Friday, 7 November 2014

केवल साड़ी उद्योग का ही विकास क्यों ? पहले तो साड़ी संस्कृति को ही बचाया जाना चाहिए !

साड़ी उद्योग को बचाने से पहले उस संस्कृति को बचाया जाना चाहिए जिसमें साड़ी पहनने की परंपरा है !    

आज साड़ी पहनने वाली संस्कृति मिटती जा रही है  जिन्हें साड़ी पहननी है वो तो छोड़ती जा रही हैं फिर यदि साड़ी  उद्योग चला भी लिया जाए तो साड़ी पहनने वाले लाए कहाँ से जाएँगे !  

आज विदेशी संस्कृति का बर्चस्व इतना अधिक बढ़ता जा रहा है कि नई लड़कियों में साड़ियों के प्रति रुझान धीरे धीरे घटता जा रहा है लड़कियाँ  साड़ी  पहनना छोड़ती जा रही हैं इसलिए वो साड़ी परिधान को ही भूलती भी जा रही हैं । अब तो शरीर से चिपके हुए कपड़ों को पहनने का फैशन सा बनता जा रहा है कई जगह वो भी आधे अधूरे पहने जा रहे हैं ,ऐसे में साड़ी  फिट कहाँ बैठ रही  है !

विगत कुछ दशकों में समाज के सभी वर्गों में तथा विशेषकर  युवा पीढ़ी में भारत वर्ष की प्राचीन संस्कृति से इतनी घृणा भरी गई है कि केक काटकर जन्म दिन मनाने की आदत सबमें पड़ती जा रही है ,लोग दीपक जलाने की जगह दीपक बुझाने में विश्वास करने लगे हैं । बड़े बड़े हिन्दू संगठनों के मसीहा लोगों समेत आम हिन्दुओं में भी चोटी कटाने की परंपरा जोर पकड़ती जा रही है इसलिए यदि संस्कृति बचेगी तो सब कुछ बचेगा इसलिए केवल बनारसी साड़ी ही बनारस की पहचान नहीं है अपितु बनारस की साड़ी ,संस्कृत ,संस्कृति ,शिक्षा  आदि सभी क्षेत्रों को मिलाजुलाकर बनती है काशी की संस्कृति और उसकी पहचान ! इसलिए इन सभी बातों का भी उत्थान समान रूप से किया जाना बहुत जरूरी है।

आज मोदी जी की गोद में तो पूरा देश ही है फिर किसी एक गाँव को गोद लेने का सन्देश क्या है ?बंधुओ ! जब आज पूरा देश ही मोदी जी की ओर देख रहा है फिर उसमें से केवल बनारस को ही विकास के लिए चुना जाना उसमें भी जयापुर नामक किसी एक गाँव को कृपाभाजन मानना  कहीं ऐसा तो नहीं है कल उस जयापुर नामक गाँव के किसी एक परिवार को गोद लेकर फिर उस परिवार के किसी एक सदस्य को ही गॉड ले लिया जाए और उसे ही एक दिन किसी मंच पर बुलाकर एक सालओढ़ा कर भेज दिया जाए !

आज काशी की पंचांग परंपरा मरती  जा रही है उसे जीवित करने की बहुत बड़ी आवश्यकता है, भारत की प्राचीन विद्याओं में प्रोक्त मौसम विज्ञान पर काम होना चाहिए, आज संस्कृत के शिक्षण संस्थानों में घूस के बल पर अयोग्य लोग अध्यापक बन रहे हैं वो पढ़ाएँगे क्या और योग्य लोग बेरोजगारी की समस्या से मारे फिर रहे हैं उनकी विद्या निष्फल होती जा रही है कई संस्कृतविद्यालयों की स्थिति तो यह है कि जिन कक्षाओं को पढ़ाने के लिए जो अध्यापक रखे गए हैं उन्हीं कक्षाओं की परीक्षाओं में उन शिक्षकों को बैठा दिया जाए तो उनका पास होना किसी भी कीमत पर संभव ही नहीं है क्या उनके बलपर बचेगी भारत वर्ष की प्राचीन सांस्कृतिक शैक्षणिक विरासत !

इसलिए ये सब कुछ बचाया जाना बहुत जरूरी है और इसकी शुरुआत यदि साड़ी उद्योग से  की गई है तो बहुत बहुत बधाई !

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