विज्ञान के नाम पर वायु प्रदूषण के विषय में भ्रम-
वास्तव में यदि मौसम के विषय में कोई ऐसा विज्ञान है जिसके द्वारा वायु
प्रदूषण बढ़ने का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है !तो उस विषय के वैज्ञानिकों
के द्वारा इस बिषय से संबंधित पूर्वानुमान अवश्य उपलब्ध कराए जाने चाहिए
!जिसमें वायु प्रदूषण कब
बढ़ेगा और कितने समय तक बढ़ा हुआ रहेगा आदि की भविष्यवाणी आगे से आगे उपलब्ध करवाते रहना चाहिए !
मौसमी भविष्यवक्ता यदि मानते हैं कि वायु प्रदूषण
मनुष्यकृत है तो वैज्ञानिकों के द्वारा सरकार और जनता को बताया जाए कि
सरकार क्या करे और जनता को क्या करना चाहिए जिससे वायु प्रदूषण घटेगा
?सरकार और जनता उसका पालन करके वायु प्रदूषण घटाने का प्रयास कर लेंगे
!किंतु मेरी जानकारी के अनुशार इस विषय में वैज्ञानिक अभी तक निश्चय पूर्वक ऐसा कुछ भी बता नहीं पाए हैं कि जिससे
सरकार और जनता का मन मजबूत हो सके कि जब जब प्रदूषण बढ़ेगा तब तब ऐसे
प्रयास करके वायु प्रदूषण को नियंत्रित कर लिया जाएगा !
इस विषय में
दिशा बिहीनता की स्थिति ये है कि वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए दोषी मानकर कुछ
लोगों के चालान किए जा रहे होते हैं और कुछ लोगों पर जुर्माना
लगाया जाता है कुछ लोगों की फैक्ट्रियाँ सील की जाती हैं कुछ लोगों का
मकान बनना बंद कराया जाता है तो कुछ का पराली जलाना बंद करा रहे होते हैं
!ऐसे ही आधार विहीन आरोप लगाकर
लोगों को दोषी मान लिया जाता है और दोषियों के विरुद्ध कार्यवाही कर दी
जाती है !किंतु मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा आज तक इस बात का निर्णय नहीं किया जा
सका कि वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए जिम्मेदार वास्तविक कारण क्या हैं ?
एक और बात है कि वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए जो जिम्मेदार कारण गिनाए जाते हैं वो न्यूनाधिक रूप में बहुत सारे देशों में पाए जाते हैं किंतु प्रदूषण से परेशान देशों की संख्या लगभग निश्चित है इसका कारण क्या है !इसके अतिरिक्त एक और ध्यान देने की बात है कि वायुप्रदूषण के कारण जो भी हों किंतु ये बढ़ता तो धीरे धीरे ही है और घटता भी धीरे धीरे ही है ऐसी परिस्थिति में इसके बढ़ने घटने का पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया जा सकता है !
एक और बात है कि वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए जो जिम्मेदार कारण गिनाए जाते हैं वो न्यूनाधिक रूप में बहुत सारे देशों में पाए जाते हैं किंतु प्रदूषण से परेशान देशों की संख्या लगभग निश्चित है इसका कारण क्या है !इसके अतिरिक्त एक और ध्यान देने की बात है कि वायुप्रदूषण के कारण जो भी हों किंतु ये बढ़ता तो धीरे धीरे ही है और घटता भी धीरे धीरे ही है ऐसी परिस्थिति में इसके बढ़ने घटने का पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया जा सकता है !
आश्चर्य की बात तो यह है कि वैज्ञानिक अनुसंधान होते इतने वर्ष बीत गए
अभी तक इस बात का भी निर्णय नहीं हो सका है कि वायुप्रदूषण बढ़ने के कारण
प्राकृतिक हैं या मनुष्यकृत हैं!प्राकृतिक हैं तो पूर्वानुमान लगाना कठिन
क्यों है और मनुष्यकृत हैं तो वायु प्रदूषण बढ़ने के कारणों के विषय में
इतना भ्रम क्यों है ?
इस विषय में सरकारों के द्वारा अभीतक की गई वैज्ञानिक तैयारियाँ जनता
की अपेक्षाओं से बहुत दूर रही हैं !ऐसी परिस्थिति में सरकार जनता से कोई
उम्मींद कैसे कर
सकती है !यदि तीर
तुक्के ही लगाने हैं तो ऐसे संसाधनों पर जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई से
प्राप्तधन को इस प्रकार से बहाया क्यों जा रहा है ?
जनता अपने खून पसीने की कमाई से जो धन टैक्स रूप में सरकार को देती है
जिससे सैलरी समेत समस्त सुख सुविधाएँ एवं शोधसंसाधन सरकार मौसम पर
अनुसंधान करने वालों को उपलब्ध करवाती है!ऐसे में जनता का केवल इतना उद्देश्य होता है कि वो लोग केवल इतना बता दें कि वायु
प्रदूषण बढ़ेगा कब से कब तक !दूसरी बात वायु प्रदूषण बढ़ने का कारण क्या है ?
दुर्भाग्य से अनुसंधान करने वालों पर धन तो पूरा खर्च होता है किंतु
उस प्रकार के परिणाम जनता को प्राप्त नहीं हो पाते हैं ! जिसकारण ये भयावह स्थिति पैदा हुई है !
वायु प्रदूषण के कारण और निवारण की प्रक्रिया -
बताया जाता है कि जिस प्रकार से स्वाँस लेते समय वायु में मिले हुए धूलकण
भी नाक के अंदर
जाने लगते हैं किंतु नाक में मौजूद छोटे-छोटे बाल उन धूलकणों को रोक लेते
हैं एवं नाक में स्थित चिपचिपा पदार्थ उन्हें अपने में चिपका लेता है और
हवा शुद्ध होकर अंदर जाती है !इसी प्रकार से प्राकृतिक वातावरण में
विद्यमान वायु
में व्याप्त धूल कणों को वृक्ष लताएँ झाड़ आदि अपनी पत्तियों में
फँसाकर रोक लेते हैं जिससे वायु की सफाई हुआ करती है !इसी प्रकार से नदियाँ
नहरें झीलें तालाब आदि अपनी नमी में वायु में विद्यमान कणों को चिपका कर
वायु शोधन किया
करते हैं !नदियों नहरों तालाबों झीलों आदि में जल की मात्रा घटने से तथा
पेड़ पौधों के अधिक काटे जाने के कारण इनसे वायु शोधन में उस प्रकार का
सहयोग नहीं मिल पाता है जितना कि आवश्यक होता है !वायु प्रदूषण बढ़ने का एक
कारण यह भी बताया जाता है !हो सकता है इस अनुसंधानिक जुगाड़ में भी कुछ
सच्चाई हो !
प्राकृतिक आपदाओं का पूर्वानुमान पता न लगने से हुआ है अधिक नुकसान !
वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान आदि के लिए भविष्यवाणी करने वाले लोगों के द्वारा की गई मौसम संबंधी अधिकाँश भविष्यवाणियाँ गलत होते देखी जाती हैं जिसके कारण मौसमी भविष्यवक्ताओं को समाज की आलोचनाएँ उपहास आदि सहने पड़ते रहे हैं !इसलिए जलवायुपरिवर्तन ग्लोबलवार्मिंग जैसे शब्दों की परिकल्पना की गई है जिनका समय समय पर उपयोग किया जाता है !मौसम संबंधी भविष्यवाणियों के नाम पर जो भी तीर तुक्के लगाए जाते हैं उनमें से जितने सही निकल जाते हैं उन्हें भविष्यवाणी मान लिया जाता है और जो गलत निकल जाते हैं उनके लिए जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग घटनाओं को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है !
जलवायु परिवर्तन के लक्षण -
बताया जाता है कि पिघलते ग्लेशियर, दहकती ग्रीष्म, दरकती धरती, उफनते समुद्र,फटते बादल घटते जंगल आदि जलवायु परिवर्तन के लक्षण हैं !इसके कारण गिनाते हुए बताया जाता है कि जलवायु परिवर्तन प्रकृति के अंधाधुंध दोहन का परिणाम है प्रकृति के अनैतिक और अनुचित दोहन से पृथ्वी की जलवायु पर निरंतर दबाव बढ़ता जा रहा है और यही कारण है विश्व में चक्रवातों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।
वैज्ञानिकों का दावा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण उष्णकटिबंधीय महासागरों का तापमान बढ़ने से सदी के अंत में बारिश के साथ भयंकर बारिश और तूफान आने की दर बढ़ सकती है।वैज्ञानिकों का कहना है कि बहुत घबराने की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचने के उपाय भी किए जा रहे हैं।"
ग्लोबलवार्मिंग-
ग्लोबलवार्मिंग का मतलब है पृथ्वी का तापमान बढ़ना !"धरती गरमाने के लिये ग्रीन हाउस गैसें उत्तरदायी बताई जाती हैं ! इन गैसों में कार्बन डाइआक्साईड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन ( सी.एफ.सी.), नाईट्रिक ऑक्साइड व मीथेन प्रमुख हैं। सूर्य की किरणें जब पृथ्वी पर पहुँचती हैं तो अधिकाँश किरणें धरती स्वयं सोख लेती है और शेष किरणों को ग्रीन हाउस गैस सतह से कुछ ऊँचाई पर बंदी बना लेती हैं।जिससे पृथ्वी का तापमान बढ़ जाता है।वायुमंडल में लगभग 15 से 25 किलोमीटर की दूरी पर समताप मंडल में इन गैसों के अणु ओजोन से ऑक्सीजन के परमाणु छीन लेते हैं और ओजोन परत में छेद कर देते हैं जिससे सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणें लोगों को झुलसाने लगती हैं। विश्व स्तर पर सुनिश्चित किया जा चुका है कि सी.एफ.सी. से निकलने वाला क्लोरीन का एक परमाणु शृंखला अभिक्रिया के परिणामस्वरूप ओजोन के 10000 परमाणुओं को नष्ट कर देता है।"
इसी विषय में दूसरी जगह ये भी पढ़ने को मिला -"वायुमण्डलीय तापमान में बढ़ रहे असंतुलन का खामियाजा मनुष्य ही नहीं पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी भुगत रहे हैं। पशुओं और पेड़-पौधेां की 11000 प्रजातियाँ या तो समाप्त हो चुकी हैं या समाप्त होने के कगार पर पहुँच गयी हैं। प्रतिवर्ष ग्लोबल वार्मिंग में 15 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र नष्ट हो जाता है।
‘वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट’ की एक रिपोर्ट के अनुसार धरती का तापमान लगातार बढ़ने से समुद्र का जलस्तर धीरे-धीरे ऊँचा उठ रहा है। पिछले 50 वर्षों में अंटार्कटिक प्रायद्वीप का 8000 वर्ग किलोमीटर का बर्फ का क्षेत्रफल पिघलकर पानी बन चुका है। पिछले 100 वर्षों के दौरान समुद्र का जलस्तर लगभग 18 सेंटीमीटर ऊँचा उठा है। इस समय यह स्तर प्रतिवर्ष 0.1 से 0.3 सेंटीमीटर के हिसाब से बढ़ रहा है। समुद्र जलस्तर यदि इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो अगले 100 वर्षों में दुनिया के 50 प्रतिशत समुद्रतटीय क्षेत्र डूब जायेंगे।
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के अनुसार अगर ग्लोबल वार्मिंग इसी तरह बढ़ता रहा तो भारत में बर्फ पिघलने के कारण गोवा के आस-पास समुद्र का जलस्तर 46 से 58 सेमी, तक बढ़ जाएगा। परिणामस्वरूप गोवा और आंध्रप्रदेश के समुद्र के किनारे के 5 से 10 प्रतिशत क्षेत्र डूब जायेंगे।
समस्त विश्व में वर्ष 1998 को सबसे गर्म एवं वर्ष 2000 को द्वितीय गर्म वर्ष आँका गया है। पश्चिमी अमेरिका की वर्ष 2002 की आग पिछले 50 वर्षों में किसी भी वनक्षेत्र में लगी आग से ज्यादा भयंकर थी। बढ़ते तापमान के चलते सात मिलियन एकड़ का वन क्षेत्र आग में झुलस गया।
आज हमारी धरती तापयुग के जिस मुहाने पर खड़ी है, उस विभीषिका का अनुमान काफी पहले से ही किया जाने लगा था। इस तरह की आशंका सर्वप्रथम बीसवीं सदी के प्रारंभ में आर्हीनियस एवं थामस सी. चेम्बरलीन नामक दो वैज्ञानिकों ने की थी। किन्तु दुर्भाग्यवश इसका अध्ययन 1958 से ही शुरू हो पाया। तब से कार्बन डाइऑक्साइड की सघनता को विधिवत रिकॉर्ड रखा जाने लगा। भूमंडल के गरमाने के ठोस सबूत 1988 से मिलने शुरू हुए। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस स्टीज के जेम्स ई.हेन्सन ने 1960 से लेकर 20वीं सदी के अन्त तक के आंकड़ों से निष्कर्ष निकाला है कि इस बीच धरती का औसत तापमान 0.5 से 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है।"
