Friday, 24 April 2015

केजरी वाल जी ! सत्ता मिलते ही तुम इतना बदल गए ! तुमसे ऐसी तो उम्मीद नहीं थी !

अरविंद जी !एक किसान फड़फड़ाता रहा तुम मुख्यमंत्री बने बैठे रहे ऐसे पद को धिक्कार है जो इंसान को इंसान न रहने दे !
    अरविन्द जी !जिस दिल्ली की जनता ने तुम्हें इतना दुलार दिया है कि जो दिल्ली के चुनावी इतिहास में किसी दूसरे पार्टी और नेता को नहीं मिला है जनता ने बीसों बर्ष पुरानी पार्टियों एवं उनके अनुभवी और चिर परिचित नेताओं के विश्वास को दरकिनार करते हुए अरविंद तुम्हारी सरलता सहजता ईमानदारी विनम्रता एवं भाषाई शालीनता पर अपने को न्योछावर कर दिया है !समाज जिस समय सरकार एवं सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचारों से रौंदा जा रहा है जब बड़े बड़े पढ़े लिखे लोगों का जीवन केवल अनपढ़ नेताओं मंत्रियों की चाटुकारिता के लिए जाना जाने लगा था उस समय शिक्षित और सामान्य समाज की आशा की किरण बनकर अरविन्द तुम प्रकट हुए जिन्हें देखकर शिक्षित समाज को आशा बँधी  कि मैं भी कुछ कर सकता हूँ इसलिए अरविंद जी शिक्षित और लेखक होने के नाते मैं निजी तौर पर आपसे आशान्वित हूँ कि आप अपने उद्देश्यों में सफल हों और यदि आप असफल हुए तो हमारे जैसे हजारों हृदय यह सोचकर हताश हो जाएँगे कि जो सपना आपने दिखाया था वो टूट गया !
   इसलिए अरविन्द जी ! अभी भी तुम्हें सुधारना चाहिए और अपने आचार व्यवहार पर उठने वाली अँगुलियों की भाषा समझनी चाहिए !राजनीति में केवल सच्चा होना आवश्यक नहीं होता है अपितु ईमानदार दिखाना भी पड़ता है श्री राम ने सीता को निर्वासन इसलिए नहीं दिया था कि वो गलत थीं अपितु इसलिए दिया था कि कुछ लोग उन पर प्रश्न करने लगे थे !इससे हमें भी कुछ सीखना चाहिए !आपके चारों और रहने वाले उद्दंड लोग राजनैतिक उतावलेपन में इतना कुछ बोल जाते हैं कि उससे न केवल आपकी साख बिगड़ी है अपितु अन्ना हजारे जी भी लपेटे में आ गए हैं जो ठीक नाहीं है । 
     हे अरविन्द ! तुम कुछ कर पाओ या न कर पाओ वो आपकी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिन्हें जनता सह जाएगी किंतु जनता आपके गाली गलौच एवं तड़पते किसान को देखते हुए भी आपका मुख्यमंत्री बनकर बैठा रहना उसके बाद भाषण देना जनता से पच नहीं रहा है !आप ने माफी माँग ली अच्छा किया इससे अधिक अब और कुछ कर भी नहीं सकते थे ! अरविन्द जी !जनता आज भी आपके साथ है किन्तु आप भी जनता का साथ दीजिए ।
    मीडिया में ख़बरें आ रही हैं कि मीटिंग में तुम रोने लगे थे गिर पड़े थे आशुतोष और अंजली दमानियाँ जैसे लोगों ने आपको सँभाला था !इतनी बड़ी बड़ी बातें  हो गईं दिल्ली की जनता को कुछ पता ही नहीं लगा !जरा जरा सी बात जनता के सामने बताने वाले तुम इतनी बड़ी बात छिपा गए रामलीला मैदान से आंदोलन के समय कपिल सिब्बल से बात करने आप लोग गए थे वहाँ  जिस उपेक्षात्मक ढंग से आप से व्यवहार किया गया था वो बिना संकोच के आपने मंच से जनता के सामने बताया था किंतु …!और जनता ने आप लोगों के अपमान को अपना अपमान समझा था इसीलिए न केवल आपका साथ दिया अपितु उन  अहंकार मूर्च्छित लोगों से बदला भी ले लिया । अरविन्द जी !आप दिल्ली की सरकार छोड़कर गए थे जनता के मन में आक्रोश था किंतु आपने जनता से माफी माँगी जनता ने आपको न केवल माफ किया और न ही केवल गले लगाया अपितु गोद उठा  लिया तुम्हें !कितना दुलार दिया है तुम्हें दिल्ली वालों ने !इतना बड़ा विश्वास जीत पाना अरविन्द !एक जन्म के पुण्यों का प्रभाव नहीं है इसलिए वह आपके लिए विश्वास सबसे अधिक मूल्यवान होना चाहिए !
   अतएव आपसे से एक ही निवेदन है कि आप मीडिया में आकर अपने मुख से बोलिए कि आपकी मजबूरी आखिर क्या है क्यों पार्टी में नित नूतन विवाद जन्म ले रहे हैं !और हर विवाद से निपटने में पार्टी न केवल असफल या बेइज्जत हुई है अआपका व्यक्तित्व भी विवादित हुआ है !आप कोशिश कीजिए ताकि पार्टी की निर्विवादिता बचाई जा सके अन्यथा बहुत देर हो चुकी होगी !
                                                                                                              भवदीय -
 डॉ.शेष नारायण वाजपेयी  

Wednesday, 22 April 2015

अरे नेताओ ! किसानों के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार कर रहे हो तुम ! कितने क्रूर हैं हृदय तुम्हारे !

