात्मकं जगत '
     यह संपूर्ण संसार अग्नि अर्थात सूर्य और सोम अर्थात चंद्र (जल)मय है !इस संसार में जो कुछ भी बना या बिगड़ा है उसमें कारण समय ही है और समय को समझने का आधार सूर्य और चंद्र ही हैं !
     इसी सूर्य के प्रभाव को आयुर्वेद की भाषा में 'पित्त' और चंद्र के प्रभाव को 'कफ' कहा जाता है !सूर्य और चंद्र के संयुक्त न्यूनाधिक प्रभाव से 'वायु'  का निर्माण होता है तथा वायु संबंधी बदलाव सूर्य और चंद्र के न्यूनाधिक प्रभाव से होते हैं !इसी वायु को आयुर्वेद की भाषा में 'वात' कहा जाता है !जिस प्रकार से ये वात  पित्त और कफ का असंतुलन शरीरों को रोगी बनाते देखा जाता है उसी प्रकार से ये तीनों प्रकार का असंतुलन तीन प्रकार प्राकृतिक आपदाओं को जन्म देता है !आँधी-तूफान ,वर्षा- बाढ़ एवं भूकंप आदि प्राकृतिक घटनाएँ इन्हीं प्राकृतिक वात  पित्त कफ आदि के असंतुलन से होने वाली घटनाएँ हैं !
      चूँकि प्राकृतिक आपदाओं का मूल कारण  वात पित्त और कफ आदि हैं !और ये तीनों ही सूर्य और चंद्र के प्रभाव से घटते बढ़ते रहते हैं जिससे प्राकृतिक आपदाएँ घटित होती हैं !इन सूर्य चंद्र की गति एवं उनके घटने बढ़ने वाले प्रभाव का पूर्वानुमान सिद्धांत गणित के द्वारा बहुत पहले से ही लगाया जा सकता है इसीलिए तो सूर्य चंद्र आदि में होने वाले ग्रहणों का  आगे से आगे सैकड़ों वर्ष पहले सटीक पूर्वानुमान लगा लिया जाता है !
     इसी गणित की प्रक्रिया से सूर्य और चंद्र की गति प्रभाव आदि का अध्ययन करके उससे वात पित्त और कफ आदि त्रिदोषों के संतुलन असंतुलन आदि का पूर्वानुमान लगाकर उसी के आधार पर निकट भविष्य में किसी क्षेत्र विशेष में संभावित प्राकृतिक अच्छी बुरी घटनाओं का पूर्वानुमान अनुसंधान पूर्वक लगाया जा सकता है !उद्देश्य की पूर्ति करने में सहायक होता है 'समयविज्ञान' -
     अत्यंत निकट आ जाने पर यदि प्राकृतिक आपदाओं का पूर्वानुमान लगा भी लिया जाए तो भी ये उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाता है क्योंकि जो प्राकृतिक आपदा अत्यंत निकट आ चुकी है उससे सम्पूर्ण बचाव हो पाना संभव नहीं है !कृषि आदि क्षेत्र में वर्षा संबंधी पूर्वानुमान कुछ दिन पहले लग जाने से विशेष लाभ नहीं हो पाता है क्योंकि उन्हें फसलों के बोने एवं उपज को संरक्षित करने का निर्णय कुछ महीने पहले लेना होता है इतने पहले किसानों को वर्षा या सूखा संबंधी पूर्वानुमान उपलब्ध कराए बिना कृषि एवं किसानों का विकास नहीं किया जा सकता है इसके विषय में झूठे तीर तुक्के लगाने से अच्छा है कि समय विज्ञान का सहयोग लेकर ऐसे विषयों से संबंधित अनुसंधानों को और अधिक गति दी जा सकती है !ये केवल वर्षा ही नहीं अपितु सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के विषय में सहयोगी प्रक्रिया है !इससे प्राकृतिक आपदाओं के वेग का भी पूर्वानुमान समय से पहले लगाया जा सकता है !
     

हो चुके हैं उसकी पीड़ा तो रोगी भोग ही रहा होता है!इसलिए उचित तो ये है कि रोगी को रोग होने से पहले ही यदि इस बात के संकेत मिलना संभव हो सकें कि निकट भविष्य में उसका शरीर रोगी हो सकता है और रोगों की प्रकृति का पूर्वानुमान लगाया जा सके तो उनसे बचने के लिए संभावित रोगी पहले से ही अपने खान पान रहन सहन आदि में सुधार  कर सकता है संयम पूर्वक पथ्य परहेज का सेवन करने का प्रयास कर सकता है !चिकित्सकीय सतर्कता वरतना शुरू कर सकता है !योग व्यायाम आदि का सहारा ले सकता है !इस प्रकार का संयमित जीवन जीने से संभव है उस रोग को होने से पहले ही रोक लिया जाए अथवा यदि हो भी तो उसके वेग को अत्यंत कम कर दिया जाए !जिससे उसको रोग की पीड़ा एवं शारीरिक क्षति कम से कम हो !       
     कई बार किसी रोगी के शरीर में तत्काल दिखाई देने वाले रोगों का स्वरूप अत्यंत सामान्य दिखाई दे रहे होते हैं उसी दृष्टि से उस रोग की सामान्य रूप से ही चिकित्सा प्रारम्भ कर दी जाती है जबकि वो किसी बहुत भयंकर रोग का अत्यंत प्रारंभिक स्वरूप होता है जिसका पता बहुत बाद में चल पाता है कि किंतु तबतक तो बहुत देर हो चुकी होती है !
      ऐसे रोगियों की चिकित्सा के नाम पर जाँच पे जाँच होती चली जाती है और औषधियाँ बदल बदल कर प्रयोग किया जा रहा होता है !रोग के अंदर से परत दर परत दूसरे तीसरे आदि रोग निकलते चले जाते हैं और उन उनकी जाँच दवाई आदि करते कराते रोगी के जीवन का अत्यंत बहुमूल्य बहुत समय  बीतता चला जाता है ! इस प्रकार से चिकित्सकीय उहापोह की स्थिति में उस रोग की तह तक पहुँचते पहुँचते रोगी की स्थिति  इतनी  अधिक बिगड़ चुकी होती है कि उस अवस्था में पहुँचने के बाद शरीर को स्वस्थ कर पाना चिकित्सा की दृष्टि से बहुत कठिन हो जाता है और रोगी की मृत्यु तक होते देखी जाती है ! ऐसी परिस्थिति में चिकित्सकीय उहापोह की स्थिति में बीत गए समय का आजीवन पछतावा बना रहता है !
     इसलिए किसी शरीर में रोग प्रारंभ होते ही या किसी के दुर्घटनाग्रस्त होते ही यदि उस रोग या चोट के भविष्य में बिगड़ने वाले स्वरूप का अंदाजा पहले ही लगाना संभव हो पावे तो अत्यंत सतर्क एवं सघन चिकित्सा शुरू से ही दी जाने लगे तो संभवतः परिणाम कुछ और अधिक अच्छे प्राप्त किए जा सकते हैं!
     ऐसी परिस्थिति में  रोग प्रारंभ होने या चोट चभेट लगने के प्रारंभिक समय तथा रोगी के जन्म समय का  'समयविज्ञान' विधा से अनुसंधान करके उस रोगवृद्धि की संभावित सीमाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है !