Wednesday, 17 September 2014

संन्यास या उपहास ये कैसा संन्यास ?

               ऐसे संन्यास का क्या विश्वास !

    संन्यास का भाव यह था कि माया मोह छोड़कर वैराग्य पथ पर दृढ़ निश्चयी होकर आगे बढ़ना !किन्तु आज तो संन्यास की हाइटेक और भी बड़ी सारी बरायटियां  मार्केट में आ गई हैं आप कैसे भी रहते हुए और कुछ भी करते हुए अपने को संन्यासी कह सकते हैं अब तो आप हर अच्छा बुरा काम संन्यासी होकर भी कर सकते हैं केवल उसके पीछे शुद्ध एवं स्वदेशी आदि लिखना पड़ेगा !जनता बश इतना ही पढ़ती है फिर तो कूद पड़ती है बहाव में , बाकी का कौन क्या देखता है और कौन पढ़ता है ।जब एक बुड्ढा अपना भगवान बन कर मंदिरों में बैठकर अपने को पुजवा सकता है फिर भी उसका पक्ष लेने वाले इसी दुनियाँ में उपस्थित हैं धिक्कार है ऐसे शास्त्र द्रोहियों को !अब कैसे उद्धार होगा सनातन धर्म का !अगर शास्त्रीय संत ऐसे पाखंडों का विरोध करते हैं तो उन पापियों से ज्यादा अपने अंदर का विरोध झेलना पड़ता है उन्हें !आखिर क्या किया जाए कितना पाखण्ड हो गया है आज धर्म में ?

   बंधुओ ! आज संन्यासी कितना भी बड़ा व्यापार आराम से कर सकते हैं वह शुद्ध के नाम पर कुछ भी बेच सकते हैं समाज सुधार के नाम पर कुछ भी कर सकते हैं , जैसे - कोई आदमी जो कुछ पाना चाहता है या पाकर जहाँ ठहरने लगता है मतलब साफ होता है कि इसका लक्ष्य यही था और अपने इसी लक्ष्य को पाने के लिए ही वह अभी तक सारी उछलकूद नाटक नौटंकी आदि करता रहा है इसलिए किसी व्यक्ति की मानसिकता का मूल्यांकन करने के लिए उसके ठहराव की प्रतीक्षा एवं उसका अध्ययन किया जाना चाहिए !

    एक किसान के बेटे का मन पढ़ने लिखने में नहीं लगता था तो घर वाले उसे भारी भरकम काम बताया करते थे इससे तंग आकर उसने सोचा कि कोई व्यापार करना चाहिए किन्तु व्यापार के लिए धन की आवश्यकता होती है अब धन कहाँ से मिले घर में तो था नहीं और होता भी तो ऐसे लोगों को कौन दे देता धन !फिर उसने विचार किया किसी से उधार ले लें किन्तु देगा कौन और क्यों देगा और यदि कोई दे भी दे तो उसका ब्याज कहाँ से देंगे और उसे लौटाएँगे कब ?और यदि व्यापार में घाटा हो गया तब तो और ख़राब बात होगी लोग मारेंगे पीटेंगे पैसे माँगेंगे और फिर कानून के हवाले कर देंगे ! 

      फिर खुराफाती दिमाग में एक आइडिया आया कि धन इकट्ठा करने के लिए संन्यास ही क्यों न ले लिया जाए ! जहाँ माँगने में लज्जा नहीं देने की चिंता नहीं न कोई ब्याज न बट्टा जब चाहो तब जितना चाहो उतना माँगते रहो व्यापार बढ़ाते जाओ,योग का नारा दो भोग का सहारा लो , योग का आश्रम बनाओ भोग की सुख सुविधाएँ जुटाओ व्यापार बढ़ाते जाओ कितना भी धन इकट्ठा कर लो कौन पूछता है । ये जुगत काम आई और बाबा जी व्यापारी हो गए ! संन्यासी वेष में होने के कारण लोगों ने उनकी ईमानदारी पर शक नहीं किया और बाबा जी उसका फायदा उठाते रहे और निकले थे संन्यासी बाना धरके और बाजार के व्यापारियों से माँग माँग कर व्यापार किया और फिर उन्हीं को चुनौती देने लगे उन्हीं के सौदा सामान को अशुद्ध बताने और अपना शुद्ध बता बता बता कर बेचने लगे सरकार ने आँखें दिखाईं और खोलने चाहे घपले घोटाले तो सरकार को ही शुद्ध करने का नारा देने लगे ,धीरे धीरे बाबा जी की शुद्धि की ख्याति इतनी बढ़ी कि बाबा जी एक शुद्ध सरकार बनाने का ढोल पीटने लगे। 

      बंधुओ ! सनातन धर्म में संन्यास की यह दुर्दशा और इस पर भी कोई कुछ बोले तो ऐसे व्यापारियों के अनुयायी तंग करते हैं और न बोले तो धर्म की जड़ें दिखने लगती हैं किया आखिर क्या जाए !क्या धर्म को अधार्मिकों या धर्म व्यापारियों के सहारे ही छोड़ दिया जाए ?

     यदि संन्यास का मतलब वास्तव में सब  कुछ छोड़ देना ही होता है तो कोई व्यक्ति सबकुछ छोड़ने का निश्चय करके घर से निकले और विभिन्न मठ मंदिरों में जाए हिमालय तक धक्के खाता फिरे और फिर जब कहीं मन न लगे तो राजनीति करने लगे !ये सब घालमेल कैसा ?संन्यास और राजनीति दोनों  परस्पर विरोधी ध्रुव हैं फिर किसी संन्यासी की मंजिल संन्यास के बाद सीधे राजनीति कैसे हो सकती है बीच में कहीं कोई पड़ाव नहीं !आखिर ऐसे लोगों को संन्यास जैसा पवित्र पद पसंद क्यों नहीं आता है और राजनीति में रमने लगता है मन फिर कैसा संन्यास ?

 

          

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