Friday, 31 January 2014

संन्यास से सत्यानाश के पथ पर ...! कलियुगी वैराग्य !

साम्राज्य ! क्या यही वैराग्य है क्या इसीलिए घर द्वार छोड़ने का नाटक किया गया था ! 

     यह संन्यास से सत्यानाश की यात्रा तीन चरणों में प्रारम्भ होती है

     

    काले मन - वैराग्य को धोने के लिए लोग महात्मा बनते हैं किन्तु पूर्व जन्म के पाप की अधिकता से भजन में मन नहीं लगता है!अब घर गृहस्थी में वापस जा नहीं सकते अब क्या करना चाहिए !

  इसके लिए वैराग्य परमावश्यक होता है रामदेव भी पहले महात्मा बने वो अभी बन भी नहीं पाए थे कि काले तन अर्थात अस्वस्थ  शरीरों को मुद्दा बना लिया। यदि वो महात्मा नहीं बन पाए थे तो संतोष कि चलो बेशक प्राच्यविद्याओं के विद्वान न हों किंतु योग आदि का नाम तो प्रचारित हो  ही रहा है।
 अब बात काले धन की, अरबों  रूपयों की कमाई ईमानदारी पूर्वक इतनी जल्दी वो भी बिना किसी व्यापार के नहीं की जा सकती। यदि किसी ने कमाए हैं वो भी महात्मा होकर फिर भी वो अपने को ईमानदार कहे ये तो बहुत बड़ा झूठ है। संविधान कहे न कहे किंतु शास्त्रीय संविधान तो सन्यासी के धनसंग्रह को पाप मानता है,शास्त्र तो इस धन संग्रह को कालाधन ही मानेगा।अब आप स्वयं सोचिए अरबों रूपयों की भूख रखने वाला व्यक्ति यदि अपने को वैरागी कहता हो तो ये उसी तरह है जैसे कोई पण्यबधू अर्थात वेश्या अपने को पतिव्रता कहे एवं बहुत बच्चों का बाप अपने को ब्रह्मचारी बतावे। यह कितना विश्वसनीय होगा? सोचने की आवश्यकता है।
     इसी प्रकार बाबा जी योग के नाम पर केवल आसन सिखाते रहे और योग शिविरों एवं टी.वी. चैनलों आदि पर बड़े-बड़े भयंकर रोगों की लंबी लंबी लिस्टें न केवल पढ़ते रहे अपितु उन्हें ठीक करने का दावा भी ठोंकते रहे। उनके दावे कितने सच हैं? सरकार ने कभी यह जानने के लिए मेरी जानकारी में तो कोई ऐसा चिकित्सकीय जाँच दल गठित नहीं किया जिससे जनता के सामने सारी सच्चाई आती। यदि बाबा जी के दावों में दम थी तो उन्हें और अधिक प्रोत्साहित किया जाना चाहिए था और यदि ये वास्तव में पाखंडी थे तो उचित कार्यवाही करके जनता को बचाने का दायित्व भी तो सरकार का ही था। कालेधन से धनी बाबा ने भविष्य में अपने धन की सुरक्षा के लिए काले धन  को ही मुद्दा बना लिया।संभवतः सोचा होगा कुछ तक सांसद यदि अपने बन गए तो किसी प्रतिकूल कार्यवाही के समय संसद में शोर मचाने के काम आएँगे।
  फिर भी यदि बाबा रामदेव या उनके लोग गलत थे तो उनकी निष्पक्ष जॉंच पहले ही क्यों नहीं की गयी? उनसे दूरी बनाकर क्यों नहीं रहा गया? उन्हें मनाने के लिए मंत्री क्यों भेजे गए ? क्या मिलजुल कर देश  को लूटने का समझौता करने का बिचार था ? आखिर इस सरकारी घबड़ाहट का इशारा किस ओर है ? स्वतंत्र भारत में सर्वाधिक समय तक सत्ता में रहने वाला दल भ्रष्टाचार में कहीं स्वयं को ही तो सबसे अधिक संलिप्त नहीं मान रहा है?

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