विरक्त संत तो न काम को भजते हैं और न दाम को वे तो काम और दाम से ऊपर उठकर
केवल श्री राम को ही भजते हैं किंतु जो सारे जीवन दाम और काम का ही गुलाम
बना रहा वो अपनी इन्द्रियों पर क्यों लगाएगा लगाम !उसका भक्ति और
विरक्ति में मन भी क्यों लगेगा !
आज अपने मन पर लोगों का नियंत्रण समाप्त होता जा रहा है काफी काफी उम्र
में लड़के लड़कियों के ववाह होने लगे हैं या प्रेम प्यार के चक्कर में काफी
लोग अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट रहने लगे हैं ऐसे लोग यदि समाज में अपनी
आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन खोजते हैं तो सामाजिक अपयश का भय होता है
इसलिए ऐसे लोग अपने प्रेमी या प्रेमिका की तलाश करके किसी आश्रम से जुड़ते
हैं जहाँ धर्म और भक्ति के नाम पर कोई कितने दिन भी एक साथ पति पत्नीवत रह
सकता है निर्विघ्न बीतता है समय !युवा लड़के लड़कियाँ भी बाबाओं के चित्र लगे
लॉकेट पहन पहन कर पहले अपने को धार्मिक घोषित करते हैं फिर अपने गुरूजी के
सत्संग शिविरों में रहा करते हैं साथ साथ !जिसे न घर वाले बुरा मानते हैं न
बाहर वाले !और बाबा जी अपने भक्तों को निराश कैसे कर सकते हैं !
इसका एक तर्क ये भी है कि आज सत्संग जगह जगह हो रहे हैं खूब भीड़ हो रही है
खूब धन खर्च होता हैं किंतु यदि वहां वास्तव में सत्संग होता हो तो उसका
कुछ असर समाज पर भी तो दिखना चाहिए किंतु समाज में तो वही चोरी छिनारा लूट
घसोट बलात्कार भ्रष्टाचार आदि बहुत कुछ चल रहा है इसका सीधा सा अर्थ है कि
हमारी नैतिक और धार्मिक शिक्षा में ईमानदारी नहीं बरती जा रही है ।
आज लोगों के मन दूषित हो चुके हैं जिन्हें निर्मल करने का एक मात्र रास्ता धर्म और
अध्यात्म है किन्तु धर्म और अध्यात्म के संस्कार देने वाले महापुरुष
विलुप्त से होते जा रहे हैं जो हैं भी उनकी बातों का उतना असर ही नहीं हो
पा रहा है जितना होना चाहिए अन्यथा बलात्कारों को रोकने के लिए फाँसी जैसा
कठोर कानून क्यों बनाना पड़ता ! संत लोग तो अपने सुदृढ़ संस्कारों के आधार पर
ही समाज को सुसंस्कारित करते रहे हैं और सुसंस्कारित समाज में होने वाले
नेता भी सुसंस्कारित ही होंगे ! और सुसंस्कारित नेता लोग देश भक्त होंगे तो
वो अपने देश का धन विदेशों में जमा ही क्यों करेंगे !
बाबाओं के विषय में मेरा निजी मानना है कि आज वे स्वयं वैसा
आचरण नहीं कर पा रहे हैं जिसकी समाज को आज आवश्यकता है।
ब्रह्मचर्य का पालन जो लोग करना चाहते हैं या करते हैं उनका रहन सहन चाल
चलन खान पान आदि बिलकुल अलग होता है वे लोग जंगलों में या एकांत में रहना
रूखा सूखा खाना आदि पसंद करते हैं!फिर भी बासनात्मक चित्रों तक से परहेज
करते हैं!इनके शरीरों में तपस्या का तेज तो होता है किन्तु शौक शान श्रंगार
नहीं होता है। अक्सर इनके शरीर देखने में अत्यंत सामान्य एवं अंदर से
मजबूत होते हैं । हमें हर किसी से ब्रह्मचर्य की आशा भी नहीं करनी चाहिए
उसका एक और कारण है ,आयुर्वेद में मनुष्य शरीर के तीन उपस्तंभ बताए गए हैं
-
१.आहारअर्थात भोजन
२. निद्रा अर्थात सोना
३. मैथुन अर्थात सेक्स
उपस्तंभ अर्थात एक प्रकार के पिलर, बिल्डिंग बनाने में जो महत्त्व पिलर्स
का होता है वही महत्त्व शरीर सुरक्षा में इन तीन उपस्तम्भों का होता है ।
इसलिए आहार,निद्रा और मैथुन तीनों के घटने से भी स्वास्थ्य ख़राब होता है और
बढ़ने से भी स्वास्थ्य ख़राब होता है!फिर असाधक संयम बिहीन लोग मैथुन अर्थात
सेक्स के बिना कैसे स्वस्थ और प्रसन्न रह सकते हैं यह बिलकुल असंभव बात है
!जो धन कमाने की ईच्छा पर नियंत्रण नहीं रख सका वो धन भोगने की ईच्छा पर
नियंत्रण क्यों रखेगा !
