Sunday, 13 April 2014

ज्योतिष वैज्ञानिकों जैसी बोल चाल वेष भूषा वाले पाखंडियों को पहचानों !

आखिर ऐसे लोगों का उद्देश्य क्या है ?ज्योतिष शास्त्र का प्रयोग केवल फँसने फँसाने के लिए तीर तुक्का मात्र बन कर रह गया है ज्योतिष शास्त्र !

       ज्योतिष की जिन किताबों का ज्योतिष के विश्व विद्यालयीय स्लेबस में या प्राचीन ज्योतिष में कहीं  कोई उल्लेख ही नहीं है ऐसी कोई किताब है भी या नहीं, किन्तु कुछ लोगों ने सीधे साधे भारतीय समाज को केवल भ्रमित करने ही कलरों पर किताबें न केवल लिखी लिखाई  हैं अपितु अपनी सुविधानुसार बनाई या बनवाई भी हैं।जैसे लाल किताब ऐसे ही नीली,पीली,हरी ,गुलाबी आदि किताबें लोगों ने अपने अपने मन से हर कलर में एक एक किताब बनाकर अपने अपने पास रख ली है।सबकी अलग अलग किताबें हैं इसीलिए किसी एक की किताब का किसी दूसरे की किताब से कोई मेल नहीं खाता है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि किसी को  कुछ पढ़ना लिखना नहीं पड़ता है ज्योतिष के नाम पर जो मन आवे सो बोलो या बको जब प्रमाण देने की बात आवे तो तथाकथित अपनी अपनी किताबों या पोथियों का नाम बता दो बचाव हो  जाएगा।

   ऐसे जो भी किताब रूपी ड्रामे होते हैं प्रायः उनकी  एक पहिचान होती है| इनके जो भी उत्पाद होते हैं  केवल उन  नामों के पीछे अमृत या मणि या यन्त्र लिखना बहुत जरूरी होता है। ये अमृत आदि शब्द इतने अधिक आकर्षक होते हैं कि इनसे किसी परेशान व्यक्ति को फाँसने में बड़ा सहयोग मिलता है क्योंकि इन नामों के प्रति भारतीय समाज में असीम आस्था होती है।कितना भी बिना पढ़ा लिखा हो अमृत के महत्त्व को वो भी मानता है क्योंकि इसकी प्रशंसा वह जीवन में अनेकों बार सुन चुका होता है।संसार में लोगों को जितने प्रकार की आवश्यकता होती है उन सारी बातों के आगे अमृत या मणि या यन्त्र तथा कवच आदि  लिखना बहुत जरूरी होता है।समाज में जैसी जैसी जरूरतें दिखाई पड़ती हैं अपने उत्पादों के  वैसे वैसे नाम रख लिए जाते हैं।जैसे -कब्ज दूर करने करने के लिए  कब्ज निरोधक मणि अथवा कब्ज हर यन्त्र  या  कब्ज हर अमृत या कब्ज हर कवच आदि ।इसी प्रकार  यदि आप कुंडलियों के धंधे में कूदना चाहते हैं तो कंप्यूटर से कुंडली बनाकर  उसके आगे भी अमृत, मणि,यन्त्र या कवच आदि कोई भी समाज को प्रभावित करने वाला शब्द लिख सकते हैं।

    जैसे -गुलाबी  किताब अमृत ,हरी  किताब मणि ,या पीली किताब यन्त्र अथवा काली किताब कवच आदि नामों से वही पाँच-दस रूपए की लागत वाले  कंप्यूटर से निकाले गए कुंडली के प्रिंटआउट तीन हजार 3100या पाँच हजार5100 रूपए में आराम से बिक जाते  हैं। यद्यपि  वैसे  ये  प्रिंटआउट पचास  रूपये के भी बेचने मुश्किल हो जाएँ किन्तु एक बार टेलीविजन पर जाकर अपने विषय में,अपनी विद्वता के विषय में, अपनी कुंडली के विषय में किसी को फँसाने के लिए जितना झूठ बोला जाता है उसकाअसर समाज पर  जितनी  देर रहता है उतनी देर में वो फँस चुका होता है।उससे जो लेना देना होता है वह ले चुके होते हैं हजारों से लेकर लाखों रुपए तक के नग नगीने यन्त्र तंत्र ताबीज बेंच लेते हैं।

