सांसदों की सैलरी डबल करने, पेंशन में बढ़ोत्तरी की सिफारिश -एक खबर
अरे जनप्रतिनिधियो ! देश की जनता को क्यों देखते हो इतनी गिरी नजर से !इतनी ही सभ्यता और उदारता जनता के लिए भी बरतते तुम तो लगता कि हम देश वासियों को भी जीवित समझते हो तुम !
अरे जनप्रतिनिधियो ! देश की जनता को क्यों देखते हो इतनी गिरी नजर से !इतनी ही सभ्यता और उदारता जनता के लिए भी बरतते तुम तो लगता कि हम देश वासियों को भी जीवित समझते हो तुम !
अरे देश के कर्णधार जन प्रतिनिधियो !तुम्हारा गुजारा यदि लाखों रुपयों में नहीं होता है तो कल्पना कीजिए कि उनका क्या होता होगा जिनकी सौ रूपए रोज की भी निश्चित आय नहीं है उनमें भी जिनके यहाँ काम करने वाला बीमार हो जाए या कुछ और विपरीत घटित हो जाए उनकी जिंदगी कैसे बीतते होगी !आखिर वो किसकी ओर देखें !क्या ये देश उनका नहीं है ! क्या उनका देश के विकास में कोई योगदान नहीं है ! अरे नेताओ !गरीबों के लिए केवल योजनाएँ लांच होती हैं पैसा तो पैसे वालों को ही मिलता है गरीबों को तो केवल सपने दिखाए जाते हैं ! आखिर सारे बड़े लोगों के सम्बन्ध उस ललित मोदी से ही क्यों निकल रहे हैं किसी गरीब से क्यों नहीं हैं !
बंधुओ ! 'सांसद' लोग जनता का धन इस तरह से लेकर अपने घर भरेंगे तो क्या यही जनसेवा व्रत है उनका ! देश ने उनको चाभी
पकड़ा दी है तो इसका मतलब ये है क्या कि केवल अपना घर भरो !संसद की कैंटीन में उनका खाना सस्ता है फिर भी सांसदों की सैलरी दोगुनी !दूसरी ओर भूखों मर रहा है किसान मजदूर उसके लिए तीस तीस रूपए के चेक ! आखिर देश में लोकतंत्र की स्थापना केवल सरकारों और सरकारी कर्मचारियों के लिए ही हुई थी क्या ? जब चाहो तब अपनी सैलरी बढ़ा लो जब चाहो तब अपने सरकारी कर्मचारियों की बढ़ा लो, मीडिया वालों को चुप करने के लिए उन्हें विज्ञापन दे दो अपने सब खुश !बाकी देशवासियों से क्या लेना देना !
कृषि के विज्ञापनों या गरीबी हटाओ के विज्ञापनों पर जितना ध्यान होता है क्या कृषि के विकास पर और गरीबी हटाने पर भी उतना ही ध्यान होता है क्या ?
सांसद ऐसा क्या खाते और पहनते हैं कि इन्हें लाखों रूपए की सैलरी भी कम पड़ जाती है!
दूसरी ओर किसान मजदूर जिनकी 100 Rs भी दैनिक आय निश्चित नहीं होती फिर भी वो लोग स्वाभिमान से जी लेते हैं ये सांसद और सरकारी कर्मचारी हजारों लाखों रूपए सैलरी पाने के बाद भी सैलरी रोना रोया करते हैं आखिर क्या है इनका आदर्श और लोग क्या इनसे प्रेरणा लेंगे !दूसरी ओर किसान और मजदूर मिट्टी खाकर अपना पेट भरते हैं क्या ?या उनकी दवा के लिए सरकार की कोई स्पेशल व्यवस्था है या वो बीमार नहीं होते या उनके बच्चों की पढ़ाई के लिए कोई विशेष सुविधा है या उनके बीबी बच्चों को अच्छा खाने पहनने का शौक नहीं होता !खैर !कुलमिलाकर ये ढंग ठीक नहीं है !
