संन्यासियों के लिए शास्त्रीय धर्मकर्मों का पालन उतना ही आवश्यक होता है जितना व्यापारियों के लिए कानून और नेताओं के लिए संविधान !
   संन्यासियों और समाज सुधारकों 
में कुछ अंतर करके तो चलना ही पड़ेगा अन्यथा आज तो ईमानदार दिखने के लिए 
नेता ,व्यापारी और भिखारी जैसे लोग भी संन्यासियों जैसा  वेष  बनाकर अपने 
को संन्यासी कहने लगे हैं !वैसे भी जिस व्यापारी की सामाजिक गुडबिल ख़राब  
हो गई हो ब्याज पर भी उधार कर्जा न मिल पाता हो और वो व्यापार या राजनीति 
करना चाहता हो इसके लिए उसे धन चाहिए तो बाबा बन कर धन इकठ्ठा किया जा सकता
 है इससे उसे धन भी मिल जाएगा और ब्याज भी नहीं पड़ेगा और देने की चिंता भी 
नहीं होगी इसके लिए उसे धर्म और देश प्रेम से जुड़ी बातें बोलकर समाज को 
प्रभावित करना होगा !बाकी  व्यापार करे या राजनीति क्या दिक्कत !अगर भोग 
बिलासिता की  सारी सुख सुविधाओं को भोगते हुए भी केवल संन्यासियों जैसा  
वेष  बना लेने या अपने महल और फार्म हाउस को आश्रम कह देने मात्र से यदि 
बिना कुछ किए धरे सब कुछ मिल जाता है तो लिया जा सकता है इसमें दिक्कत भी 
क्या है दुनियाँ इतने व्यापार कर रही है सब नंबर एक के ही तो नहीं हैं इसी प्रकार से समाज सेवक नेता लोग  बिना कुछ किए धरे भी अरबों पति हो जाते हैं किंतु
 ये नंबर एक की राजनीति तो नहीं हैं इसी प्रकार से संन्यास है किंतु 
व्यापारी हो राजनेता हो या संन्यासी इसका मूल्यांकन तो उसके नीति नियमों के
 पालन से ही करना होगा न कि काल्पनिक जैसे देश के कानून और संविधान के अनुशार चलकर व्यापारियों 
 और राजनेताओं की शुद्धि  हो सकती है इसी प्रकार से धर्मशास्त्रों  का पालन
 करने वाले धार्मिकों को शुद्ध माना जा सकता है दूसरी बात कई बार कुछ  व्यापारी और कुछ नेता लोग चाहकर भी सम्पूर्ण रूप से संबिधान के अनुशार जीवन यापन नहीं कर पाते हैं किन्तु प्रयास
 करते हैं तो उनकी उस विषय संबंधी बातों का विश्वास भी उसी अनुपात में किया
 जाना चाहिए इसी प्रकार से साधू संन्यासी पंडित पुजारियों जैसे धार्मिक 
लोगों को भी अपनी क्षमता से बहार जाकर लप्फाजी नहीं मारनी चाहिए  !जिससे समाज उसे देखकर भ्रमित न हो  वैसे भी धार्मिक लोगों पर तो इसकी नैतिक जिम्मेदारी अधिक होती है कि वे यथासंभव शास्त्रीय जीवन पद्धति अपनाने का प्रयास करें फिर
 भी जो न कर पावें उसके बारे में समाज को भ्रमित भी न करें इतनी अपेक्षा 
हमारी समझ में बुरी भी नहीं है और ताकि उसकी आवश्यकता समाज कहीं अन्य जगह 
से पूरी करे या न करे !कम से कम 
 उसके लिए धर्म और धर्म शास्त्रों को तो दोषी नहीं ठहराया जाएगा !या गलत तो
 नहीं करेगा और यदि करेगा तो मानेगा भी गलत कि मैं गलत या अशास्त्रीय कर 
रहा हूँ !आज सबसे बड़ी दिक्कत तो ये है कि जो लोग गलत भी कर रहे हैं वो भी 
अपने को सही बता रहे हैं एक बाबा जी अपनी शिष्या के साथ शारीरिक संबंधों 
में पकड़े गए जब लोगों ने पूछा  ऐसा क्यों करते हैं तो कहने लगे "प्रेम तो 
भगवान का स्वरूप है श्री राधा कृष्ण ने भी किया था " बंधुओ !इस स्वेच्छाचार या ब्याभिचार को धर्म कैसे मान लिया जाए ! ऐसे सभी लोग यदि अपने अपने अनुशार धर्म गढ़ लेंगे तो कैसे निभ पाएगा धर्म !हर आदमी  अपने मन गढंत संविधान के आधार पर कैसे चल सकता है !
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