केवल आशाराम ही क्यों घूसखोर वे सरकारी कर्मचारी जिनके सहयोग से कानून का इस प्रकार से मजाक उड़ाना सम्भव हो पाता है या ये सब कुछ सम्भव हुआ वे क्यों जिम्मेदार नहीं हैं ?  
      सरकार
 एवं सरकारी कर्मचारियों में काम करने की इच्छा ही नहीं दिखती तो  केवल किसी एक दो को कोसने से क्या लाभ होगा !जबकि  इन सबकी  लापरवाहीनेबिगाड़ाहैसाराखेल!                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      
 अब समय आ गया है जब बहुत सारे सरकारी कर्मचारी लोग अपने लापरवाही पूर्ण 
आचरण से  धीरे धीरे अपनी उपयोगिता स्वयं समाप्त करते चले जा रहे हैं| आज 
सरकारी आफिसों  संस्थाओं में काम काज  का स्तर इतना गिर चुका है कि समाज इन
 पर क्रोधित तो नहीं है  इनसे निराश जरुर  है और हो भी क्यों न ! 
     
एक ओर  तो गरीब भारत है जिसे दिनरात परिश्रम करने पर भी भरपेट खाना नहीं 
मिल पा रहा है तो दूसरा वह वर्ग है जो परिश्रम पूर्वक अपना जीवन संचालित कर
 रहा है तीसरा वर्ग सरकारी कर्मचारियों का है जो जिस काम के लिए नियुक्त 
किया गया है वह काम या तो करता नहीं है या भारी मन से अर्थात क्रोधित होकर 
करता है या फिर आधा अधूरा करता है या फिर घूस लेकर करता है| इन सबके बाबजूद
 भी उनका बेतन आम देशवासियों  के स्तर एवं देश की वर्तमान परिस्थितियों  के
 अनुशार  बहुत अधिक है उस पर भी सरकार अकारण और बढ़ाए जा रही है|हर समय  
पैसे पैसे का रोना रोने वाली सरकारों के पास  सरकारी कर्मचारियों का बेतन 
बढ़ाते समय न जाने पैसा कहाँ से आ जाता है या सरकार का अपना भी कोई कमजोर 
बिंदु है जिसकी पोल सरकारी कर्मचारियों के पास होती है जो कहीं खुल न जाए 
इस भय से उनकी सैलरी बढ़ाना कहीं सरकार की मज़बूरी तो नहीं है! 
       
यही अंधी आमदनी देखकर  सरकारी नौकरियां  पाने के लिए चारों तरफ मारामारी 
मची रहती है कोई आरक्षण मांग रहा है कोई घूस देकर घुसना चाह रहा है क्योंकि
 एक बात सबको पता है की बिना तनाव एवं बिना परिश्रम के भी यहाँ  जीवन आराम 
से काटा जा सकता है|
    कुछ विभागों के  सरकारी कर्मचारियों में कितनी 
काम चोरी घूस खोरी लूट मार आदि  मची हुई है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया 
जा सकता है कि जो काम जितने अच्छे ढंग से  संतोष पूर्वक प्राइवेट संस्थाएं 
पाँच दस हजार रूपए मासिक पारिश्रमिक देकर करवा ले रही हैं वो काम उससे दस 
दस गुना अधिक बेतन देकर भी  उतने अच्छे ढंग से तो छोडिए बुरे ढंग से भी 
सही  सरकार अपने कर्मचारियों से नहीं करवा पा रही है आखिर क्यों ? फिर भी 
सरकार  पता नहीं इनके  किस आचरण से खुश होकर  इनकी सैलरी समय समय पर बढाया 
 करती है| प्राइवेट संस्थाएं  जिन कर्मचारियों  को  बिना बेतन के भी नहीं 
ढो सकती हैं  उन्हें अकारण ढोते रहने  में सरकार कि न जाने क्या मज़बूरी है!
     
 केवल यही न कि प्राइवेट संस्थाएँ कमा कर अपने पैसे से सैलरी बाँटती हैं 
इसलिए उन्हें पैसे कि बर्बादी होने से कष्ट होता है  जबकि सरकार को कमा 
कमाया बिना किसी परिश्रम के जनता का पैसा टैक्स रूप में मिलता है यही कारन 
 है कि पराई कमाई अर्थात जनता के धन से किसी को क्यों लगाव हो ?बर्बाद हो 
तो होने दो ! 