देश के अन्नदाता किसानों के बलिदान को ब्यर्थ नहीं जाने दिया जाएगा तुमसे बदला लेकर रहेंगे !
  सरकारों के द्वारा मुवाबजे के रूप में दिए गए पचास पचास रूपए के चेकों ने किसानों को मरने पर मजबूर किया गया है !
   संघर्ष  से कभी नहीं डरा है किसान किंतु सह नहीं सका अपने बलिदान का अपमान !और टूट गया छोड़ रहा है इन लोकतंत्र के लुटेरों की कृपा पर जीने की आशा !और लटक रहा है फाँसी के फंदों पर !किसानों की इतनी बड़ी बिपत्ति पर सौ सौ पचास पचास रूपए के चेक आखिर किस लिए दिए गए हैं उन राजनैतिक सरकारी लोगों को कटघरे में खड़ा करके पूछी जानी चाहिए उनकी मंसा !आखिर ये चेक देने के पीछे उनकी सोच क्या थी !ऐसे लोगों पर आपराधिक केस दर्ज होने चाहिए जिन्होंने ऐसे चेक देकर किसानों को मरने के लिए उकसाया है । बंधुओ!कोई ऐसे ही नहीं मरता एक अँगुली काटने में कितनी पीड़ा होती है तो फिर फाँसी लगाने जैसी दारुण यातनाओं का वरण करने वाला किसान मरने के लिए मजबूर किया गया है तब मर रहा है नेता अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकने के लिए कर रहें ऐसी नीचता । अरे देश की आजादी को अकेले भोगने वाले नेताओ !किसानों को कुछ नहीं देना था तो न देते कम से कम उनकी मुशीबत का उपहास तो नहीं ही उड़ाना चाहिए था !ये सौ सौ पचास पचास रूपए के चेक संवेदन हीनता के सजीव उदाहरण हैं 
       ऐ किसानों का हक़ खा जाने वाले लोक तंत्र के लुटेरो ! क्या हैं तुम्हारी आय के अपने स्रोत,क्या है तुम्हारा कार्य व्यापार !कब करते हो काम कहाँ से आता है तुम्हारे पास अरबों रूपयों  का अंबार ? अरे बेशर्मों ! किसानों को सौ सौ रूपए के चेक देते हो तुम !सरकारी कोष तुम्हारी बपौती है क्या ?जनता के धन से तुम जहाजों पर चढ़े घूमते हो किसानों की जरूरत पर पचास पचास रुपयों के चेक !जिनका सारा जीवन ही लुट गया हो पहाड़ जैसा पूरा साल ही पड़ा हो पेटपालन की समस्या मुखबाए खड़ी हो उन्हें सौ सौ पचास पचास रूपए के चेक और दूसरी ओर सरकारी कर्मचारियों का महँगाई भत्ता बढ़ाना क्यों जरूरी था !
     राजनैतिक राक्षसों का इतना निर्मम व्यवहार ?
    एक सियासी गिरोह के सरगना मंच से देखते रहे फंदे में फँसा छटपटाता रहा किसान !उन पापियों को दया भी नहीं आई ! ये राजनैतिक कसाई गिद्धों की तरह तकते रहे तड़फते किसान के बेटे को ! सारा देश दहल गया है किंतु इन राजनैतिक कुकर्मियों की ओर से सुनाई दिए क्या संवेदना के स्वर!क्या दौड़ कर जा नहीं सकते थे ये उसके पास !आखिर क्यों नहीं रोके जा सकते थे इनकी बहादुरी के भाषण !ऊपर से इन बेशर्म मुखाकृतियों की भयावनी आवाजों ने तोड़ दिया है आम जनता को ! कल तो फेसबुक खोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ी टीवी चालू करने से डर लग रहा था इन  आपियों ने इतना निराश किया है कि अब तो इनका मुख देखने का भी मन नहीं होता कैसे ढोए जाएँगे ये पाँच वर्ष !जिनकी एक आवाज पर इकट्ठे हुए थे किसान उनके साथ ऐसा बर्ताव !यदि उनसे इतना भी लगाव नहीं था तो उन्हें बुलाया ही क्यों गया था !
    यह कैसी किसानों की चिंता ! फंदे में फँसे छटपटाते किसान को देखकर भी बंद नहीं हो सके भाषण ! सियासीगिद्धों की नजर सिर्फ रैली की सफलता पर थी ! राजनैतिक गिद्धों के पुलिस तथा केंद्र सरकार विरोधी सियासी बयानों का वह समय नहीं था वह समय गजेन्द्र की सुरक्षा एवं उसके परिवारी जनों को ढाढस बँधाने का था उस परिवार के साथ समर्पण पूर्वक खड़े होने का था !किंतु इनका पालतू शिखंडी विरोधी पार्टियों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा था । मंच से एक मुचंड महारथी समझा रहा था कि इस घटना के लिए पुलिसवाले कैसे कैसे दोषी हैं ! अरे किसान को हत्या के लिए उकसाने वाले पापियो !क्या तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं थी ? यदि रैली किसानों के लिए होती तो जीवन मृत्यु से झूलते किसान को देखकर रोक दी जाती रैली और बंद होते भाषण !किंतु रैली राजनीति के लिए थी जिसकी सफलता के लिए आवश्यक थी कोई दुर्घटना तभी तो रैली चर्चित हो पाती जैसा कि अब हो रहा है इन राजनैतिक कसाइयों के हिसाब से रैली सफल मानी जाएगी ! उस किसान के लटकने के बाद जिस उत्साह में रैली जारी थी आरोप प्रत्यारोप के भड़काऊ भाषण दिए जा रहे थे उससे लगता है कि ये राजनैतिक कुकर्मी ऐसी दुर्घटनाओं के लिए पहले से ही तैयार होकर आए थे ऐसे पापी नेताओं के हृदयदर्पण में कहाँ प्रतिबिंबित हो पाती हैं गरीबों की पीड़ाएँ !
