Monday, 1 December 2014

बंधुओ ! यदि आज साधकों सिद्धों योगियों शास्त्रीय विद्वानों की संख्या घटी है किन्तु इसका मतलब ये भी नहीं है कि हम किसी को कुछ भी कहने लगें !

     तमाम सांसारिक प्रपंचों में फँसा कोई व्यक्ति यदि अपने को योगी कहे तो कहे किंतु समाज आँख मूँद कर उसके बचनों पर विश्वास कैसे कर ले !ढोंग का रोग धर्म को निगलता जा रहा है हम शास्त्रीय संविधान को ताख पर रख कर केवल अपनी आस्था के आधार पर आत्मघाती फैसले करते जा रहे हैं!
      आज कुछ लोग शास्त्रीय शिक्षा साधना आदि क्षेत्रों में  बिना कोई शिक्षा ,सत्संग ,स्वाध्याय ,साधना आदि किए हुए ही अपने को ज्योतिष गुरु , योग गुरु ,विश्व गुरु, ब्रह्मांड गुरु ,आकाश गुरु ,पाताल गुरु और जाने कौन कौन कौन से गुरु कहने लगे हैं कुछ लोग तो अपने नाम के आगे पीछे ऊपर नीचे अगल बगल दाएँ बाएँ चारों तरफ गुरुजी  ही गुरुजी  लिख लेते  हैं अपने बीबी बच्चों को कसम खिलाकर रखते हैं कि कोई फोन आवे या कोई मिलने आवे तो हमारे लिए गुरु कहकर ही बोलना ! तभी तो धीरे धीरे लोग गुरु जी आदि कहने लगेंगे अन्यथा कोई क्यों कहेगा जब तुम्हीं नहीं कहोगे !कई तो अपने नाम के स्थान पर अपने को  स्वयं 'गुरुदेव' कहने या बताने लगे हैं ताकि कोई उनका नाम भी लेना चाहे तो उन्हें गुरुदेव ही कहे !इसी प्रकार से कुछ लोगों को मीडिया योग गुरु, धर्म गुरु आदि बहुत कुछ पैसे लेकर कहने और प्रचारित करने लगता है कुछ लोग अगर कुछ खास पैसे देने लगते हैं तो उन्हें तपस्वी सिद्ध करने के लिए यंकरिंग करने वाले झुट्ठे झुट्ठियाँ ये तक पूछ बैठते हैं कि "आज के बीस वर्ष पहले जब आप हिमालय में तपस्या कर रहे थे तो मैंने सुना है कि सिंग रोज आपके पैर छूने आते थे" आदि आदि ये सब सुन कर ऐसे लोग खुश हो जाते हैं !ये सब जब तक अच्छा होता है तब तक तो ठीक लगता है किन्तु जैसे ही वे पैसे नहीं देने लगते हैं तो उन्हीं के भोग गुरु ,ढोंग गुरु,पाखंडगुरु , अधर्म गुरु आदि  न जाने कितने नाम रख देता है देश का पवित्र मीडिया !इसलिए धर्म के मामले में ऊल जुलूल बातें बोलने बोलवाने सभी प्रकार का  मीडिया सम्पूर्ण रूप से अविश्वसनीय होता जा रहा है । उन बातों का सच्चाई से कोई लेना देना नहीं होता है अंध विश्वास को पानी पी पीकर कोसने वाले मीडिया की ही देन अंध विश्वास !
       मेरे कहने का मतलब है कि क्या ऐसे लोक प्रतिष्ठा लोलुप लोगों की इच्छा पूर्ति के लिए आम आदमी को अपना ज्ञान गौरव आदि सब कुछ भूल कर उनके पीछे ही दाँत चिआरते  घूमने लगना चाहिए क्या ?आखिर उन्हें अपनी अकल का इस्तेमाल करने से क्यों रोका  जाना चाहिए !
    कुछ लोग यदि किसी के विषय में कहते हैं कि अमुक व्यक्ति आचार बहुत अच्छा बना लेते हैं इसलिए अच्छे डाक्टर  हैं, या खेती बहुत अच्छी कर लेते हैं इसलिए अच्छे वैज्ञानिक हैं ये तर्क कितना सही है !और इसमें कितनी समझदारी है ! यदि कोई अच्छा देश भक्त है या अच्छी व्यापार कला जानता है तो वह उस क्षेत्र में  हो सकता है किन्तु इसका यह कतई मतलब नहीं है की हम उसे जगद्गुरु कहने लगें !और उसे या उसके अनुयायियों को किसी से ऐसी अपेक्षा भी नहीं रखनी चाहिए !
     धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज कहा करते थे कि पानी की बहती धारा में तो मुर्दे बहते हैं जीवित लोग तो पानी के बहाव के विरुद्ध भी चलने में हिम्मत नहीं हारते अपितु पानी की धारा के विरुद्ध तैर कर चल लेना ही उनकी सजीवता की पहचान है !ऐसे सजीव लोगों का मुर्दों के साथ बहना अपनी जीवंतता का अपमान करना है इसलिए यदि वो अपनी जीवंतता बनाए एवं बचाए रखना चाहते हैं तो इसमें उनका अपराध क्या है !
     तमाम सांसारिक प्रपंचों में फँसा कोई व्यक्ति यदि अपने को योगी या सिद्ध आदि कुछ भी कहेगा तो समाज आँख मूँद कर उसके बचनों पर विश्वास कैसे कर ले ! जिसने शास्त्रों को न पढ़ा हो ,जिसने शास्त्रीय महापुरुषों का सत्संग भी न किया हो जिसका  योगादि विद्याओं के विषय में कोई अनुभव भी  न हो उसकी मजबूरी हो सकती है कि योग्य पदों के लिए वो योग्य लोगों का चयन कर सकने में ऐसे लोग असमर्थ हों किन्तु जिन्होंने परिश्रम पूर्वक विद्या अर्जित की हो ,महपुरूषों के सत्संग से अनुभव पाया हो एवं निरंतर अभ्यास से यौगिक शक्तियों से सुपरिचित हों ऐसे समर्थ लोगों से ऐसी अपेक्षा ही क्यों की जाए कि वो आज तक अपने पढ़े सुने समझे एवं अभ्यास से अर्जित किए गए ज्ञान एवं अनुभव को भूलकर अकर्मण्य ,अयोग्य एवं अनभ्यासी लोगों की तरह किसी पाखंडी  के पीछे दुम हिलाने लगेंगे !
      रही बात आस्था की तो आस्था को चुनौती नहीं दी जा सकती आस्था अंधी होती है इसलिए आस्था तो किसी की किसी के प्रति भी हो सकती है वो अच्छा बुरा कैसा भी क्यों न हो यदि बहुत बड़े ज्ञानी ध्यानियों के अनुयायी होते हैं तो जो लोग ज्ञानी ध्यानी आदि नहीं हैं  अपितु कुमार्ग गामी हैं अनुयायी तो उन जैसों के भी होते हैं क्या  ओसामा जैसों के अनुयायी नहीं थे !या उनकी संख्या कम थी या उसके अनुयायियों में समर्पण की कमी थी !ऐसा कुछ भी न होने पर भी वो समाज शत्रु के रूप में स्वीकार किया गया !मेरे कहने का अभिप्राय केवल ये है कि जिसकी जिसके प्रति आस्था होती है वो उसके विरुद्ध कुछ भी होते देख सुन नहीं सकता है और उसे करना भी ऐसा ही चाहिए ! 
कोई किसके प्रति आस्था करे या न करे ये उसके निजी ज्ञान ध्यान भाग्य कर्म स्वभाव रूचि स्वभाव आदि  क्षमताओं के आधार पर कर सकता है इसके लिए सब कोई समान रूप से स्वतन्त्र है ! वे रामपाल समेत किसी के भी अनुयायी क्यों न हों उन्होंने अपनी अपनी ज्ञान  क्षमता के आधार पर अपने अपने प्रेरणा श्रोत बना रखे हैं वो उनका निजी मत हो सकता है किन्तु यदि कोई शास्त्र के किसी पक्ष विशेष पर दावा ठोकेगा तो उसे उसी शास्त्र प्रतिपादित कसौटियों पर खरा उतारना होगा वो मैं ही क्यों न होऊँ ! आज तक हम आप समेत भारतीय प्राचीन वांग्मय का अध्ययन करने वाले समस्त भारतीय मनीषियों ने योग एवं योगियों की जिस क्षमता को पढ़ सुन रखा है यदि कोई अपने को योगी कहेगा तो वो उन्हीं शास्त्रीय योगिक सिद्धांतों के दर्पण में  देखना ही चाहेंगे और उन्हें ऐसा करना भी चाहिए !इसमें किसी को बुरा लगे तो लगे किन्तु शास्त्रीय ज्ञान विज्ञान के साथ समझौता नहीं किया जा सकता !
   

 

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