'इन दोनों लेखों में मुझे जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात लगी वो ये कि 20 वीं सदी के प्रारंभ में ग्लोबलवार्मिंग की आशंका हुई 1958 ईस्वी में इसके विषय में अध्ययन प्रारंभ हो पाया तब से कार्बन डाइऑक्साइड की सघनता को विधिवत रिकॉर्ड रखा जाने लगा किंतु भूमंडल के गरमाने के ठोस सबूत 1988 से मिलने शुरू हुए।जिसके आधार पर 1960 से लेकर 20वीं सदी के अन्त तक के आंकड़ों से निष्कर्ष निकाल लिया गया कि इस बीच धरती का औसत तापमान 0.5 से 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है।"
इसके आधार पर ये निष्कर्ष निकाल लिया गया कि "धरती का तापमान लगातार बढ़ने से समुद्र का जलस्तर धीरे-धीरे ऊँचा उठ रहा है। पिछले 50 वर्षों में अंटार्कटिक प्रायद्वीप का 8000 वर्ग किलोमीटर का बर्फ का क्षेत्रफल पिघलकर पानी बन चुका है। पिछले 100 वर्षों के दौरान समुद्र का जलस्तर लगभग 18 सेंटीमीटर ऊँचा उठा है। इस समय यह स्तर प्रतिवर्ष 0.1 से 0.3 सेंटीमीटर के हिसाब से बढ़ रहा है। समुद्र जलस्तर यदि इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो अगले 100 वर्षों में दुनिया के 50 प्रतिशत समुद्रतटीय क्षेत्र डूब जायेंगे।"
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के अनुसार -"अगर ग्लोबल वार्मिंग इसी तरह बढ़ता रहा तो भारत में बर्फ पिघलने के कारण गोवा के आस-पास समुद्र का जलस्तर 46 से 58 सेमी, तक बढ़ जाएगा। परिणामस्वरूप गोवा और आंध्रप्रदेश के समुद्र के किनारे के 5 से 10 प्रतिशत क्षेत्र डूब जायेंगे।"
इसके अलावा यह भी माना गया-"समस्त विश्व में वर्ष 1998 को सबसे गर्म एवं वर्ष 2000 को द्वितीय गर्म वर्ष आंका गया है। पश्चिमी अमेरिका की वर्ष 2002 की आग पिछले 50 वर्षों में किसी भी वनक्षेत्र में लगी आग से ज्यादा भयंकर थी। बढ़ते तापमान के चलते सात मिलियन एकड़ का वन क्षेत्र आग में झुलस गया।"
इस विषय में समयवैज्ञानिक होने के नाते मेरी सलाह केवल इतनी है कि ग्लोबलवार्मिंग जैसे विषयों में अभी तक वैज्ञानिकों के द्वारा कोई ठोस सबूत प्रस्तुत नहीं किए जा सके हैं कुछ थोथे काल्पनिक आँकड़ों के आधार पर इतनी बड़ी बड़ी बातें फेंकी जा रही हैं जिसमें विज्ञान जैसा तो कुछ है ही नहीं सामान्य तर्क करने पर भी कुछ साक्ष्य सामने नहीं रखे जा सकते हैं !
विचारणीय विषय यह है कि इस ब्रह्माण्ड की आयु अरबों वर्ष की है तब से ये सृष्टि ऐसी ही चली आ रही है आज तक इसका बाल भी बाँका नहीं हुआ है !दूसरी ओर 1958 में जिन वैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिंग का अध्ययन क्या प्रारंभ किया !उन्हें भूमंडल के गरमाने के ठोस सबूत 1988 से मिलने शुरू हुए।जिसके आधार पर उन्होंने 1960 से लेकर 20वीं सदी के अन्त तक के आंकड़ों से निष्कर्ष निकाल लिया कि इस बीच धरती का औसत तापमान 0.5 से 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है।"क्या ये जल्दबाजी नहीं है !
अरबों वर्ष से चली आ रही सृष्टि के स्वभाव को समझना इस अत्यंत छोटे से काल खंड में कैसे संभव है !इसी में आशंका हुई इसी में अध्ययन भी शरू हो गया और इसी में आंकड़े भी जुटा लिए गए और निष्कर्ष भी निकाल लिया गया तथा उसके आधार पर इतनी बड़ी बड़ी डरावनी भविष्यवाणियाँ भी कर दी गईं !मैं समयवैज्ञानिक होने के नाते यह कह सकता हूँ कि ऐसी घटनाओं का सीधा संबंध समय से है इसलिए समय संबंधी विषयों की व्याख्या करते समय इतना उतावलापन ठीक नहीं है उसके आधारपर किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुँचे बिना डरावनी भविष्यवाणियाँ करना तो कतई ठीक नहीं है जैसा कि अक्सर देखने सुनने को मिला करता है !जो गलत है !
इस विषय में हमारा दूसरा बिचार यह भी है कि " सृष्टि का स्वभाव जैसा करोड़ों अरबों वर्षों से चला आ रहा है वैसा ही आज भी है समय के साथ साथ होने वाले छुट पुट परिवर्तनों के होते रहने पर उनका आपसी तारतम्य प्रकृति स्वयं साथ साथ बैठाती चल रही है ये तो हमेंशा से चला आ रहा है!फिर ये सोचना कि गर्मी बढ़ने से बर्फ पिघलना शुरू हो जाएगा ऐसा निश्चय कैसे मान लिया जाए !हो न हो समय के प्रभाव से ग्लोबल वार्मिंग यदि बढ़े भी तो समय का असर बर्फ पर भी पड़े और बर्फ के स्वभाव में भी बदलाव आवे इस कारण उतनी गर्मी सहने की सामर्थ्य उसमें स्वतः ही पैदा हो जाए !
प्रकृति यदि किसी को अंधा बनाती है तो उसकी बाकी इन्द्रियों की सामर्थ्य अधिक बढ़ते देखी जाती है इसीलिए ऐसे लोग सारे काम बहुत अच्छे ढंग से करते देखे जाते हैं ऐसे ही अन्य अंगों के अभाव में भी देखा जाता है !
इसी प्रकार से जो लोग बहुत ठंडे प्रदेशों में रहते रहे हों और अचानक किसी गर्म प्रदेश में रहने चले जाएँ तो रोगी हो जाएँगे किंतु कुछ वर्ष तक वहाँ वैसी ही परिस्थिति में रहते रहें तो उनका शरीर भी उस परिस्थिति को सहने का अभ्यासी हो जाएगा और वो उसमें आनंदित रहने लगेगा !परिस्थितियों के अनुशार प्रकृति के सभी अंगों में एक समान क्रमिक परिवर्तन होते देखे जाते हैं !प्रकृति स्वयं संतुलन बैठाती चलती है !
इसलिए ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने के विषय में ये कहना कि "वायुमण्डलीय तापमान में बढ़ रहे असंतुलन का खामियाजा मनुष्य ही नहीं पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी भुगत रहे हैं। पशुओं और पेड़-पौधेां की 11000 प्रजातियाँ या तो समाप्त हो चुकी हैं या समाप्त होने के कगार पर पहुँच गयी हैं। प्रतिवर्ष ग्लोबल वार्मिंग में 15 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र नष्ट हो जाता है।" ये तथ्यपरक तर्कसंगत एवं विश्वास करने योग्य नहीं माना जा सकता है !
इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि -"समस्त विश्व में वर्ष 1998 को सबसे गर्म एवं वर्ष 2000 को द्वितीय गर्म वर्ष आंका गया है। पश्चिमी अमेरिका की वर्ष 2002 की आग पिछले 50 वर्षों में किसी भी वनक्षेत्र में लगी आग से ज्यादा भयंकर थी। बढ़ते तापमान के चलते सात मिलियन एकड़ का वन क्षेत्र आग में झुलस गया।"
यदि ऐसा होता तो वर्ष 1998 और वर्ष 2000 ही सबसे गर्म क्यों होता वो गर्मी तो क्रमिक रूप से बढ़ती जानी चाहिए थी !दूसरी बात वो केवल अमेरिका के बन क्षेत्र में ही क्यों लगती और भी जहाँ कहीं बन क्षेत्र हैं उनमें भी लगती उतनी भयंकर न लगती तो कुछ कम ज्यादा लगती किंतु सब जगह ऐसा होता हुआ तो नहीं देखा गया !इसलिए जो घटना ग्लोबलरूप में घटी ही नहीं उसे ग्लोबलवार्मिंग का परिणाम कैसे माना जा सकता है !
दूसरी बात यदि अमेरिका के किसी क्षेत्र में आग लग जाती है तो उसका कारण यदि ग्लोबलवार्मिंग को माना जा सकता है तो जब उसी अमेरिका में तापमान इतना अधिक गिर जाता है कि सभी जगह बर्फ जम जाती है तो उस पर ग्लोबल वार्मिंग का असर होते क्यों नहीं दिखाई पड़ता है!इसलिए कहा जा सकता है कि इस प्रकार की ग्लोबल वार्मिंग जैसी परिकल्पना ही आधार विहीन और अविश्वसनीय तथ्यों पर आधारित है !
यहाँ विशेष बात ये है कि प्रकृति में होने वाले सभी प्रकार के प्राकृतिक परिवर्तनों में भी एक क्रमिक लय होती है !जैसे प्रातःकाल सबेरा होता है तब सूर्य का प्रकाश और तेज कम होता है उसके बाद दोपहर तक क्रमशः बढ़ता जाता है और दोपहर के बाद क्रमशः घटता चला जाता है !ये नियम है और हमेंशा से यही होता चला आ रहा है और यही क्रम आगे भी चलता रहेगा !ऐसा ही होगा ये निश्चय है !प्रकृति के नियम से जो परिचित हैं उन्हें ऐसा विश्वास भी है और यही सच्चाई है !
प्रकृति के इस नियम से अपरिचित कोई भी वैज्ञानिक वर्तमान ग्लोबल वार्मिंग पद्धति से इसी बात पर यदि रिसर्च करने को उतावला हो और वह प्रातः 10 ,11और 12 बजे के तापमान के सैंपल उठाकर उनका परीक्षण करके निष्कर्ष निकालना चाह ले तो तापमान क्रमशः बढ़ता दिखाई देगा!10 बजे से 11बजे का तापमान अधिक होगा और 11 बजे से 12 बजे का तापमान अधिक होगा !इसके आधार पर ग्लोबल वार्मिंग पद्धति से अनुमान लगाया जाए तब तो दिन के 12 बजे की अपेक्षा 13, 14 ,15 बजे से लेकर रात्रि में 24 बजे तक तापमान इतना अधिक बढ़ जाएगा कि दिन 12 बजे की अपेक्षा रात्रि 24 बजे का तापमान तो दो गुणा हो जाएगा !इसके बाद अगले दिन का तापमान तो और अधिक हो जाएगा जैसे जैसे समय आगे बढ़ते जाएगा वैसे वैसे तापमान भी बढ़ता चला जाएगा ! इस परिस्थिति का अध्ययन भी यदि आधुनिक ग्लोबल वार्मिंग प्रक्रिया से किया जाए तब तो महीने दो महीने में ही महाप्रलय होने की भविष्यवाणी की जा सकती है !जो ग्लोबलवार्मिंग की तरह ही गलत होगी !
जिस प्रकार से दिन के तापमान के बढ़ने घटने के क्रम को समझना है तो किसी संपूर्ण दिन के तापमान का डेटा जुटाना होगा उसके आधार पर ये जाना जा सकेगा कि दिन और रात का तापमान कब कितना बढ़ता है और कब कितना घटता है !यदि कुछ दिनों के तापमान के डेटा का संग्रह किया जाए तो इसमें कुछ और नए अनुभव मिलेंगे !किसी दिन बादल होगा किसी दिन वर्षा होगी किसी दिन हवा चल रही होगी ऐसी तीनों परिस्थितियों का असर तापमान के बढ़ने घटने पर पड़ना स्वाभाविक ही है !यही डेटा यदि एक वर्ष का लिया जाए तो उसमें सर्दी गर्मी और वर्षात जैसी ऋतुएँ भी आएँगी जाएँगी तापमान पर उनका भी असर पड़ेगा ऐसी परिस्थिति में जितने लंबे समय तक के डेटा का संग्रह किया जाएगा उसके आधार पर अध्ययन करने और निष्कर्ष निकालने में उतनी अधिक सुविधा होगी !
यहाँ तो करोड़ों अरबों वर्ष पहले से चले आ रहे सृष्टि क्रम को समझे बिना 1958 में ग्लोबल वार्मिंग जैसे विषयों पर अध्ययन शुरू किया गया और 1988 से भूमंडल के गरमाने के सबूत मिलने शुरू हुए और दो हजार पहुँचते पहुँचते निष्कर्ष निकाल लिया गया कि भूमंडल के गरम हो रहा है इससे होने वाले काल्पनिक विनाश की लगे हाथ भविष्यवाणी भी कर दी गई !जहाँ जहाँ आग लगी या गर्मी बढ़ी उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया !प्रकृति संबंधी अनुसंधानों के विषय में इतना उतावलापन और गंभीरता का इतना अभाव !