दूसरी ओर किसान मजदूर जिनकी 100 Rs भी दैनिक आय निश्चित नहीं होती फिर भी वो लोग स्वाभिमान से जी लेते हैं ये सांसद और सरकारी कर्मचारी हजारों लाखों रूपए सैलरी पाने के बाद भी सैलरी रोना रोया करते हैं आखिर क्या है इनका आदर्श और लोग क्या इनसे प्रेरणा लेंगे !दूसरी ओर किसान और मजदूर मिट्टी खाकर अपना पेट भरते हैं क्या ?या उनकी दवा के लिए सरकार की कोई स्पेशल व्यवस्था है या वो बीमार नहीं होते या उनके बच्चों की पढ़ाई के लिए कोई विशेष सुविधा है या उनके बीबी बच्चों को अच्छा खाने पहनने का शौक नहीं होता !खैर !कुलमिलाकर ये ढंग ठीक नहीं है !
देश की जनता को क्यों देखा जाता है इतनी दीनता पूर्ण नजर से !
किसानों मजदूरों सहित देश की सभी जनता के विकास के लिए होने वाले चुनावों का पाँच वर्षीय कार्यकाल केवल कुछ नेताओं का विकास करते करते बीत जाता है तभी तो विकास भी केवल नेताओं का ही दिखता है बाकी जनता का विकास तो जब किया ही नहीं जाता तो दिखे क्या !
राजनीति में घुसते समय कौड़ियों के नेता पाँच वर्ष में करोड़ों अरबों में खेलने लगते हैं !
सांसद कहने को तो चौकीदार हैं और जनता मालिक है !किंतु क्या ये सच है ?
बंधुओ ! जब चौकीदार मालामाल होता जा रहा हो और मालिक कंगाली के कारण छीछालेदर भोगने पर मजबूर हो !और जब मालिक से चौकीदार की संपत्ति बढ़ने लगे तब दाल में कुछ काला जरूर होता है !
बंधुओ ! जब चौकीदार मालामाल होता जा रहा हो और मालिक कंगाली के कारण छीछालेदर भोगने पर मजबूर हो !और जब मालिक से चौकीदार की संपत्ति बढ़ने लगे तब दाल में कुछ काला जरूर होता है !
देश वासियों को खुश करने के लिए कहते हैं कि जनता देश की मालिक है और ये जनता के चौकीदार हैं किंतु जनता कंगाल होती जा रही है और ये मालामाल!ऐसा कहीं होता है क्या कि चौकीदार मालामाल होता जा रहा हो और मालिक की छीछालेदर होती जा रही हो ?और जब मालिक से चौकीदार की संपत्ति बढ़ने लगे तब दाल में कुछ काला जरूर होता है !बंधुओ !जब चौकीदार जब स्वार्थ लोलुप हो जाए केवल अपने और
अपनों को देखने लगे तो फिर चौकीदार बदलदेने में ही भलाई होती है क्या
दुर्भाग्य है हम देशवासियों का !हमें धिक्कार है !!
'सांसदों का बेतन बढ़ेगा !'
'अंधा बाँटे रेवड़ी अपने अपने को देय '
किंतु इसमें नया क्या है ये सतयुग तो है नहीं जो प्रजापालन में ईमानदारी बरतना जरूरी हो ये तो कलियुग है इसमें तो पाप बढ़ना ही है यही
तो विकृति है ! जो खुद कमाए खुद खाए ये 'प्रकृति' खुद कमाए दूसरों को
खिलाए ये 'संस्कृति' और दूसरे कमाएँ और खुद खाए यही तो ' विकृति ' है
हमारे नेता विकृति के शिकार हैं जनता कमाए सांसद खाएँ ! इनकी कैंटीन में
सस्ता भोजन मिले !ये वो सांसद हैं जिन्होंने अपने को जनसेवक बताया था ये वही सेवा है क्या ?सेवा के बदले कुछ न लिया जाता है न लेने की इच्छा होती है वहाँ तो
केवल समर्पण होता है - भरत जी कहते हैं कि 'सबते सेवक धर्म कठोरा '
'सेवा
धर्मों परम गहनों योगिनामप्यगम्यः',,
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