    भविष्य में जब कभी खरीद कर लाए गए उस कंप्यूटर कुंडली से निकाले गए  प्रिंटआउटों की बातें गलत होकर सामने आने लगती हैं और उनके दिए या बताए हुए नग नगीने यन्त्र तंत्र ताबीज निष्फल हो चुके होते हैं तब तक वो तथाकथित ज्योतिषी उनसे या तो सम्बन्ध बिगाड़ लेते हैं और या फिर दुबारा उतने ही पैसे माँगते हैं जिनके पास काला धन होता है वो देते भी हैं। इसप्रकार कलर फुल लाल आदि किताबें ऐसे ही लाल आदि कमाई करने वाले  खरीदा बेचा करते हैं।

      एक दिन किसी से मैंने पूछा कि इन लाल पीली आदि कलर वाली किताबों  का मतलब क्या होता है उन्होंने हमें बताया कि काली किताब का मतलब तंत्र मंत्र आदि हर तरह का आडम्बर करके बिना किसी जवाब देही के सामने वाले से धन निकालना होता है।लाल किताब में काली किताब वालों की अपेक्षा कुछ दस पाँच प्रतिशत ईमानदारी भी होती है किन्तु शास्त्रीय समाज चूँकि इन्हें भी  ईमानदार नहीं मानता है इसलिए अपने एवं अपने काम को ईमानदार सिद्ध करने के लिए ऐसे लोग कुछ नेता अभिनेताओं या अन्य प्रतिष्ठा प्राप्त लोगों के साथ अपनी फोटो बनवाकर कर रख लेते हैं।इसके साथ ही अपने विषय में झूठ मूठ की प्रशंसा करने वाली एक बनी ठनी सुन्दर सी चंचल सी चुलबुली सी लड़की बैठा लेते हैं और उसे उनकी प्रशंसा में जो बोलना होता है वो स्वयं लिख कर दे देते हैं और वह पढ़ पढ़ कर बोला करती है।इस तरीके से जो अधिक धन इकट्ठा कर चुके होते हैं वो नेता अभिनेताओं के साथ फोटो की जगह उनकी फीस देकर उनसे ही अपनी प्रशंसा करवाते हैं।इन बातों का शास्त्रीय विद्वानों पर कोई प्रभाव पड़ता हो न पड़ता हो किन्तु समाज पर असर पड़ता ही है । इसी प्रकार नीली,पीली,हरी ,गुलाबी आदि जैसी जिसकी कमाई वैसी उसकी किताबें होती  हैं ।इनमें सच्चाई न होने के कारण ही ऐसी कलर वाली किताबें किसी भी संस्कृत विश्व विद्यालय के ज्योतिष सम्बन्धी पाठ्यक्रम में सम्मिलित ही नहीं की गई हैं। 

     हमें भी तो अब लगने लगा है कि पढ़े लिखे शास्त्रीय ज्योतिषियों के पास भी मटक मटक कर झूठी तारीफों के पुल बाँधने वाली एक सुन्दर सी लड़की नहीं होती थी उसी झुट्ठी के बिना पिट गए बेचारे ! क्योंकि उसे देखने के चक्कर में बड़े बड़े फँसने के बाद होश में आते हैं तब  ज्योतिषशास्त्र  को गाली  दे रहे होते हैं उन्हें यह होश ही नहीं होता है कि वो जिसके चक्कर में पड़े थे वो वह ज्योतिष नहीं थी,अब  जिसे वे गाली दे रहे हैं वो वह ज्योतिष है ।जिस चक्कर में विश्वामित्र पराशर आदि बड़े बड़े ऋषि फँस  गए वहाँ हम जैसे लोग क्या हैं ?वैसे भी ज्योतिषी के पास उस तरह की लड़की का काम ही क्या है?

   इसी प्रकार उपायों के नाम पर आधारहीन मनगढ़न्त बातों की बकवास होती है। कुत्ते, चींटी, चमगादड़, उल्लू,तीतर,बटेर, मुर्गी, मछली, हल्दी, सिन्दूर, नींबू, मिर्ची, काले उड़द, तिल, कोयला, घास गोबर,नग,नगीने,यन्त्र तन्त्र ताबीजों, तथा लकड़ियों, जड़ों आदि के नए नए नाम लेकर इन्हीं चीजों को ऐसे तथाकथित कुशल कारीगर लोग खाना, पहनना, ओढ़ना, बिछाना, जेब में रखने आदि बातों के लिए प्रेरित किया करते हैं। ऐसी थोथी बातों का शास्त्र में न तो कहीं आधार है और न ही प्रमाण?