करोड़ों अरबों वर्ष पहले बनी सृष्टि जो तबसे अभी तक उसी स्वरूप में चली आ रही है प्रकृति में समय के साथ साथ अनेकों प्रकार के छोटे बड़े बदलाव भी होते रहे हैं सूर्य चंद्र और हवा का प्रभाव न्यूनाधिक होने से प्रकृति में तमाम प्रकार की घटनाएँ घटित होती रही हैं सूर्य का प्रभाव बढ़ा तो गर्मी बढ़ी और चंद्र का प्रभाव बढ़ने से ठंढक बढ़ती है !इसके अलावा भी ठंडी तब बढ़ पाती है जब गर्मी का प्रभाव घटता है इसी प्रकार से गर्मी तब बढ़ पाती है जब ठंढी का प्रभाव बढ़ता है !अकेले गर्मी नहीं बढ़ सकती है तो फिर ग्लोबल वार्मिंग के नाम से केवल गर्मी बढ़ी तो प्रश्न ये भी उठता है कि ठंडी घटने का कारण क्या है !कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ क्षेत्रों में सर्दी की ऋतु में होने वाली भीषण वर्फवारी के माध्यम से प्रकृति स्वतः तापमान घटाकर संतुलन बनाने का प्रयास कर रही हो !जो वैसे भी प्रकृति समय समय पर किया करती है !गर्मी की ऋतु में बढ़े हुए तापमान को वर्षा ऋतु शांत करती है उसके बाद सर्दी बढ़ती जाती है तो प्रकृति ग्रीष्म ऋतु के माध्यम से सर्दी के वेग को शांत कर लेती है !इस प्रकार से सुधार और संतुलन बनाने की व्यवस्था प्रकृति में ही विद्यमान है उसी हिसाब से प्रकृति का चक्र बना हुआ है !ऐसी परिस्थिति में ग्लोबल वार्मिंग आदि को नियंत्रित करने की व्यवस्था प्रकृति में नहीं होगी ऐसा सोचना अज्ञान जनक है !दूसरी बात यह सोचना कि ग्लोबल वार्मिंग जैसी कोई परिस्थिति यदि पैदा भी हो रही हो तो उसका कारण मनुष्य आदि समस्त जीव जंतुओं के द्वारा किया गया कोई प्रयास होगा ये सबसे बढ़ा भ्रम है उससे भी बड़ा भ्रम यह है कि तथा कथित ग्लोबल वार्मिंग जैसी परिस्थिति को मनुष्यकृत प्रयासों से नियंत्रित किया जा सकता है !प्रकृति के रुख को मोड़ पाना मनुष्यों के बश की बात नहीं है !सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं का कारण और निवारण कोई न कोई प्राकृतिक घटना ही कर सकती है !कहावत है कि हाथी की लात केवल हाथी ही सह सकता है दूसरा कोई नहीं !प्राकृतिक परिस्थितियाँ असीम शक्तिशाली होती हैं उन पर अंकुश कोई मनुष्य कैसे लगा सकता है !
इसलिए यदि आधिनिक वैज्ञानिकों को लगता ही है कि ग्लोबल वार्मिंग जैसी कोई घटना घटित हो ही रही है तो उन्हें बिना समय गँवाए इसका कारण प्राकृतिक परिस्थितियों में ही खोजना चाहिए !कई बार ये कारण इतने गूढ़ होते हैं कि दिखाई नहीं पड़ते हैं और आसानी से समझ में नहीं आते हैं !आदि काल में चंद्र और सूर्य ग्रहण जब घटित हुए होंगे तो इनके घटित होने का कारण देख पाना मनुष्य के बश की बात नहीं है !क्योंकि चंद्रग्रहण में सूर्य और चंद्र के बीच वो पृथ्वी होती है जिस पर मनुष्य रह रहा होता है इतनी बड़ी कल्पना वो कैसे कर सकता था कि इसी सीध में इसके नीचे सूर्य होगा उससे उत्पन्न परछाया ही हमें चंद्र में ग्रहण रूप में दिखाई पड़ रही है !
इसी प्रकार से सूर्य ग्रहण में उस ग्रहण के घटित होने का मुख्य कारण चंद्र कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा होता है फिर भी पूर्वजों ने न केवल उस ग्रहण के कारण को खोजा अपितु ग्रहणों के पूर्वानुमान सैकड़ों वर्ष पहले लगा लेने की सफलता भी हासिल की !वो वास्तव में वैज्ञानिक थे तथा उनके अनुसंधान को वास्तव में अनुसंधान मानने में गर्व होता है !
प्राकृतिक आपदाओं का पूर्वानुमान पता न लगने से हुआ है अधिक नुकसान !
वर्षा बाढ़ सूखा आँधी तूफ़ान आदि के लिए भविष्यवाणी करने वाले लोगों के द्वारा की गई मौसम संबंधी अधिकाँश भविष्यवाणियाँ गलत होते देखी जाती हैं जिसके कारण मौसमी भविष्यवक्ताओं को समाज की आलोचनाएँ उपहास आदि सहने पड़ते रहे हैं !इसलिए जलवायुपरिवर्तन ग्लोबलवार्मिंग जैसे शब्दों की परिकल्पना की गई है जिनका समय समय पर उपयोग किया जाता है !मौसम संबंधी भविष्यवाणियों के नाम पर जो भी तीर तुक्के लगाए जाते हैं उनमें से जितने सही निकल जाते हैं उन्हें भविष्यवाणी मान लिया जाता है और जो गलत निकल जाते हैं उनके लिए जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग घटनाओं को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है !
जलवायु परिवर्तन के लक्षण -
बताया जाता है कि पिघलते ग्लेशियर, दहकती ग्रीष्म, दरकती धरती, उफनते समुद्र,फटते बादल घटते जंगल आदि जलवायु परिवर्तन के लक्षण हैं !इसके कारण गिनाते हुए बताया जाता है कि जलवायु परिवर्तन प्रकृति के अंधाधुंध दोहन का परिणाम है प्रकृति के अनैतिक और अनुचित दोहन से पृथ्वी की जलवायु पर निरंतर दबाव बढ़ता जा रहा है और यही कारण है विश्व में चक्रवातों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।
वैज्ञानिकों का दावा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण उष्णकटिबंधीय महासागरों का तापमान बढ़ने से सदी के अंत में बारिश के साथ भयंकर बारिश और तूफान आने की दर बढ़ सकती है।वैज्ञानिकों का कहना है कि बहुत घबराने की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचने के उपाय भी किए जा रहे हैं।"
ग्लोबलवार्मिंग-
ग्लोबलवार्मिंग का मतलब है पृथ्वी का तापमान बढ़ना !"धरती गरमाने के लिये ग्रीन हाउस गैसें उत्तरदायी बताई जाती हैं ! इन गैसों में कार्बन डाइआक्साईड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन ( सी.एफ.सी.), नाईट्रिक ऑक्साइड व मीथेन प्रमुख हैं। सूर्य की किरणें जब पृथ्वी पर पहुँचती हैं तो अधिकाँश किरणें धरती स्वयं सोख लेती है और शेष किरणों को ग्रीन हाउस गैस सतह से कुछ ऊँचाई पर बंदी बना लेती हैं।जिससे पृथ्वी का तापमान बढ़ जाता है।वायुमंडल में लगभग 15 से 25 किलोमीटर की दूरी पर समताप मंडल में इन गैसों के अणु ओजोन से ऑक्सीजन के परमाणु छीन लेते हैं और ओजोन परत में छेद कर देते हैं जिससे सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणें लोगों को झुलसाने लगती हैं। विश्व स्तर पर सुनिश्चित किया जा चुका है कि सी.एफ.सी. से निकलने वाला क्लोरीन का एक परमाणु शृंखला अभिक्रिया के परिणामस्वरूप ओजोन के 10000 परमाणुओं को नष्ट कर देता है।"
