Wednesday, 17 September 2014

क्या विद्वत्तामें ये सारे दोष और दुर्गुण ही हैं तथा मूर्खता में सारे गुण ही गुण हैं ?

  अज्ञानियों का ज्ञान मूर्खता प्रधान समाज ही आत्मज्ञानी ,ब्रह्मज्ञानी भक्त आदि बन सकता है !

     कोई कुछ पूछ न दे इस भय से कुछ अज्ञानी  लोग धर्म के नाम पर अशिक्षा को इस तरह से प्रचारित कर रहे हैं !जैसे वेदों शास्त्रों पुराणों में गालियाँ लिख कर रखी गई हों ऐसे इनसे समाज को दूर रहने की सलाह दिया करते हैं उन्हें लगता है कि यदि ये लोग पढ़ लेंगे तो हमसे प्रश्न पूछेंगे तो हमें भी पढ़ना पड़ेगा इससे अच्छा यही है कि वेदों शास्त्रों पुराणों से जनता को डरवाते ही रहो !इन्हें ऐसे प्रस्तुत करते हैं जैसे इन  वेदों शास्त्रों पुराणों में गालियाँ लिख कर रखी गई हों ।। इस लिए ऐसे लोग समाज को समझाते हैं कि -

  दो. पोथी पढ़ पढ़ जुग मुआ, पंडित भया न कोय।

      ढाई आँखर प्रेम का   पढ़ै  सो पण्डित होय।।

       किन्तु कभी ये लोग इस बात का विचार नहीं करते हैं कि यदि कबीर दास जी इस भावना से स्वयं ही सहमत होते तो वे खुद पोथी लिखकर क्यों जाते !इसका सीधा सा मतलब है कि कबीरदास जी स्वयं ही इस लाइन से सहमत नहीं थे किन्तु अशिक्षितों ने इस लाइन को अपने संप्रदाय का महामंत्र मान लिया है और दूसरों के दिमाग में भी यही कूड़ा करकट डालने का प्रयास कर रहे हैं अरे इन्हें सोचना चाहिए कि जो पढ़ सकता है उसे तो पढ़ना चाहिए अन्यथा ढाई अक्षर प्रेम का पढ़ कर खुश फहमी पालने वाले लोग अगले जन्म में आकर पढ़ेंगे !

दो.  पोथी देखे डरत जे मूरख प्रेम अधीर ।

     तिन्हैं सहारा देन को अस लिखि गए कबीर ॥

         दो. ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े जो पंडित होत ।

     तौ कबीर क्यों लिखि गए पोथी कठिन बहोत ॥

     आज कुछ बिना पढ़े लिखे लोग धार्मिक धंधे की तलाश में समाज को यह समझाया करते हैं कि भक्ति अध्यात्म आदि के लिए शिक्षा की आवश्यकता बिलकुल नहीं होती है तर्क वितर्क में बिलकुल नहीं जाना चाहिए जैसा मैं कहूँ बिलकुल वैसा करते जाना चाहिए और इसके समर्थन में ध्रुव प्रह्लाद मीरा रसखानादि के ढेर सारे उदाहरण खींच खाँच कर पकड़ लाते हैं अरे ! उन जन्म जन्मान्तर के शास्त्रीय साधकों को अपनी मूर्खता के समकक्ष मान कर बड़ा खुश हुआ करते हैं गोपिकाओं को भी अपनी मूर्खता की श्रेणी में  सम्मिलित कर लिया करते हैं अरे वो वेद की ऋचाएँ थीं श्री रामावतार में कोल भील आदि सब देवता थे उनसे किसी अज्ञानी की तुलना कैसे की जा सकती है ?   