इतना अवश्य है कि जो ऐसे कलियुगी ब्रह्मचारियों का शिकार बनने से बच
गया उसके लिए तो कैसे भी बाबा जी हों ब्रह्मचारी ही हैं इसलिए संयम शील
स्त्रियों या लड़कियों को इन संदिग्ध गृहस्थी बाबाओं से मध्यम दूरी बनाकर
तो चलना ही चाहिए!
आप स्वयं सोचिए कि जो योगी होगा वो योग का पालन स्वयं भी तो करेगा
!बंदरों की तरह उछल कूद वाली शरारतें या कलाएँ या ऊट पटांग ढंग से हाथ पैर
दे दे मारना योग है क्या !और इससे क्या सुधर जाएगा ! बिना बैराग्य वाले
धनी लोगों में प्रायः भोगने की भावना तो आ ही जाती है ।
आजकल
बहुत
आश्रमों में सेवाकार्य भी सफलता एवं सच्चरित्रता पूर्वक संचालित किए जा
रहे हैं किन्तु उन्हीं की आड़ लेकर विकारवान बाबा लोग असामाजिक गतिविधियों
को भी संचालित कर रहे हैं इससे भी समाज को पूरी तरह सतर्क रहने की आवश्यकता
है अपने को सँभाल ले दोष किसी और का क्यों दिया जाए ?जो लोग बाबाओं के आगे
सब कुछ तो परोस देते हैं और फिर
चाहते हैं कि वो मुख बाँध कर रहे किसी चीज का भोग न करे !ऐसा कैसे सम्भव है
?आखिर मनुष्य शरीर और मन उनके भी ही हैं अंतर इतना ही तो है कि उनमें से
कुछ लोग इन्द्रिय निग्रह का अभ्यास भी कर रहे हैं और अभ्यास तो कभी भी टूट
सकता है । इसलिए सतर्कता तो रखना चाहिए ।
जिन आश्रमों में धन है गाड़ियाँ हैं अच्छा अच्छा
खाना पीना है शौक शान का सारा साजो सामान होता है एक महिला को छोड़कर जो
आदमी
बाबा बना होता है अब उसके पीछे या चारों ओर महिलाएँ ही महिलाएँ घेरे होती
हैं फिर भी कमी पड़ती है तो समाज समय समय पर उसकी आपूर्ति भिन्न भिन्न
रूपों में करता रहता है जैसे -बाबा जी ने गुरुकुल चला दिया तो समाज अपनी
बच्चियाँ भेजने लगा,बाबा जी गरीब कन्याओं की शादी कराने लगे तो लोग अपनी
बच्चियाँ ले लेकर जाने लगे!बाबा जी अस्पताल या स्कूल चलाते हैं दवा बनाने
बेचने का धंधा कर लेते हैं तो कर्मचारियों के रूप में स्वयमेव सब कुछ
उपलब्ध रहता है।साधुओं के साधुत्व को बिगाड़ने में इन सेवा कार्यों का
महत्वपूर्ण योगदान है!इनसे सबकुछ मुदा छिपा चला करता है और बाद में कोई दस
वर्षों से कबूलता है कोई पंद्रह !अरे! यदि शोषण था तो इतने महीने या वर्ष
तक कैसे सहा गया !
इसी प्रकार चरित्रवान आम स्त्री पुरुषों के पास बाबाओं के पीछे पीछे घूमने का न तो
समय है और न ही उनकी निंदा या समर्थन में
साथ देने का | ऐसी महंगाई में ईमानदारी पूर्वक जीवन चला पाना ही कितना कठिन है फिर भले
लोगों के पास बबई के लिए समय कहाँ है !
इन सब बातों के साथ साथ
यह स्वीकार करने में भी अब संकोच नहीं होना चाहिए कि अब समाज का एक बहुत
बड़ा वर्ग सेक्स के प्रति समर्पित हो चुका है जिसमें नेताओं से लेकर बाबाओं
तक ने बढ़ चढ़ कर भाग ले रखा है| सेक्स के प्रति समर्पण में स्त्री पुरुषों
में लगभग समानता दिखती है अगर बाबा दुश्चरित्र हैं तो उनके प्रति समर्पित
होने वाली भीड़ का समर्पण भी देखते ही बनता है!इसलिए किसी बाबा को अकेले
दोषी कैसे कहा जाए !