      इस प्रकार सरकारी कर्मचारियों की इन्हीं गैर 
जिम्मेदार प्रवृत्तियों  ने  सरकारी संस्थाओं को उपहास का पात्र बना दिया 
है! क्या भारतीय लोकतंत्र को बचाए रखने कि सारी जिम्मेदारी केवल आम जनता 
एवं गरीब वर्ग की ही है बाकी लोग ऐश करें! सरकारी कार्यक्रमों में होने 
वाला खर्च  देखिए,नेताओं एवं  सरकारी कर्मचारियों का खर्च देखिए बहाया जा 
रहा होता है पैसा? इनके भाषणों के लिए करोड़ों  के मंच तैयार किए जाते हैं 
आम आदमी अपनी कन्या के विवाह के लिए बेचैन घूम रहा होता है उसके पास कन्या 
के हाथ पीले करने के लिए धन नहीं होता है क्या करे बेचारा गरीब आम आदमी! 
कुछ उदाहरण आपके सामने भी रखता हूँ आप भी सोचिए कि लोकतंत्र कि रक्षा के 
नाम पर आखिर यह अंधेर कब  तक चलेगी!     
     कई 
बार तब बहुत आश्चर्य होता है जब ये पता लगता है कि जो कानून पालन करने के 
लिए बने थे वो पालन करने के बजाए केवल बनाए और बेचे जा रहे हैं तो बड़ा कष्ट
 होता है!
     एक बार किसी ने गुंडई के स्वभाव
 से हमारे निजी लोगों को मारा उनके शिर में काफी चोट लगी थी मैं उन्हें 
लेकर थाने गया उनका खून बहता रहा किंतु दूसरा पक्ष तीन घंटे बाद थाने में 
आया तब तक उन्हें इलाज भी नहीं उपलब्ध कराया गया जब वो किसी नेता को लेकर 
आए तो दरोगा जी ने उनसे हाथ मिलाया बात की इसके बाद हमें बुलाकर समझौते का 
दबाव डाला जब हम नहीं माने तो दरोगा जी ने हमारे सामने तीन आप्सन रखे कि 
यदि मैं उन्हें थाने में बंद कराना चाहता हूँ तो हमें कितने पैसे देने 
पड़ेंगे,यदि मैं किसी उचित धारा में बंद कराना चाहता हूँ तो क्या देना 
पडे़गा,अन्यथा दोनों पक्षों को बंद कर देंगे। हमने कहा मैं पैसे तो नहीं 
दूँगा जो उचित हो सो कीजिए हमें कानून पर भरोसा है तो उन्होंने कहा कानून 
क्या करेगा और क्या कर लेगा जज?देखना उसे भी हमारी आँखों से ही  है वो लोग 
तो कहने के अधिकारी होते हैं बाकी होते तो सब हमारी कलम के गुलाम ही हैं 
जैसा  हम लिखकर भेजेंगे वैसा ही केस चलेगा और हम वही लिखकर भेजेंगे जैसे 
हमें पैसे मिलेंगे! उसी के अनुशार केस चलेगा जज तुम्हारे शिर का घाव थोड़ा 
देखने आएगा!और देखे भी तो क्या कर लेगा जब हम लिखेंगे ही नहीं!वैसे भी घाव 
कब तक सॅभाल कर रख लोगे? हमारे यहॉं जितने दिन मुकदमें चलते हैं उतने में 
समुद्र सूख जाते हैं घाव क्या चीज है!
    इसी प्रकार दूसरे पक्ष से भी 
क्या कुछ बात की गई पता नहीं अंत में दोनों पक्षों को थाने में बंद कर दिया
 गया।एक कोठरी में ही बंद होने के कारण दोनों पक्षों की आपस में बात चीत होने 
लगी तो पता लगा कि दरोगा ने उन्हें भी इसी प्रकार धमकाया था कि इसमें कौन 
कौन सी दफाएँ  लग सकती हैं जिन्हें हटाने के लिए कितना कितना देना 
पड़ेगा!उन्होंने भी देने को मना कर दिया तो दोनों पक्ष बंद कर दिए गए!
   
 इसी प्रकार दिल्ली जैसी राजधानी में कागज, हेलमेट आदि की जॉंच के नाम पर 
किससे कितने पैसे लेकर छोड़ना है रेट खुले होते हैं!रोड के किनारे सब्जी 
बेचते रेड़ी वाले से पैसे लेकर बीट वाला उसे वहॉं खड़ा होने देता है।पार्कों 
में अश्लील हरकतें करने वाले जोड़ों को  भी पैसे के बल पर कुछ भी करने की 
छूट मिल जाती है। किसी भी खाली जगह पर खड़ी गाड़ी के बीट वाला कब पैसे मॉंगने
 लगेगा उसका मन!कानून के रखवाले इमान धरम के साथ साथ सब कुछ बेच रहे हैं 
खरीदने वाला चाहिए!देश  की राजधानी का जब यह हाल है तो देश  के अन्य शहरों 
के लोग क्या कुछ नहीं सह रहे होंगे!ये धोखा धड़ी क्या अपनों के साथ ! आश्चर्य है !!!