     यह कैसी किसानों की हमदर्दी ! किसान  पेड़ पर लटकता छटपटाता रहा रैली चलती रही सियासी भाषण परोसे जाते रहे यदि रैली किसानों के लिए होती तो तुरंत बंद कर दी जाती रैली पहले किसान को देखा जाता किंतु किसानों को तो मोहरा बनाया जा रहा था वस्तुतः भावी प्रधानमंत्री बनने बनाने के लिए बिसात बिछाई जा रही थी !धंधे का सवाल था आखिर बंद कैसे कर दी जाती रैली !
    मृतप्राय  किसान को अस्पताल भेजा गया क्या दो शब्द संवेदना के नहीं होने चाहिए थे क्या सामूहिक रूप से परमात्मा से प्रार्थना नहीं कराई जा  सकती थी किसान की सुरक्षा के लिए क्या उन पापियों को तुरंत अस्पताल में नहीं पहुँचना चाहिए था क्या उनके अपने घर का कोई होता तो भी रैली चलती रहती और पुलिस पर ठीकरा फोड़कर चालू कर दी जाती भाषण बाजी !
      इन आपी  बेशर्मों ने जिन शब्दों में संवेदनाएँ व्यक्त की हैं वो शब्द वो भाव भंगिमाएँ तुरंत पुलिस को कटघरे में खड़ा किया जाने लगना ,किसान की जीवनांतक पीड़ा पर सियासी बयान  देते हुए उस राष्ट्र व्यापी भयंकर वेदना का रुख केंद्र सरकार की ओर मोड़ने लगना ,जिस बेदना से सारा देश सदमे में थाइतने बड़े हादसे के बाद भी उन शिखंडियों के राजनैतिक भाषणों एवं बयानों से जो साफ झलक रहा था उसमें उस किसान के प्रति न तो कोई हमदर्दी थी और न ही ईश्वर से कोई प्रार्थना थी और न ही उन बेशर्म मुखाकृतियों पर संवेदना के कोई भाव ही थे !
देश का पेट भरने वाले किसान मर रहे हैं अपना और अपनों के पेट भरने के लिए !
अरे !देश के रईसों राजनेताओं धनवान बाबाओं तुम्हें धिक्कार !मरोगे तो क्या साथ ले जाओगे ये धन ?
     ऐ पापियो ! क्या तुम्हारी कमाई में किसानों का कोई हिस्सा नहीं हैं । सारी आपत्ति बिपत्ति सहकर भी प्रकृति और प्रशासन से जूझने वाला किसान हमेंशा देश का पेट भरता रहा आज उसका पेट भरने की बारी आई तो तुम नहीं  खड़े हो सके उसके साथ ! उसका सम्बल नहीं बन सके तुम !उसका विश्वास नहीं जीत सके ! तुम उसका हौसला नहीं बढ़ा सके उसका सहारा नहीं बन सके तुम उसे अपनापन  नहीं दे सके ! 
 खेलों और खिलाडियों पर  पैसे लुटाने वाले धनपिशाचो ! वहाँ तो करोड़ों रूपए देने की घोषणा करते रहते हो बढ़ चढ़ कर बोलियाँ लगाते हो किसानों के लिए क्या तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है !
    अरे !करोड़ों रूपए लगाकर बड़ी बड़ी सत्संगी रैलियाँ करने वाले बाबाओ !क्या किसानों  के लिए तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है ?
   साईं पत्थरों पर करोड़ों अरबों रूपए के मुकुट पहनाने वाले पाखंडियो !क्या किसानों के लिए तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है !
      अरे देश के किसानों का हिस्सा हड़पने वाले काले धन से धनी उद्योग पतियो ! क्या किसानों के लिए तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है !
  ऐ अकर्मण्य कर्मचारियो !अपनी फ्री की कमाई में से किसानों का हिस्सा भी निकालते जाओ !
        बिलासिता पर लाखों की खरीददारी करने वाले धनियो !क्या अपनी शौक शान से बचाकर किसानों का हक़ क्यों नहीं निकाल सके तुम !
     अरे !ब्यूटीपार्लरी संस्कृति में जीने  वाले लोगो जिस दिन किसान हाथ खड़े कर देगा उस दिन पिचक जाएँगे गाल तब रगड़ने से लाल नहीं होंगे!इसलिए ऐ सौंदर्य साधको ! कुछ कम सुंदरता ही सही कुछ तो हिस्सा निकालो किसानों के लिए भी ! 
      सरकार को चाहिए कि किसानों को भी प्राइमरी स्कूलों के शिक्षकों का दर्जा दे!
     जिससे उन्हें भी सैलरी की सिक्योरिटी हो उन्हें भी पेंशन मिले साथ ही ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के समय घबड़ाकर किसान आत्म हत्या न करे उसे सरकारी सैलरी का सम्बल बना रहे !  यदि सरकारी सुशिक्षित ट्रेंड शिक्षकों  से समाज को कोई लाभ नहीं है और लोग प्राइवेट में पढ़ाना चाह रहे हैं इसका सीधा सा मतलब है कि स्कूलों में पढ़ाई हो ही इसकी जिम्मेदारी सरकारी शिक्षकों की बिलकुल भी नहीं है यदि होती तो वो इस चुनौती को स्वीकार करते और अपने स्कूलों की प्रतिष्ठा बचाने का प्रयास करते हैं जिससे उनकी शिक्षा का लाभ  छात्रों को नहीं मिल पाता है फिर भी सरकार उन्हें सैलरी भी देती है पेंशन भी यदि उन्हें मिल सकता है तो किसानों को क्यों नहीं मिल सकता है ?