     वहाँ तो ग्रह शान्ति नाम की वैदिक मन्त्रों की प्रमाणित पुस्तक है, किन्तु  ये सब मानने वाले सोचते हैं कि आखिर इन बातों को बताने वाले का स्वार्थ क्या है और कर लेने में हमारा नुकसान ही क्या है?क्या आपने कभी विचार किया कि आपके पूर्व जन्म के कर्म ही भाग्य का रूप लेते हैं। वही कर्म अच्छे होते हैं तो सौभाग्य और बुरे होते हैं तो दुर्भाग्य के रूप में इस जन्म में भोगने पड़ते हैं। पूर्व जन्म के अच्छे बुरे कर्मों की सूचना देने का आधार ग्रह और ज्योतिष  है। जिस ग्रह से सम्बन्धित अपराध हम पिछले जन्म में करते हैं इस जन्म में वही ग्रह प्रतिकूल हो जाता है। इसी प्रकार अच्छा करने से ग्रह अनुकूल होते हैं। बुरे फल की सूचना देने वाले ग्रहों को शान्त  करने के लिए वेदों में मन्त्र लिखे होते हैं जिन्हें जपने से संकट का वेग कम हो जाता है किन्तु नष्ट नहीं होता अपितु कम होकर  लम्बे समय तक किस्तों की तरह चलता रहता  है। क्योंकि गीता में लिखा है ‘‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्’’ अपने किए हुए शुभाशुभ कर्म अवश्य  भोगने पड़ते हैं।
    अब आप स्वयं सोचिए कौवे-कुत्ते, चींटी-चमगादड़  गोबर कोयला, आदि आपका भाग्य कैसे सँभाल सकते हैं? जहाँ तक दान की बात है दान तो शास्त्र सम्मत है। दान पाने वाले का लाभ होता है जिसको लाभ होता है वह आशीर्वाद देता है। उससे पुण्य का निर्माण होता है। जो आड़े-तिरछे समय में रक्षा कर लेता है। कई बार एक गाड़ी का एक्सीडेंट होता है। कुछ लोग बच जाते हैं कुछ मर जाते हैं। यह पुण्यों का ही खेल है । क्योंकि जहाँ आपका वश  नहीं चलता वहाँ भी पुण्यों की पहुँच होती है।कई बार लोग कोढियों या विकलांगों को जो धन देते हैं वह दान न होकर सहयोग होता है।दान हमेशा अपने से श्रेष्ठ एवं सुखी को दिया जाता है।जहाँ तक बात नग-नगीनों की है। यद्यपि ज्योतिष  के ग्रन्थों में ग्रहों की मणियों का वर्णन मिलता है, किन्तु इन्हें धारण करने से भाग्य लाभ में क्या सहयोग मिलता है?यह स्पष्ट नहीं है। वेद में इस विषय में कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। इतना अवश्य है कि आयुर्वेद स्वीकार करता है कि जिस रोग के लिए जो औषधि आयुर्वेद में कही गई है उसे पहनने से, उसे दवा के रूप में खाने से एवं उसकी भस्मादि का हवन करने से रोगों से मुक्ति मिलती है। कम से कम भाग्य की दृष्टि से तो इतना उतना स्पष्ट प्रभाव नहीं दीख पड़ता जितना मन्त्रों का है। मन्त्र जप तथा देवता की आराधना का अत्यन्त फल होता है। यह सर्व विदित,तर्क संगत एवं स्पष्ट है। वैदिक विधा में तो ग्रहों को प्रसन्न करने के लिए उनका वेद मंत्र जपना ही एकमात्र विकल्प है।
     उपर्युक्त ऐसे लोगों में भ्रम का कारण समाज में एक बड़ा वर्ग है जिसका कोई सदाचरण नहीं मिलता, यह वर्ग अध्ययन, साधना आदि योग्यता से विहीन है। इनमें केवल नकल करने की कला होती है। ऐसे कलाकार ज्योतिष वेत्ताओं की तरह अपना रंग रूप सजा कर उन्हीं की देखी सुनी कही भाषा तथा वेष भूषा की नकल करने लगे हैं। ऐसे लोगों ने न कुछ पढ़ा है न किसी के शिष्य हैं न ज्योतिष की कोई किताब देखी है। उसका भी कारण है कि ज्योतिष ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं वो इन्हें आती नहीं है।इसी लिए ये बेचारे दो चार शब्द इंग्लिश के तो अपनी बातों में बोल जाएँगे संस्कृत बोलने में जबान नहीं लौटती है बात-बात में कहते हैं कि मैंने ज्योतिष में के तो  रिसर्च की है। जो संस्कृत पढ़ा ही नहीं वो ज्योतिष में रिसर्च क्या करेगा खाक?संस्कृत न जानने के कारण ही इनके बताए हुए मंत्र भी आधार हीन, प्रमाण विहीन अत्यंत ऊटपटांग बकवास होते हैं। शब्द को शबद  कहते हैं मंत्रों की इनसे आशा ही क्यों?