    पचासों हजार सैलरी पाने वाले 
सरकारी डाक्टरों का एक वर्ग जनता पर बोझ बनकर जी रहा है जबकि  प्राइवेट 
डाक्टरों ने अपनी सेवाओं से जनता का विश्वास जीता है इसलिए वे स्वाभिमान 
पूर्वक जी रहे हैं !
    यही स्थिति सरकारी शिक्षकों के 
एक बहुत बड़े वर्ग की है लगता है कि उनके भाग्य में नहीं लिखा है स्वाभिमान 
पूर्वक जीना ! ऐसे लोग अपने बच्चे भी सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाते हैं 
जहाँ से मोटी मोटी सैलरी उठाते हैं! यही स्थिति पोस्ट मास्टर की है जिनके 
लेटर कोरिअर वाला ले जाता है इसीप्रकार से फोन मोबाइल आदि सभी सरकारी 
विभागों को अपने अपने 
क्षेत्र के प्राइवेट विभागों से पिटते देख रहा हूँ फिर भी बेशर्मी का आलम 
यह है कि काम हो या न हो सरकारी कर्मचारियों की सैलरी समय से बढ़ा दी जाती 
है।इसका कारण कहीं यह तो नहीं है कि भ्रष्टाचार के द्वारा कमाकर सरकारी 
कर्मचारियों ने जो कुछ सरकार को दिया होता है उसका कुछ अंश  सैलरी 
बढ़ाकर न दिया जाए तो पोल खुलने का भय होता है!
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                        
     ऐसे सभी प्रकार के 
अपराधों एवं अपराधियों के लिए सभी पार्टियों की सरकारें जिम्मेदार हैं जो 
दल जितने ज्यादा दिन सत्ता में रहा है वह उतना ही अधिक जिम्मेदार है जो दल 
सबसे अधिक सरकार में रहा उसने सभी प्रकार के अपराधों को सबसे अधिक पल्लवित 
किया है उसका कारण सरकारी निकम्मापन एवं अनुभवहीनता से लेकर आर्थिक 
भ्रष्टाचार आदि कुछ भी हो सकता है। 
   अपराधियों का बोलबाला राजनीति 
में भी है हर अपराधी की सॉंठ गॉंठ लगभग हर दल में होती है क्योंकि वे इस 
सच्चाई को भली भॉंति जानते हैं कि अपराध करके बचना है तो अपना आका राजनीति 
में जरूर बनाकर रखना होगा या राजनीति में सीधे कूदना होगा और वो ऐसा कर भी रहे
 हैं, इसमें सभी दल उनकी मदद भी कर रहे हैं!यही कारण है कि  आजकल सामान्य अपराधियों के साथ साथ अपराधी
 बाबा लोग भी अपनी संपत्ति की सुरक्षा आदि को लेकर घबडाए हुए हैं, उनके 
द्वारा किए जा रहे बलात्कार आदि गलत कार्यों में कहीं उनकी पोल न खुल जाए 
कहीं कानून का शिकंजा उन पर  न कसने लगे इसलिए जिताऊ कंडीडेट के समर्थन में
 चीखते चिल्लाते घूमने लगते हैं दिखाते हैं कि जैसे सबसे बड़े देश भक्त एवं उस नेता के प्रति समर्पित वही हैं।
    बलात्कार और भ्रष्टाचार  रोकने 
के लिए अभी तक कितने भी कठोर कानून बनाए गए हों किन्तु उनका भय आम 
अपराधियों में बिलकुल नहीं रहा क्योंकि वे किसी नेता या प्रभावी बाबा से 
जुड़े होते थे जिनसे उन्हें अभय दान मिला करता था किन्तु अब जबसे बड़े बड़े 
बाबा और बड़े बड़े नेता लोग भी जेल भेजे जाने लगे तब से अपराधियों में हडकंप 
मच हुआ है कि अब क्या होगा! मेरा अनुमान है कि भ्रष्ट नेताओं एवं भ्रष्ट 
बाबाओं की दूसरी किश्त जैसे ही जेल पहुंचेगी तैसे ही अपराध का ग्राफ बहुत 
तेजी से घटेगा और फिर एक बार जनता में सरकार एवं प्रशासन के प्रति विश्वास 
जागना शुरू हो जाएगा!  