   ब्रह्मविद्या और आत्मज्ञान जैसे बड़े बड़े शब्द प्रयोग करना तो आसान है किन्तु यहाँ तक पहुँचने का रास्ता वेदों शास्त्रों पुराणों से ही होकर जाता है यह बात भी समझनी चाहिए और यदि ये सब कुछ वेदों शास्त्रों पुराणों को छुवे बिना ही हो जाएगा तो कभी कल्पना करनी चाहिए कि आखिर इनमें और लिखा क्या होगा !अंतर इतना अवश्य हो सकता है कि इन महान ग्रंथों का अध्ययन स्वयं न किया जा सका हो किन्तु इनके  सार तत्व का  उपदेश किसी गुरू के द्वारा कर दिया गया होगा , इसका ये कतई मतलब नहीं है वेदों शास्त्रों पुराणोंकी उपेक्षा करके कोई सर्वज्ञ हो गया । "आत्मज्ञान" डिग्रियों, प्रमाणपत्रों आदि का मोहताज हो न हो किन्तु वेदों शास्त्रों पुराणों से प्रकट ज्ञान का मोहताज जरूर है जहाँ तक बात भक्ति की है भक्ति क्या है इसे समझने का आधार भी कुछ तो होना चाहिए यहाँ तक भक्ति जन्य अनुभव भी शास्त्र प्रक्षालित होना चाहिए अन्यथा मन गढंत बातें बता कर अज्ञानी लोग समाज को बरगलाया करते हैं और अपने अज्ञान को चतुराई पूर्वक छिपाने के लिए वेदों शास्त्रों पुराणों को ऐसे किनारे लगाया करते हैं जैसे उनमें गालियाँ लिख कर रखी गई हों । अपने अज्ञान के मंडन की अजीब सी पद्धति है कि सुनी सुनाई बातों को उद्धृत करते हुए कुछ बड़े बड़े नाम लेकर यह सिद्ध करना कि मूर्खता  विद्वत्ता की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि उसी मूर्खता में ब्रह्मविद्या आत्मज्ञान और भक्ति जैसे महत्वपूर्ण सारे तत्व विद्यमान  हैं और विद्वत्ता में ये सारे दोष दुर्गुण हैं।अरे! कभी किसी आत्मज्ञानी,ब्रह्मविद्या वाले या अन्य किसी भक्त से पूछा तो गया होता कि शास्त्रीय ज्ञान विज्ञान की आवश्यकता आपको पड़ी या नहीं ?केवल कपोल  कल्पित बातों बयानों के आधार पर अज्ञानियों की अयोग्यता को महिमा मंडित नहीं किया जा सकता !

    हर कोई अपनी अपनी शिक्षा के हिसाब से ही समझ सकता है मैं हर किसी को कैसे समझा सकता हूँ जिसकी शास्त्रीय शिक्षा होती है उसे समझाना आसान होता है और जो पढ़ा लिखा कुछ और हो किन्तु अहंकारवश भक्ति के क्षेत्र में भी पैर फँसा कर रखना चाहता हो और फिर चाहे कि पढ़े लिखे लोग उसकी आधार हीन बातों को प्रेम और भक्ति के क्षेत्र में भी महत्त्व दें ऐसा कैसे संभव है ! शिक्षितों को भी इतना हक़ तो है कि वो अपने शैक्षणिक स्तर के लोगों से ही बात करें अन्यथा जिसे शास्त्रीय शिक्षा का स्वाद ही न पता हो ऐसा ज्ञान दुर्बल कोई व्यक्ति स्वाभाविक है कि अशिक्षा को  ही महिमा मंडित करेगा इसमें मुझे कोई आपत्ति भी इसलिए नहीं है क्योंकि पहले भी कई बार मुझे ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ चुका है मैंने  हर किसी से उसकी शास्त्रीय शिक्षा पूछी जो शिक्षित निकले उन्हें तो समझ में आ गया किन्तु जिनमें शास्त्रीय योग्यता नहीं थी वो सुनी सुनाई बातें बोलते रहे जिनका मेरे पास कोई जवाब नहीं होता है यदि व्यर्थ में ही चोंच लड़ाना हो तो क्या आवश्यकता है पढने लिखने की ! 

     अशिक्षत लोग  प्रेम और भक्ति के क्षेत्र में ही क्यों किसी भी क्षेत्र में वो हाथपैर तो मार ही सकते है क्या झोला छाप डाक्टर नहीं होते और वो भी ऐसा ही दम्भ भरते हैं ,कोई राजमिस्त्री यदि किसी इंजीनियर को महामूर्ख कहने लगे तो कह सकता है उसे भी भगवान ने मुख दिया है किन्तु इंजीनियर के आस्तित्व को वो चुनौती कैसे दे सकता है ?खैर ,जिसको जैसा ठीक लगे वो वैसा करे इससे अधिक समय मैं बर्बाद नहीं कर सकता

!

 

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