इसी विषय में दूसरी जगह ये भी पढ़ने को मिला -"वायुमण्डलीय तापमान में बढ़ रहे असंतुलन का खामियाजा मनुष्य ही नहीं पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी भुगत रहे हैं। पशुओं और पेड़-पौधेां की 11000 प्रजातियाँ या तो समाप्त हो चुकी हैं या समाप्त होने के कगार पर पहुँच गयी हैं। प्रतिवर्ष ग्लोबल वार्मिंग में 15 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र नष्ट हो जाता है।
‘वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट’ की एक रिपोर्ट के अनुसार धरती का तापमान लगातार बढ़ने से समुद्र का जलस्तर धीरे-धीरे ऊँचा उठ रहा है। पिछले 50 वर्षों में अंटार्कटिक प्रायद्वीप का 8000 वर्ग किलोमीटर का बर्फ का क्षेत्रफल पिघलकर पानी बन चुका है। पिछले 100 वर्षों के दौरान समुद्र का जलस्तर लगभग 18 सेंटीमीटर ऊँचा उठा है। इस समय यह स्तर प्रतिवर्ष 0.1 से 0.3 सेंटीमीटर के हिसाब से बढ़ रहा है। समुद्र जलस्तर यदि इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो अगले 100 वर्षों में दुनिया के 50 प्रतिशत समुद्रतटीय क्षेत्र डूब जायेंगे।
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के अनुसार अगर ग्लोबल वार्मिंग इसी तरह बढ़ता रहा तो भारत में बर्फ पिघलने के कारण गोवा के आस-पास समुद्र का जलस्तर 46 से 58 सेमी, तक बढ़ जाएगा। परिणामस्वरूप गोवा और आंध्रप्रदेश के समुद्र के किनारे के 5 से 10 प्रतिशत क्षेत्र डूब जायेंगे।
समस्त विश्व में वर्ष 1998 को सबसे गर्म एवं वर्ष 2000 को द्वितीय गर्म वर्ष आँका गया है। पश्चिमी अमेरिका की वर्ष 2002 की आग पिछले 50 वर्षों में किसी भी वनक्षेत्र में लगी आग से ज्यादा भयंकर थी। बढ़ते तापमान के चलते सात मिलियन एकड़ का वन क्षेत्र आग में झुलस गया।
आज हमारी धरती तापयुग के जिस मुहाने पर खड़ी है, उस विभीषिका का अनुमान काफी पहले से ही किया जाने लगा था। इस तरह की आशंका सर्वप्रथम बीसवीं सदी के प्रारंभ में आर्हीनियस एवं थामस सी. चेम्बरलीन नामक दो वैज्ञानिकों ने की थी। किन्तु दुर्भाग्यवश इसका अध्ययन 1958 से ही शुरू हो पाया। तब से कार्बन डाइऑक्साइड की सघनता को विधिवत रिकॉर्ड रखा जाने लगा। भूमंडल के गरमाने के ठोस सबूत 1988 से मिलने शुरू हुए। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस स्टीज के जेम्स ई.हेन्सन ने 1960 से लेकर 20वीं सदी के अन्त तक के आंकड़ों से निष्कर्ष निकाला है कि इस बीच धरती का औसत तापमान 0.5 से 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है।"
'इन दोनों लेखों में मुझे जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात लगी वो ये कि 20 वीं सदी के प्रारंभ में ग्लोबलवार्मिंग की आशंका हुई 1958 ईस्वी में इसके विषय में अध्ययन प्रारंभ हो पाया तब से कार्बन डाइऑक्साइड की सघनता को विधिवत रिकॉर्ड रखा जाने लगा किंतु भूमंडल के गरमाने के ठोस सबूत 1988 से मिलने शुरू हुए।जिसके आधार पर 1960 से लेकर 20वीं सदी के अन्त तक के आंकड़ों से निष्कर्ष निकाल लिया गया कि इस बीच धरती का औसत तापमान 0.5 से 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है।"
इसके आधार पर ये निष्कर्ष निकाल लिया गया कि "धरती का तापमान लगातार बढ़ने से समुद्र का जलस्तर धीरे-धीरे ऊँचा उठ रहा है। पिछले 50 वर्षों में अंटार्कटिक प्रायद्वीप का 8000 वर्ग किलोमीटर का बर्फ का क्षेत्रफल पिघलकर पानी बन चुका है। पिछले 100 वर्षों के दौरान समुद्र का जलस्तर लगभग 18 सेंटीमीटर ऊँचा उठा है। इस समय यह स्तर प्रतिवर्ष 0.1 से 0.3 सेंटीमीटर के हिसाब से बढ़ रहा है। समुद्र जलस्तर यदि इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो अगले 100 वर्षों में दुनिया के 50 प्रतिशत समुद्रतटीय क्षेत्र डूब जायेंगे।"
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के अनुसार -"अगर ग्लोबल वार्मिंग इसी तरह बढ़ता रहा तो भारत में बर्फ पिघलने के कारण गोवा के आस-पास समुद्र का जलस्तर 46 से 58 सेमी, तक बढ़ जाएगा। परिणामस्वरूप गोवा और आंध्रप्रदेश के समुद्र के किनारे के 5 से 10 प्रतिशत क्षेत्र डूब जायेंगे।"
इसके अलावा यह भी माना गया-"समस्त विश्व में वर्ष 1998 को सबसे गर्म एवं वर्ष 2000 को द्वितीय गर्म वर्ष आंका गया है। पश्चिमी अमेरिका की वर्ष 2002 की आग पिछले 50 वर्षों में किसी भी वनक्षेत्र में लगी आग से ज्यादा भयंकर थी। बढ़ते तापमान के चलते सात मिलियन एकड़ का वन क्षेत्र आग में झुलस गया।"
इस विषय में समयवैज्ञानिक होने के नाते मेरी सलाह केवल इतनी है कि ग्लोबलवार्मिंग जैसे विषयों में अभी तक वैज्ञानिकों के द्वारा कोई ठोस सबूत प्रस्तुत नहीं किए जा सके हैं कुछ थोथे काल्पनिक आँकड़ों के आधार पर इतनी बड़ी बड़ी बातें फेंकी जा रही हैं जिसमें विज्ञान जैसा तो कुछ है ही नहीं सामान्य तर्क करने पर भी कुछ साक्ष्य सामने नहीं रखे जा सकते हैं !
विचारणीय विषय यह है कि इस ब्रह्माण्ड की आयु अरबों वर्ष की है तब से ये सृष्टि ऐसी ही चली आ रही है आज तक इसका बाल भी बाँका नहीं हुआ है !दूसरी ओर 1958 में जिन वैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिंग का अध्ययन क्या प्रारंभ किया !उन्हें भूमंडल के गरमाने के ठोस सबूत 1988 से मिलने शुरू हुए।जिसके आधार पर उन्होंने 1960 से लेकर 20वीं सदी के अन्त तक के आंकड़ों से निष्कर्ष निकाल लिया कि इस बीच धरती का औसत तापमान 0.5 से 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है।"क्या ये जल्दबाजी नहीं है !