Tuesday, 21 April 2015

उन्मत्त क्षत्रियों का संहार किया था श्री परशुराम जी ने !


भगवान परशुराम जी ने क्यों किया था उन्मत्त राजाओं का संहार ?इसी विषय में ये मेरी लिखी हुई किताब है -









आप सभी भगवान परशुराम जी के भक्तों को बहुत बहुत शुभ कामनाएँ ,प्रणाम आभार साथ ही आचार्य कौडिन्य जी के चाचा जी के द्वारा लिखित भगवान परशुराम जी के विषय में यह श्लोक उपलब्ध करने के लिए भूयशः नमन !
 ब्रह्मद्रुहाे ह्यवनिकण्टकराजबन्धून् त्रिःसप्तकृत्व इह भूमिमटन् प्रमन्युः । 
चिच्छेद निर्घृणमुदग्रपरश्वधेन तं चाेग्रशक्तिकमनुस्मर जामदग्न्यम् ॥ 
बंधुओ ! "ब्रह्मद्रुहाे अवनिकण्टकराजबन्धून् चिच्छेद" अद्भुत है यही वस्तु स्थिति थी किंतु लोग इस बात को न समझकर परशुराम जी पर ही प्रश्न उठाने लगते हैं !

                                              

सरकारों में सम्मिलित लोग हों या सरकारी कर्मचारी देश को आजादी केवल इन्हीं के लिए मिली थी क्या ?

किसान मुसीबत से मरें या न मरें किंतु उनके बलिदान को न समझने वाले नेता उनकी उपेक्षा करके उन्हें मरने पर मजबूर कर देते हैं !
   इसलोक तंत्र का सुख सरकारी नेता लूटते हैं और सरकारों के कर्मचारी इसी महान बलिदान के बल पर ये दोनों एक दूसरे का दुःख दर्द बाँटा करते हैं कर्मचारी साल भर जिन्हें कमाकर देंगे उनका उत्साह बर्धन के लिए उन्हें कुछ वापस भी करना पड़ता है इसीलिए देश में थोड़ी भी महँगाई बड़ी या त्यौहार आए तो महँगाई भत्ता केवल उनके लिए बाकी देशवासियों को बता देते हैं कि तुम्हारा शोषण ब्राह्मणों ने किया है तुम उन्हीं के शिर में शिर दे मारो !अभी ही देखो फसलें किसानों की नष्ट हुईं उन्हें तो चेक सौ सौ पचास पचास रूपए के और कर्मचारियों की सैलरी बढ़ी हजारों में !
   जो सरकारी कर्मचारी नहीं हैं तो क्या वे वे देश के नागरिक नहीं हैं आखिर उनके बुढ़ापे की चिंता सरकार को क्यों नहीं है ? 
        गरीब किसान मजदूर या गैर सरकारी लोग जो दो हजार रूपए महीने भी कठिनाई से कमा  पाते हैं वो भी दो दो  पैसे बचा कर अपने एवं अपने बच्चों के पालन पोषण से लेकर उनकी   दवा आदि की सारी व्यवस्था करते ही हैं उनके काम काज भी करते हैं और ईमानदारी पूर्ण जीवन भी जी लेते हैं ।जिन्हें नौकरी नहीं सैलरी नहीं उन्हें पेंशन भी नहीं !
   दूसरी और सरकारी कर्मचारियों की पचासों हजार की सैलरी ऊपर से प्रमोशन उसके ऊपर महँगाई भत्ता आदि आदि और उसके बाद बुढ़ापा बिताने के लिए बीसों हजार की पेंसन दी जा रही है इतने सबके बाबजूद सरकारी कर्मचारियों के एक वर्ग का पेट नहीं भरता है तो वो काम करने के बदले घूँस भी लेते हैं इतना सब होने के बाद भी सरकारी प्राथमिक स्कूलों में शिक्षक पढ़ाते  नहीं हैं अस्पतालों में डाक्टर सेवाएँ  नहीं देते हैं डाक विभाग कोरिअर से पराजित है दूर संचार विभाग मोबाईल आदि प्राइवेट विभागों से पराजित है जबकि प्राइवेट क्षेत्रों में सरकारी की अपेक्षा सैलरी बहुत कम है फिर भी वे सरकारी विभागों की अपेक्षा बहुत अच्छी सेवाएँ देते हैं। 
    आखिर क्या कारण है कि देश की आम जनता की परवाह किए बिना सरकार के मुखिया,सरकार में सम्मिलित लोग एवं सरकारी कर्मचारी आखिर क्यों भोगने में लगे हैं गैर सरकारी लोगों के खून पसीने की कमाई !देश के लोग कब तक और क्यों उठावें ऐसी सरकारों एवं सरकारी कर्मचारियों का बोझ ?
    जब गरीब आदमी अपनी छोटी सी कमाई में ही बचत करके कर लेता है अपने बुढ़ापे का इंतजाम तो पचासों हजार रूपए महीने कमाने वाले सरकारी कर्मचारियों को क्यों दी जाती है बुढ़ापे में पेंसन ? आखिर ये अंधेर कब तक चलेगी और कब तक चलेगा प्रजा प्रजा में भेद भाव का या तांडव ?और कब तक लूटी जाएगी आम जनता ?  
     क्या देश की आजादी पर केवल सरकार और सरकारी कर्मचारियों  का ही अधिकार है बाकी गैर सरकारी लोगों के पूर्वजों का कोई योगदान ही नहीं है !
      अब सरकार से भ्रष्टाचार  मुक्त उत्तम प्रशासन चाहिए इसके आलावा कृपापूर्ण गैस सिलेंडर ,भोजन बिल, पेंसन, आरक्षण,नरेगा ,मरेगा,मनरेगा आदि कुछ भी नहीं चाहिए !अन्यथा गैर सरकारी कहलाने वाली आम जनता अब दलित-सवर्ण, हिन्दू-मुश्लिम, स्त्री-पुरुष आदि भेद भाव के  रूप में दिए गए किसी भी प्रकार के लालच को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है और न ही आपस में लड़ने को ही तैयार है अब वो सारी  चाल समझ चुकी है । अब तो सरकार एवं सरकारी कर्मचारियों को सुधारना ही होगा अन्यथा अब सरकार एवं सरकारी कर्मचारियों   के  शोषण विरुद्ध के विरुद्ध लड़ेगी आम जनता अपने अधिकारों के लिए आंदोलनात्मक अंतिम युद्ध ! 

Saturday, 18 April 2015

वाह रे ! सरकारी प्राइमरी स्कूलों की पढ़ाई !!