कुंडली बनाना नहीं सीखा इसलिए कम्प्यूटर रख लिया। वेद मन्त्र पढ़ना नहीं आता इसलिए कुत्ते पूजना अर्थात इनके उपाय सिखाते हैं। क्या यही  रिसर्च कही जाती है?

    बड़े भाग्य से मिले सुर दुर्लभ मानव जीवन का भाग्य कौआ, कुत्ता, चीटी-चमगादड़ों में  ढूँढ़ना सिखा रहे हैं। ये कागजी शेर धन बल से विज्ञापनों में छाए हुए हैं।ढोंगी जोगी की तरह ये तब तक फूलते फलते रहेंगे जब तक सरकार से पंगा नहीं लेते। समाज इनसे छला जा रहा है पवित्र ज्योतिष शास्त्र को अंध विश्वास कहा जा रहा है।आखिर ये अन्याय क्यों ? ऐसे कलाकारों और ज्योतिष के विद्वानों में उतना ही अन्तर है जितना चमड़ा सिलने वाले मोची और हार्ट सर्जन में है। काटना सिलना तो दोनों जानते हैं किन्तु प्राण रक्षा तो कुशल सर्जन की हर सकता है मोची नहीं। सर्जन और मोची का अन्तर तो समाज को स्वयं ही करना होगा।

     ऐसे वायरस डेंगू मच्छर की तरह हर क्षेत्र में सक्रिय हैं। डेंगू मच्छर मैंने इसलिए कहा जैसे ये मच्छर साफ पानी में ही पाए जाते हैं। उसी प्रकार ऐसे पाखण्डी लोग धार्मिक गतिविधियों के आस-पास ही पाए जाते हैं। जैसे गंदगी के मच्छरों की अपेक्षा डेंगू मच्छर अधिक घातक होते हैं। उसी प्रकार आतंकवाद आदि अपराधों से जुड़े लोगों की अपेक्षा धार्मिक मिस गाइड करने वाले लोग अधिक घातक होते हैं।
    जैसे नकली घी में असली घी से अधिक सुगंध होती है उसी प्रकार ये लोग विद्वानों की अपेक्षा ज्यादा अच्छा वेष धारण करते हैं। भड़काऊ वेष-भूषा, गाना बजाना, महँगे विज्ञापनों के माध्यम से बड़े-बड़े दावे करना आदि इन डेंगुओं के लक्षण हैं। इनके चेहरे से, गाने-बजाने, बोली भाषा से कहीं ज्ञान वैराग्य नहीं झलकते लेकिन ये लोग कहीं तो भागवत बाँच रहे हैं, कहीं ज्योतिष और उपाय बता रहे हैं, कहीं मन्त्रदीक्षा दे रहे हैं। कहीं अपने को ब्रह्म ज्ञानी सिद्ध करने में लगे हैं। कोई कोई अपने को योगी या सिद्ध कह रहा है। जो योग क्रियाएँ एकान्त में जंगल में एवं ब्रह्मचारियों के द्वारा ही करने योग्य कही गई हैं वे ही चैनलों पर देखने को मिलेंगी ये कल्पना ही नहीं करनी चाहिए लेकिन इस युग में पैसे देकर मीडिया में कुछ भी बोला जा सकता है। मीडिया से अपने विषय में कुछ भी बुलवाया जा सकता है। ये कलियुग है सब कुछ चलता है।
    सत्संगों के नाम पर जितनी बड़ी-बड़ी रैलियाँ आज हो रही हैं। उनका यदि थोड़ा भी असर होता तो कन्या भ्रूण-हत्या, देहज के लिए हत्या, धन के लिए हत्या, जहरीले कैमिकल मिलाकर दूषित किए जा रहे फल आदि अन्य भोज्य पदार्थ, अपहरण, बलात्कार, आदि की दुर्घटनाओं में कुछ तो कमी आती, किन्तु ये  कलाकार बोलकर अपना समय पास करते हैं तो समाज सुनकर। लेकिन धर्म-कर्म को न तो ये लोग मानते हैं और ही सुनने वाले मानते हैं। दोनों ही दोनों को समझ रहे हैं। लेकिन दोनों के दोनों ने किसी जन्म के पापों के कारण एक दूसरे के साथ समझौता किया   हुआ है।
       ऐसी विषम परिस्थितियों  में धर्म का ही एकमात्र सहारा बचता है वो भी आज दूषित किया जा रहा है अब समाज किसकी ओर देखे ?


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