अरबों वर्ष से चली आ रही सृष्टि के स्वभाव को समझना इस अत्यंत छोटे से काल खंड में कैसे संभव है !इसी में आशंका हुई इसी में अध्ययन भी शरू हो गया और इसी में आंकड़े भी जुटा लिए गए और निष्कर्ष भी निकाल लिया गया तथा उसके आधार पर इतनी बड़ी बड़ी डरावनी भविष्यवाणियाँ भी कर दी गईं !मैं समयवैज्ञानिक होने के नाते यह कह सकता हूँ कि ऐसी घटनाओं का सीधा संबंध समय से है इसलिए समय संबंधी विषयों की व्याख्या करते समय इतना उतावलापन ठीक नहीं है उसके आधारपर किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुँचे बिना डरावनी भविष्यवाणियाँ करना तो कतई ठीक नहीं है जैसा कि अक्सर देखने सुनने को मिला करता है !जो गलत है !
इस विषय में हमारा दूसरा बिचार यह भी है कि " सृष्टि का स्वभाव जैसा करोड़ों अरबों वर्षों से चला आ रहा है वैसा ही आज भी है समय के साथ साथ होने वाले छुट पुट परिवर्तनों के होते रहने पर उनका आपसी तारतम्य प्रकृति स्वयं साथ साथ बैठाती चल रही है ये तो हमेंशा से चला आ रहा है!फिर ये सोचना कि गर्मी बढ़ने से बर्फ पिघलना शुरू हो जाएगा ऐसा निश्चय कैसे मान लिया जाए !हो न हो समय के प्रभाव से ग्लोबल वार्मिंग यदि बढ़े भी तो समय का असर बर्फ पर भी पड़े और बर्फ के स्वभाव में भी बदलाव आवे इस कारण उतनी गर्मी सहने की सामर्थ्य उसमें स्वतः ही पैदा हो जाए !
प्रकृति यदि किसी को अंधा बनाती है तो उसकी बाकी इन्द्रियों की सामर्थ्य अधिक बढ़ते देखी जाती है इसीलिए ऐसे लोग सारे काम बहुत अच्छे ढंग से करते देखे जाते हैं ऐसे ही अन्य अंगों के अभाव में भी देखा जाता है !
इसी प्रकार से जो लोग बहुत ठंडे प्रदेशों में रहते रहे हों और अचानक किसी गर्म प्रदेश में रहने चले जाएँ तो रोगी हो जाएँगे किंतु कुछ वर्ष तक वहाँ वैसी ही परिस्थिति में रहते रहें तो उनका शरीर भी उस परिस्थिति को सहने का अभ्यासी हो जाएगा और वो उसमें आनंदित रहने लगेगा !परिस्थितियों के अनुशार प्रकृति के सभी अंगों में एक समान क्रमिक परिवर्तन होते देखे जाते हैं !प्रकृति स्वयं संतुलन बैठाती चलती है !
इसलिए ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने के विषय में ये कहना कि "वायुमण्डलीय तापमान में बढ़ रहे असंतुलन का खामियाजा मनुष्य ही नहीं पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी भुगत रहे हैं। पशुओं और पेड़-पौधेां की 11000 प्रजातियाँ या तो समाप्त हो चुकी हैं या समाप्त होने के कगार पर पहुँच गयी हैं। प्रतिवर्ष ग्लोबल वार्मिंग में 15 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र नष्ट हो जाता है।" ये तथ्यपरक तर्कसंगत एवं विश्वास करने योग्य नहीं माना जा सकता है !
इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि -"समस्त विश्व में वर्ष 1998 को सबसे गर्म एवं वर्ष 2000 को द्वितीय गर्म वर्ष आंका गया है। पश्चिमी अमेरिका की वर्ष 2002 की आग पिछले 50 वर्षों में किसी भी वनक्षेत्र में लगी आग से ज्यादा भयंकर थी। बढ़ते तापमान के चलते सात मिलियन एकड़ का वन क्षेत्र आग में झुलस गया।"
यदि ऐसा होता तो वर्ष 1998 और वर्ष 2000 ही सबसे गर्म क्यों होता वो गर्मी तो क्रमिक रूप से बढ़ती जानी चाहिए थी !दूसरी बात वो केवल अमेरिका के बन क्षेत्र में ही क्यों लगती और भी जहाँ कहीं बन क्षेत्र हैं उनमें भी लगती उतनी भयंकर न लगती तो कुछ कम ज्यादा लगती किंतु सब जगह ऐसा होता हुआ तो नहीं देखा गया !इसलिए जो घटना ग्लोबलरूप में घटी ही नहीं उसे ग्लोबलवार्मिंग का परिणाम कैसे माना जा सकता है !
दूसरी बात यदि अमेरिका के किसी क्षेत्र में आग लग जाती है तो उसका कारण यदि ग्लोबलवार्मिंग को माना जा सकता है तो जब उसी अमेरिका में तापमान इतना अधिक गिर जाता है कि सभी जगह बर्फ जम जाती है तो उस पर ग्लोबल वार्मिंग का असर होते क्यों नहीं दिखाई पड़ता है!इसलिए कहा जा सकता है कि इस प्रकार की ग्लोबल वार्मिंग जैसी परिकल्पना ही आधार विहीन और अविश्वसनीय तथ्यों पर आधारित है !
यहाँ विशेष बात ये है कि प्रकृति में होने वाले सभी प्रकार के प्राकृतिक परिवर्तनों में भी एक क्रमिक लय होती है !जैसे प्रातःकाल सबेरा होता है तब सूर्य का प्रकाश और तेज कम होता है उसके बाद दोपहर तक क्रमशः बढ़ता जाता है और दोपहर के बाद क्रमशः घटता चला जाता है !ये नियम है और हमेंशा से यही होता चला आ रहा है और यही क्रम आगे भी चलता रहेगा !ऐसा ही होगा ये निश्चय है !प्रकृति के नियम से जो परिचित हैं उन्हें ऐसा विश्वास भी है और यही सच्चाई है !
प्रकृति के इस नियम से अपरिचित कोई भी वैज्ञानिक वर्तमान ग्लोबल वार्मिंग पद्धति से इसी बात पर यदि रिसर्च करने को उतावला हो और वह प्रातः 10 ,11और 12 बजे के तापमान के सैंपल उठाकर उनका परीक्षण करके निष्कर्ष निकालना चाह ले तो तापमान क्रमशः बढ़ता दिखाई देगा!10 बजे से 11बजे का तापमान अधिक होगा और 11 बजे से 12 बजे का तापमान अधिक होगा !इसके आधार पर ग्लोबल वार्मिंग पद्धति से अनुमान लगाया जाए तब तो दिन के 12 बजे की अपेक्षा 13, 14 ,15 बजे से लेकर रात्रि में 24 बजे तक तापमान इतना अधिक बढ़ जाएगा कि दिन 12 बजे की अपेक्षा रात्रि 24 बजे का तापमान तो दो गुणा हो जाएगा !इसके बाद अगले दिन का तापमान तो और अधिक हो जाएगा जैसे जैसे समय आगे बढ़ते जाएगा वैसे वैसे तापमान भी बढ़ता चला जाएगा ! इस परिस्थिति का अध्ययन भी यदि आधुनिक ग्लोबल वार्मिंग प्रक्रिया से किया जाए तब तो महीने दो महीने में ही महाप्रलय होने की भविष्यवाणी की जा सकती है !जो ग्लोबलवार्मिंग की तरह ही गलत होगी !