   जैसी शिक्षा वैसे संस्कार !समाज में फैल रहा है दिनों दिन भ्रष्टाचार !इसके लिए संपूर्ण रूप से दोषी हैं शिक्षक !स्कूलों की शिक्षा के नाम पर हो रहा है गरीब बच्चों की जिन्दगी के साथ खुला खिलवाड़!क्लास जाकर बच्चों को पढ़ाने वाले आदर्श शिक्षकों की संख्या बहुत कम है ! ये वो स्कूल हैं जहाँ शिक्षक लोग पढ़ाने को अपना कर्तव्य ही नहीं मानते हैं !
      यदि शिक्षक ही कामचोर और लापरवाह होंगे तो वो कैसे दे सकेंगे बच्चों को ईमानदारी के संस्कार !ये सबको पता है कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों में आज शिक्षा की क्या स्थिति है और  सरकार की जैसी शिक्षा है समाज में वैसे संस्कार हैं !अपहरण हत्या लूट बलात्कार आदि अपराध बच्चे ऐसे ही लापरवाह शिक्षकों से सीखते हैं । 
   सरकारी एवं निगम स्कूलों की ये स्थिति है कि एक शिक्षक सारी कक्षाओं में घूम कर बता आता है राइटिंग आदि लिखने को फिर बैठकर आफिस में करने लगते हैं मीटिंग थोड़ी देर बाद दूसरा शिक्षक घूम आता है हर क्लास में, बस घंटे दो घंटे बाद हो जाती है छुट्टी।बंधुओ ! क्या ऐसे ही होती है पढ़ाई !ये राष्ट्रीय  राजधानी दिल्ली की स्थिति है तो देश की क्या होगी! एक बिटिया दिल्ली के कृष्णा नगर के स्कूल की कक्षा पाँच की छात्रा है उसकी एक सहेली पढ़ाई न होने के कारण स्कूल छोड़ गई है तो वो उसे मनाती हुई कहती है "दीदी यहीं पढ़ो अब तो यहाँ भी होमवर्क मिलने लगा है" बंधुओ कितनी चिंता की बात है !
   बंधुओ ! शिक्षक बहुत बड़ा सम्मानित पद है किंतु इसका एहसास आज की तारीख में सरकारी प्राइमरी स्कूलों के बहुत कम शिक्षकों को है आज सरकारी या निगम स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था की सारे देश में थू थू हो रही है हर कोई एक झटके में न केवल कह देता है कि सरकारी स्कूलों में तो पढ़ाई ही नहीं होती है अपितु गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहता है ये भावना क्या सरकार एवं सरकारी सरकारी लापरवाह शिक्षकों के लिए शर्मसार कर देने वाली नहीं है आखिर क्यों सभी प्रकार के कर्मचारी ,विधायक  सांसद मंत्री एवं सभी धनी लोग अपने बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहते सरकारी और निगम स्कूलों में ! फिर भी वहाँ शिक्षा के विज्ञापन के लिए पैसा बहाया जाता है नैतिक स्लोगन लिखवाए जाते हैं आखिर किस लिए फूँका जाता है ये जनता का धन !बच्चे केवल स्लोगन पढ़ कर नहीं सुधर सकते वो तो अपने शिक्षकों के आचार व्यवहार से  सब कुछ सीखते हैं !क्या आज सरकारी शिक्षकों में ऐसा कोई पवित्र आचार व्यवहार रह गया है जिससे वे बच्चों को कुछ सिखाने लायक हों आखिर कितने हैं आदर्श शिक्षक !इसीलिए बिगड़ रहे हैं बच्चे !बढ़ रहे हैं अपराध भ्रष्टाचार बलात्कार हत्याएँ आदि !क्योंकि अधिकांश संस्कार शून्य लोग शिक्षकों के नाम पर स्कूलों की शोभा बढ़ा रहे हैं ! चूँकि शिक्षाधिकारी केवल मीटिंग करते हैं उनका शिक्षा से कोई लेना देना नहीं होता है और शिक्षक उन्हीं के मीटिंगों के इंतजामों में लगे रहते हैं !इसी प्रकार से बीत जाता है वर्ष !
     मित्रो !जो विद्यालय हों ही जनता के लिए किंतु जनता को उन पर भरोस भी न रह गया हो तो क्या फायदा उन्हें ढोने से !जनता का पैसा है तो क्या हुआ ?जब शिक्षकों को बच्चों के भविष्य एवं अपने कर्तव्य पालन की चिंता ही न हो  ऐसे शिक्षकों से क्या प्रेरणा लेंगे बच्चे और कैसे सुधरेगा उनका भविष्य ?
    कई बार भीषण शर्दी गर्मी और बरसते पानी में भी सुबह सुबह माता पिता अपने बच्चे तैयार करके स्कूल भेज आते हैं किंतु कई बार ऐसा होता है कि बच्चे पाँच घंटे बैठकर चले आते  हैं स्कूल से जहाँ कोई कक्षा में देखने ही नहीं जाता है उन बच्चों को ! उनके बिगड़ते भविष्य एवं माता पिता की बेबसी को देखकर मैं अक्सर भिन्न भिन्न स्कूलों में चला जाता हूँ नैतिकता का उपदेश करने इतना ही मैं कर भी सकता हूँ अन्यथा वो लोग हमें घुसने भी नहीं देंगे अपने स्कूलों में ! किन्तु मेरी सुनता कौन है !महोदय ! राष्ट्रीय राजधानी में कई जगह तो शिक्षक ही विषय से अनभिज्ञ हैं !
    मेरा निजी आरोप सरकारों पर है कि इस शिक्षा सम्बन्धी भ्रष्टाचार में सरकारें भी सम्मिलित रहती हैं अन्यथा पाँच दस हजार में प्राइवेट स्कूलों को यदि शिक्षक मिल जाते हैं तो सरकार चाहे तो सरकार को भी मिल सकते हैं उसी सैलरी में भरपूर शिक्षक!फिर सरकार अधिक सैलरी देकर कम शिक्षक क्यों उपलब्ध करावा  पा  रही है स्कूलों को ? सरकारी प्राइमरी स्कूल के एक शिक्षक की सैलरी में कम से कम चार वो शिक्षक मिल सकते हैं जो प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं जिनकी शिक्षा पर सरकार एवं सरकारी शिक्षक भी इतना भरोसा करते हैं कि अधिकांश लोग अपने बच्चे प्राइवेट स्कूलों में उन्हीं के यहाँ  पढ़ाते हैं ऐसे भरोसेमंद शिक्षक यदि कम सैलरी में मिलते हों तो अधिक सैलरी देकर भी उन शिक्षकों को रखने की सरकार की मजबूरी अाखिर क्या है जिनकी लापरवाही विश्वविदित हो !जिनसे जनता का विश्वास इतना टूट चुका हो कि हर कोई अपने बच्चे को प्राइवेट में ही पढ़ाना चाहता है जो सरकारी में भी अपने बच्चे पढ़ा रहा है तमन्ना उसकी भी है कि वो भी प्राइवेट में ही पढ़ावे !बताइए समाज की ये धारणा है सरकारी स्कूलों के प्रति !फिर सरकार की ऐसी मजबूरी क्या है कि वो ऐसे ही लापरवाह शिक्षकों से चिपकी रहना चाहती है आखिर शिक्षा व्यवस्था को ऐसी गैर जिम्मेदारी से मुक्त करने का क्या कोई विकल्प ही नहीं बचा है !इनके ट्रेंड होने का बच्चों को क्या लाभ ! इनसे तो भले वो अंट्रेंड शिक्षक जिन्होंने जनता का विश्वास तो बना और बचा रखा है !इन्हें तो विश्वास की भी चिंता ही नहीं लगती है !