     सरकारी 
प्राथमिक  स्कूलों को ही लें उनकी पचासों हजार सैलरी होती है किंतु वहाँ के
 सरकार दुलारे शिक्षक या तो स्कूल नहीं जाते हैं यदि गए  भी तो जब मन आया  
या घर 
बालों की याद सताई तो  बच्चों की तरह स्कूल से भाग आते हैं पढ़ने पढ़ाने की 
चर्चा वहाँ  कहाँ और कौन  करता है और कोई करे भी तो क्यों? इनकी इसी 
लापरवाही
 से बच्चों के भोजन में  गंदगी  की ख़बरें तो हमेंशा से मिलती रहीं किन्तु 
इस बीच  तो जहर तक  
भोजन में निकला बच्चों की मौतें तक हुई हैं किंतु बच्चे तो आम जनता के थे 
कर्मचारी  
अपने हैं इसलिए थोड़ा बहुतशोर शराबा मचाकर ये प्रकरण ही बंद कर दिया जाएगा !
 आगे आ रही है दिवाली पर फिर बढ़ेगी सैलरी महँगाई भत्ता आदि आदि!
    अपने शिक्षकों
 को दो  चार दस हजार की  सैलरी देने वाले प्राइवेट स्कूल अपने बच्चों को 
शिक्षकों से अच्छे ढंग से पढ़वा  लेते हैं और लोग भी बहुत सारा धन देकर वहाँ 
अपने बच्चों का एडमीशन करवाने के लिए ललचा रहे होते हैं किंतु वही लोग फ्री में 
पढ़ाने वाले सरकारी स्कूलों को घृणा की नजर से देख रहे होते हैं! यदि सोच कर 
 देखा जाए तो लगता  है कि यदि प्राइवेट स्कूल न होते तो क्या होता? सरकारी 
शिक्षकों,स्कूलों के भरोसे कैसा होता देश की शिक्षा का हाल?
    सरकार एवं 
सरकारी कर्मचारियों  के एक बड़े वर्ग ने जिस प्रकार से जनता के विश्वास को 
तोड़ा है वह किसी 
से छिपा  नहीं है आज लोग सरकारी अस्पतालों पर नहीं प्राइवेट नर्शिंग होमों 
पर भरोसा करते हैं,सरकारी डाक पर नहीं कोरियर पर भरोसा करते हैं,सरकारी 
फ़ोनों की जगह प्राइवेट कंपनियों ने विश्वास जमाया है! सरकार के हर विभाग का
 यही  बुरा हाल है! जनता का विश्वास  सरकारी कर्मचारी किसी क्षेत्र में नहीं जीत
 पा रहे हैं सच्चाई यह है कि सरकारी कर्मचारी जनता की परवाह किए बिना फैसले
 लेते हैं वो जनता का विश्वास जीतने की जरूरत ही नहीं समझते इसके 
दुष्परिणाम पुलिस के क्षेत्र में साफ दिखाई पड़ते हैं चूँकि पुलिस विभाग में
 प्राइवेट का विकल्प नहीं है इसलिए वहाँ उन्हीं से काम चलाना है चूँकि वहाँ
 काम 
प्रापर ढंग से चल नहीं पा रहा है जनता हर सरकारी विभाग की तरह ही पुलिस 
विभाग से भी असंतुष्ट है इसीलिए पुलिस और जनता के  बीच हिंसक झड़पें 
तक होने लगी हैं जो अत्यंत गंभीर चिंता का विषय है उससे  भी ज्यादा चिंता  
का विषय यह है कि कोई अपराधी तो किसी वारदात के बाद भाग जाता है किन्तु 
वहाँ 
पहुँची पुलिस के साथ जनता अपराधियों जैसा वर्ताव करती है उसे यह विश्वास ही
 नहीं होता है कि पुलिस वाले हमारी सुरक्षा के लिए आए हैं !!! 
     इन सब  बातों को ध्यान में रखते हुए ही मैं सरकार एवं 
सरकारी कर्मचारियों  के सामने एक प्रश्न छोड़ता हूँ कि जनता का विश्वास 
जीतने की जिम्मेदारी  आपकी आखिर  क्यों नहीं है?                    
     मेरा मानना है कि यदि पुलिस
 विभाग की तरह ही  अन्य क्षेत्रों में भी प्राइवेट का विकल्प न होता तो 
वहाँ भी हो रही होतीं हिंसक झड़पें!
 
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