जिस प्रकार से दिन के तापमान के बढ़ने घटने के क्रम को समझना है तो किसी संपूर्ण दिन के तापमान का डेटा जुटाना होगा उसके आधार पर ये जाना जा सकेगा कि दिन और रात का तापमान कब कितना बढ़ता है और कब कितना घटता है !यदि कुछ दिनों के तापमान के डेटा का संग्रह किया जाए तो इसमें कुछ और नए अनुभव मिलेंगे !किसी दिन बादल होगा किसी दिन वर्षा होगी किसी दिन हवा चल रही होगी ऐसी तीनों परिस्थितियों का असर तापमान के बढ़ने घटने पर पड़ना स्वाभाविक ही है !यही डेटा यदि एक वर्ष का लिया जाए तो उसमें सर्दी गर्मी और वर्षात जैसी ऋतुएँ भी आएँगी जाएँगी तापमान पर उनका भी असर पड़ेगा ऐसी परिस्थिति में जितने लंबे समय तक के डेटा का संग्रह किया जाएगा उसके आधार पर अध्ययन करने और निष्कर्ष निकालने में उतनी अधिक सुविधा होगी !
यहाँ तो करोड़ों अरबों वर्ष पहले से चले आ रहे सृष्टि क्रम को समझे बिना 1958 में ग्लोबल वार्मिंग जैसे विषयों पर अध्ययन शुरू किया गया और 1988 से भूमंडल के गरमाने के सबूत मिलने शुरू हुए और दो हजार पहुँचते पहुँचते निष्कर्ष निकाल लिया गया कि भूमंडल के गरम हो रहा है इससे होने वाले काल्पनिक विनाश की लगे हाथ भविष्यवाणी भी कर दी गई !जहाँ जहाँ आग लगी या गर्मी बढ़ी उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया !प्रकृति संबंधी अनुसंधानों के विषय में इतना उतावलापन और गंभीरता का इतना अभाव !
करोड़ों अरबों वर्ष पहले बनी सृष्टि जो तबसे अभी तक उसी स्वरूप में चली आ रही है प्रकृति में समय के साथ साथ अनेकों प्रकार के छोटे बड़े बदलाव भी होते रहे हैं सूर्य चंद्र और हवा का प्रभाव न्यूनाधिक होने से प्रकृति में तमाम प्रकार की घटनाएँ घटित होती रही हैं सूर्य का प्रभाव बढ़ा तो गर्मी बढ़ी और चंद्र का प्रभाव बढ़ने से ठंढक बढ़ती है !इसके अलावा भी ठंडी तब बढ़ पाती है जब गर्मी का प्रभाव घटता है इसी प्रकार से गर्मी तब बढ़ पाती है जब ठंढी का प्रभाव बढ़ता है !अकेले गर्मी नहीं बढ़ सकती है तो फिर ग्लोबल वार्मिंग के नाम से केवल गर्मी बढ़ी तो प्रश्न ये भी उठता है कि ठंडी घटने का कारण क्या है !कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ क्षेत्रों में सर्दी की ऋतु में होने वाली भीषण वर्फवारी के माध्यम से प्रकृति स्वतः तापमान घटाकर संतुलन बनाने का प्रयास कर रही हो !जो वैसे भी प्रकृति समय समय पर किया करती है !गर्मी की ऋतु में बढ़े हुए तापमान को वर्षा ऋतु शांत करती है उसके बाद सर्दी बढ़ती जाती है तो प्रकृति ग्रीष्म ऋतु के माध्यम से सर्दी के वेग को शांत कर लेती है !इस प्रकार से सुधार और संतुलन बनाने की व्यवस्था प्रकृति में ही विद्यमान है उसी हिसाब से प्रकृति का चक्र बना हुआ है !ऐसी परिस्थिति में ग्लोबल वार्मिंग आदि को नियंत्रित करने की व्यवस्था प्रकृति में नहीं होगी ऐसा सोचना अज्ञान जनक है !दूसरी बात यह सोचना कि ग्लोबल वार्मिंग जैसी कोई परिस्थिति यदि पैदा भी हो रही हो तो उसका कारण मनुष्य आदि समस्त जीव जंतुओं के द्वारा किया गया कोई प्रयास होगा ये सबसे बढ़ा भ्रम है उससे भी बड़ा भ्रम यह है कि तथा कथित ग्लोबल वार्मिंग जैसी परिस्थिति को मनुष्यकृत प्रयासों से नियंत्रित किया जा सकता है !प्रकृति के रुख को मोड़ पाना मनुष्यों के बश की बात नहीं है !सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं का कारण और निवारण कोई न कोई प्राकृतिक घटना ही कर सकती है !कहावत है कि हाथी की लात केवल हाथी ही सह सकता है दूसरा कोई नहीं !प्राकृतिक परिस्थितियाँ असीम शक्तिशाली होती हैं उन पर अंकुश कोई मनुष्य कैसे लगा सकता है !
इसलिए यदि आधिनिक वैज्ञानिकों को लगता ही है कि ग्लोबल वार्मिंग जैसी कोई घटना घटित हो ही रही है तो उन्हें बिना समय गँवाए इसका कारण प्राकृतिक परिस्थितियों में ही खोजना चाहिए !कई बार ये कारण इतने गूढ़ होते हैं कि दिखाई नहीं पड़ते हैं और आसानी से समझ में नहीं आते हैं !आदि काल में चंद्र और सूर्य ग्रहण जब घटित हुए होंगे तो इनके घटित होने का कारण देख पाना मनुष्य के बश की बात नहीं है !क्योंकि चंद्रग्रहण में सूर्य और चंद्र के बीच वो पृथ्वी होती है जिस पर मनुष्य रह रहा होता है इतनी बड़ी कल्पना वो कैसे कर सकता था कि इसी सीध में इसके नीचे सूर्य होगा उससे उत्पन्न परछाया ही हमें चंद्र में ग्रहण रूप में दिखाई पड़ रही है !
इसी प्रकार से सूर्य ग्रहण में उस ग्रहण के घटित होने का मुख्य कारण चंद्र कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा होता है फिर भी पूर्वजों ने न केवल उस ग्रहण के कारण को खोजा अपितु ग्रहणों के पूर्वानुमान सैकड़ों वर्ष पहले लगा लेने की सफलता भी हासिल की !वो वास्तव में वैज्ञानिक थे तथा उनके अनुसंधान को वास्तव में अनुसंधान मानने में गर्व होता है !
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