  बंधुओ !इतनी ही सैलरी में अधिक लोगों की बेरोजगारी दूर की जा सकती है उतने ही धन में स्कूलों को जिम्मेदार और अधिक शिक्षक मिल सकते हैं जो बेरोजगारी का दंश झेलते झेलते पैसे की कीमत समझने लगे होंगे जो बच्चों को आत्मीयता एवं परिश्रम पूर्वक पढ़ाने वाले शिक्षक होंगे क्योंकि उन्हें नौकरी छूट जाने का भय  भी तो होगा !
    कुल मिलाकर वर्तमान समय में भारत सरकार के प्राइमरी स्कूलों से समाज का विश्वास जब इतना टूट चुका है फिर इस शिक्षा व्यवस्था को अकारण ढोने का क्या लाभ !ऊपर से ऐसी शिक्षा की प्रशंसा के लिए इतने इतने महँगे विज्ञापन दिए जा रहे हैं आखिर क्यों ?जनता के पैसे का ये हाल !जहाँ किसी की जवाबदेही ही नहीं है । 
   जब सरकारी विद्यालयों में कोई देखने सुनने वाला ही  नहीं है किसी की किसी भी प्रकार की कोई जिम्मेदारी ही नहीं है।अधिकारियों का काम केवल मीटिंग करना और शिक्षकों का काम उनकी हाँ हुजूरी करना उनके यहाँ परिक्रमा करते रहना बस ! बच्चों का किसी से क्या लेना देना ! बच्चे स्कूलों में जाते हैं भोजन वाले भोजन दे जाते हैं बच्चे खा लेते हैं अध्यापकों को समय मिला तो स्कूलों में  या कक्षाओं में चक्कर लगा गए कुछ राइटिंग वगैरह लिखने को बता गए नहीं समय मिला तो कोई बात नहीं !अभिभावक कुछ कह नहीं सकते अधिकारी कोई आता नहीं है आता भी है तो चाय पानी करके चला जाता है कक्षाओं में गया भी तो चला गया बस ड्यूटी पूरी हो गयी!वापस लौट गया अधिकारी !क्या यही है शिक्षा का अधिकार ?
    कहीं ऐसे चलते हैं स्कूल!क्या ऐसे होती है पढ़ाई!इस विद्यालय में यदि अधिकारी जी के अपने पिता जी का पैसा लगा होता तो क्या अधिकारी महोदय ऐसे ही चला लेते विद्यालय ?
   अधिकांश सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति यह है कि वहॉं शिक्षा के नाम पर केवल खाना पूर्ति हो रही है प्रायः विद्यालय साढ़े सात बजे खुलते हैं किंतु प्रायः आठ सवा आठ बजे तक अध्यापक पहुँच  पाते हैं विद्यालय। आपस में मिलते जुलते एवं आफिस में जाकर उपस्थिति का रजिस्टर लेते देते प्रधानाचार्य जी की खैर कुशल पूछते पूछते बीत जाता है बीत जाता है आधा पौना घंटा,कक्षा में पहुँचते पहुँचते नौ सवा नौ बज ही जाते हैं! बच्चों की किताब खोलकर उन्हें राइटिंग आदि लिखने को या किसी कापी किताब से कोई सवाल लिखने लगाने को बता दिया जाता है।इसी बीच साढ़े नौ बजे लंच हो जाता है जो साढे़ दस से ग्यारह बजे के बीच तक कहीं पूरा हो पाता है मुश्किल से ! इसके बाद बारी बारी से किसी न किसी शिक्षक को प्रतिदिन जरूरी काम लगा करता है और वह निकल जाता है इसीप्रकार बारी बारी से एक आध लोग प्रतिदिन बीमार होने के कारण चले जाते हैं उनको दवा लेने की जल्दी होती है इसलिए वो निकल जाते हैं।बारी बारी से कुछ शिक्षक शिक्षिकाएँ  छुट्टी की घोषणा करने को बैठे रहते हैं किंतु अभिभावकों को पहले ही समझाया जा चुका होता है कि साढ़े बारह बजे छुट्टी होनी है उसके एक मिनट बाद भी आपके बच्चे की हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है!इसलिए अपना बच्चा समय से ले जाना!अभिभावकों को भी चिंता रहती है कि कहीं हमारा बच्चा अकेला न छूट जाए इस बात से भयभीत अभिभावक बारह बजे से ही स्कूल में पहुँचने लगते हैं और अपना अपना बच्चा लेकर चले आते हैं।साढ़े बारह बजते बजते बिरले ही कुछ बच्चे बच जाते हैं बाकी जा चुके होते हैं।
    इस सारी प्रक्रिया में पढ़ने पढ़ाने का समय ही कब होता है?और पढ़ाता कौन है पढ़ता कौन है अब तो बच्चों के रिजल्ट का भी कोई झंझट नहीं है।शिक्षकों को भय किसका है?
     उपर्युक्त इन्हीं सब कारणों से सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चे पढ़ाने वाले अभिभावक को लोग इतनी हिकारत की निगाह से देखने लगते हैं जैसे उसका अपने बच्चे से कोई लगाव ही न हो और वो समाज का सबसे गया गुजरा इंसान हो!सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चे पढ़ाने वाले माता पिता का सामाजिक स्तर इतना गिर चुका होता है कि न वो बच्चे से पूछ पाते हैं कि वहॉं पढ़ाई क्या होती है न शिक्षकों से!दोनों का एक ही जवाब होता है कि यदि पढ़ाना ही था तो प्राइवेट विद्यालय में पढ़ा लेते!इसलिए माता पिता बच्चे को भेज आते हैं ले आते हैं इसके अलावा स्कूल वालों से वो कोई प्रश्न करें उनमें इतना साहस कहॉं होता है?क्या यही है शिक्षा का अधिकार ?
     ऐसी परिस्थिति में शिक्षा का अधिकार जैसा कानून भी आखिर क्या कर लेगा जब शिक्षक लापरवाह होंगे अधिकारी कर्तव्य भ्रष्ट होंगे तो मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री तो स्कूल स्कूल दौड़े नहीं घूमेंगे!अधिकारियों को ही अपना नैतिक दायित्व समझते हुए शक्त  होना पड़ेगा!अन्यथा यदि स्कूलों में पढ़ाई ही नहीं होगी!तो क्या कर लेगा शिक्षा का अधिकार ?