संन्यासियों
को सब कुछ छोड़ कर केवल भजन करने को शास्त्रों में क्यों कहा गया ? वस्तुतः
पहले भी तो वह एक घर में रहते थे बाद में आश्रम में रहने लगे!पहले पत्नी
बच्चों के साथ थे बाद में चेला चेलियों से घिरे रहने लगे !धन पहले कमाते थे
साधू बनने के बाद भी कमाते हैं जो तब खाते थे वो अब खाते हैं जैसे
वातावरण में पहले रहते थे वैसे वातावरण में साधू बनने के बाद भी भी रहा
करते हैं ! पहले सारा दिन ब्यर्थ के सांसारिक प्रपंचों में बीत जाता था और
साधू
बनने के बाद भी दिनचर्या यदि वैसी ही चल रही है तो काहे का संन्यास !कोई
व्यक्ति जब अपने पत्नी बच्चों सहित घर बार
छोड़कर साधू बनता है तो उसके मन और जीवन में वैराग्य का बदलाव तो आना ही
चाहिए यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो केवल कपड़ों का कलर बदलने के लिए गृहस्थी
क्यों छोड़ना ?क्या इसे ये नहीं कहा जा सकता है कि पत्नी बच्चों के पोषण के
भय से भड़भड़ाकर कर भाग खड़े हुए हैं ! किन्तु इस भगोड़ेपन को वैराग्य या
संन्यास क्यों और
कैसे कहा जाए जिसमें शास्त्रीय वैराग्य और संन्यास के लक्षण ही न पाए जाते
हों !
वैसे भी धन और बासना का परस्पर अद्भुत सम्बन्ध है
इसीलिए बासना से बचने के लिए पुराने साधू संत महिलाओं से मध्यम दूरी
बनाकर रहते थे ऐसा नहीं कि उन्हें महिलाओं से भय होता था अपितु उन्हें अपने
मन से भय होता था कि स्त्री पुरुष शरीरों की प्रकृति में अंतर होने के
कारण हमारा मन कहीं विकारों में भटक न जाए ! दूसरा खतरा वैरागी मन को धन से
होता है क्योंकि जब धन होगा तो जहाँ जहाँ धन लगता है वहाँ वहाँ मन लगता ही
है । आप स्वयं सोचिए जब आश्रम नाम का सुन्दर सा भवन होगा उसमें सुन्दर
सुन्दर बेड रूम होंगे जिनमें सुन्दर सुंदर बेड पड़े होंगे इस प्रकार से जो
साधू जो संत जो महात्मा जो संन्यासी अपनी इच्छाओं को बेड रूम और बेड तक
पहुँचने में नहीं रोक सका वो आगे खाक रोक पाएगा !बिस्तर पर केवल लाल चद्दर बिछा
लेने से किसी को संन्यासी कैसे मान लिया जाए ।आपने भी बहुत पुराने संतों
के विषय में सुना होगा कि वे पैसे नहीं छूते थे इसका एक मात्र कारण धन एवं
धन से पनपने वाले विकारों से अपने को अलग रखना था !वो बासनात्मक विकारों
नहीं फँसना चाहते थे!आज जो फँसना चाहते हैं वो धन छूने की बात तो छोड़िए धंधा व्यापार फैलाए घूम रहे हैं ।
आज जिन बाबाओं पर ब्यभिचार के आरोप लगते हैं वो समाज के
सहयोग से ऐसे हुए हैं उन्हें यहाँ तक पहुँचने के लिए धन देने वालों ने धन
दिया,मन देने वालों ने मन दिया और तन देने वालों ने तन दिया कुछ लोगों ने तो
जीवन ही दे दिया है ये सच्चाई है फिर भी दोष केवल बाबाओं का ही है क्या?
जो महिलाएँ या लड़कियाँ बाबाओं के आस पास या सान्निध्य में
विशेष रहती हैं वो यह क्यों नहीं समझती हैं कि ब्रह्मचर्य का पालन करना
सबसे कठिन होता है गिने चुने चरित्रवान तपस्वियों की अलग बात है किंतु उनकी संख्या काफी कम है बाकी बाजारू बाबाओं के बश का कहाँ
है ब्रह्मचर्य !ये इतने छिछले लोग होते हैं कि बिना किसी चरित्र और तपस्या के ही
अपने को आत्मज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी ,सिद्ध साधक आदि सब कुछ बता बता कर माँगते हैं पैसे ! बंधुओ !आज धर्म की स्थिति बहुत ख़राब है ।
दो. सकल भोग भोगत फिरहिं प्रवचन में वैराग।
जिनके ये चेला गुरू तिनके परम अभाग ॥ - श्री हनुमत सुंदर कांड
No comments:
Post a Comment