           इस बात के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाई नहीं होती है लापरवाही का आलम यह है कि वहॉं का भोजन करके बच्चे न केवल बीमार होते हैं अपितु कई बार बच्चों के मर जाने तक की दुखद खबरें सुनाई पड़ती हैं!अभी अभी इस तरह दुर्घटनाओं ने तो सारे देश को हिलाकर रख दिया है!यह लगभग सबको पता है सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों और शिक्षकों के बीच कोई संबंध ही नहीं बन पाता है क्योंकि बच्चों और शिक्षकों की मुलाकातें ही इतनी कम हो पाती हैं अन्यथा बच्चे खराब भोजन संबंधी भी अपनी बात अध्यापकों को बता सकते थे!
    इसीलिए किसी से भी पूछ लिया जाए कि वह अपने बच्चे को सरकारी विद्यालय में क्यों नहीं पढ़ाता है वो सच सच बता देगा!आखिर किसी को शौक थोड़ा है कि वो अपने बच्चों को मोटी मोटी फीसें देकर प्राइवेट विद्यालयों  में पढ़ावे!              
      बाहर की बात क्या कही जाए दिल्ली के निगम से लेकर सरकारी प्राथमिक स्कूलों तक में पढ़ाई की यही स्थिति है इस विषय में कोई अधिकारी कर्मचारी नियंत्रण करने को तैयार ही नहीं है किसी की कोई जवाबदेही नहीं  होती है, क्या किसी भी अधिकारी का यह दायित्व नहीं बनता है कि वो अपने शिक्षकों से पूछे कि तुम्हारे स्कूलों का सम्मान प्राइवेट स्कूलों की अपेक्षा दिनों दिन घटता क्यों जा रहा है?किसी भी शिक्षण संस्थान की लोकप्रियता वहॉं के अध्यापकों के बात ब्यवहार और कर्तव्य परायणता पर निर्भर करती है!सरकारी प्राथमिक स्कूलों का सम्मान बढ़ाने की जिम्मेदारी आपकी है यदि घट रहा है तो यह जिम्मेदारी भी आपकी ही है!
     सरकारी शिक्षकों से  यह क्यों  नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर आम जनता का विश्वास आप  क्यों नहीं जीत पा रहे हैं ?प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों की अपेक्षा क्या तुम कम पढ़े लिखे हो या तुम पढ़ा नहीं सकते!या उनसे आपकी शिक्षा कम है या आप ट्रेंड नहीं हैं या आपको सैलरी उनसे कम मिलती है! आखिर स्कूल की ड्यूटी देने और जिम्मेदारी निभाने में लापरवाही क्यों?इसके साथ साथ सरकारी शिक्षकों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि यदि तुम्हारे यहाँ फीस या एडमीशन फीस भी नहीं ली जाती है भोजन भी बँटता है ऊपर से पैसे भी दिए जाते हैं।
    प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों की अपेक्षा आपकी  सैलरी भी कई गुना अधिक होती है यह किस बात की लेते हो तथा यह कहाँ से आती है?श्रीमान जी यह जनता की गाढ़ी कमाई में से टैक्स रूप में प्राप्त की गई धनराशि से पचासों हजार रुपए महीने की सैलरी तुम्हें दी जाती है!फिर भी असक्षम अभिभावक आर्थिक मजबूरी में अपने बच्चे को आपके यहाँ क्यों पढ़ाता है प्रसन्नता से क्यों नहीं?
    आपकी शिक्षा अधिक है आप ट्रेंड भी हैं फिर भी प्राइवेट स्कूलों से आप क्यों पिटते जा रहे हैं! आपकी उच्च शिक्षा एवं ट्रेंड होने का क्या लाभ हुआ समाज एवं सरकार को? सरकारी शिक्षकों से क्या यह भी नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर आप लोगों के अपने बच्चे क्यों नहीं पढ़ते हैं सरकारी स्कूलों में ?यदि वो न मानें तो एक बार इस बात की ईमानदारी पूर्वक जाँच क्यों न करा ली जाए!
       फिर हाल कहा जा सकता है सरकारी स्कूलों में बच्चों की न तो पढ़ाई है और न ही किसी की जिम्मेदारी !भगवान भरोषे चल रहे हैं स्कूल!जनता के नाम पर जनता का पैसा सरकारी शिक्षकों को सरकारें उधर बाँटती जा रही हैं इधर मीडिया वालों को बताती जा रहीं हैं। 
                    करिए   भैया   खूब  प्रचार 
                    यह  है शिक्षा का अधिकार 
                    भोजन   बाँट  रही सरकार
                    सबके  सब   बच्चे  बीमार !
   पहले गृहस्थों को महात्मा एवं नौजवानों को अध्यापक ही संयम और सदाचार पूर्वक सच्चरित्रता की शिक्षा देते थे।साथ ही दुराचरणों की निंदा करते थे।अब निन्दा करने वालों के चारों तरफ   वही सब होता दिख रहा है, निन्दा किसकी कौन और क्यों करे?अध्यापक वर्ग की स्थिति यह है सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती इस विषय में कोई अधिकारी कर्मचारी नियंत्रण करने को तैयार ही नहीं हैं क्या उसका यह दायित्व नहीं बनता!सरकारी शिक्षकों से पूछा जाना चाहिए कि यदि   तुम्हारे यहाँ भोजन भी बँटता है पैसे भी दिए जाते हैं।फीस या एडमीशन फीस भी नहीं ली जाती है और जनता की गाढ़ी कमाई में से टैक्स रूप में प्राप्त की गई धनराशि से सैलरी तुम्हें दी जाती है !उन शिक्षकों से  यह क्यों  नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर आम जनता का विश्वास आप  क्यों नहीं जीत पा रहे हैं ?आखिर वो अपना आदर्श शिक्षकों को न मानें तो किसे मानें!जब शिक्षक ही काम चोर होंगे तो बच्चे कैसे होंगे ईमानदार ? प्राइवेट स्कूलों में हर कोई अपने बच्चे को पढ़ा नहीं सकता सरकारी स्कूलों में यदि पढ़ाई नहीं होगी तो खाली दिमाग कुछ भी कर सकता है!वह सहने के लिए समाज को हमेशा तैयार रहना होगा!इन बच्चों का भविष्य बिगाड़ने वाले शिक्षकों के साथ साथ समाज के वे लोग भी जिम्मेदार हैं जो ऐसा देखते हुए भी सह रहे हैं ।किसी कवि ने लिखा है कि 

    जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।।

  


Friday, 17 April 2015

आधुनिक हाईटेक सत्संगों के साइड इफेक्ट हैं बलात्कार ! सत्संगों में या तो इतनी भीड़ नहीं होती और यदि होती तो समाज में इतने बलात्कार नहीं होते !

'सत्संग में शामिल होने वाले नहीं करते यौन हमले'-मोरारी बापू (NBT)

    हे संत श्रेष्ठ मोरारी बापू जी ! आपका कहना बिलकुल सही है और सत्संग में ये क्षमता है भी कि  प्रकार की मनो विकृतियों  सत्संग से लगाम लगाई जा सकती है किंतु वो भी सत्संग भी आप जैसे बीतरागी विरक्त संतों का हो तभी ऐसा संभव है किसी की आलोचना करना सुनना या धार्मिक प्रपंचों में सम्मिलित होना आपका स्वाभाव नहीं है यह जानते हुए भी चूँकि आप भी समाज के ही एक अंग हैं इसलिए आपको यह भी पता होगा कि सत्संग आज कल कैसे कैसे हो रहे हैं सत्संगों के नाम पर जिस प्रकार सेआज कल न केवल धर्म को व्यापार  बनाया जा रहा है अपितु धर्म की आड़ में बासना(Sex) का कारोबार जिस प्रकार से फल फूल रहा है ऐसे सत्संगों से जनता बचे कैसे पहले तो ये समझ दीजिए बाद में सत्संगों का महत्त्व तो सुनना ही है !

आज आश्रमों सत्संग शिविरों का दुरुपयोग करते हुए गैर जिम्मेदार लोग पराई लड़की या पत्नी के साथ अपनी धर्म भावना प्रदर्शित करके ठहर जाते हैं  जहाँ कोई शक भी नहीं करता है और इसी बहाने इतने दिनों तक साथ साथ बिता लेते हैं समय !ऐसे पुरुषों लड़कों या महिलाओं लड़कियों पर कोई शक  भी नहीं करता है बल्कि इनके घर वाले इस बात के लिए प्रशंसा कर रहे होते हैं कि चलो सत्संग में तो जाते हैं !किंतु ऐसे सत्संगों से समाज बिखरता है परवार टूटते हैं किन्तु जनता के पास इतना विवेक नहीं है कि वो इस बात पर भी ध्यान दे !इसीलिए ऐसे कामियों ने सत्संग शिविरों के नाम पर रैलियाँ करनी शुरू कर दी हैं जिनकी दिखाई पड़ती हैं भारी भीड़ें किंतु ये जन सैलाव यदि वास्तव में सत्संगों का होता तो या तो इतनी भीड़ नहीं होती और यदि होती तो बलात्कार नहीं होते !

   वैसे भी जो बाबा ब्यभिचारी हैं वो समाज के सहयोग से ही ऐसे हुए हैं उन्हें यहाँ तक पहुँचने के लिए धन देने वालों ने धन दिया,मन देने वालों ने मन दिया तन देने वालों ने तन दिया कुछ लोगों ने तो जीवन ही दे दिया है ये सच्चाई है फिर भी  दोष केवल बाबाओं का ही है क्या?

    माना कि योग बहुत अच्छी एवं भारत की अत्यंत प्राचीन विद्या है किंतु कलियुग में कुछ योगरिसर्चियों ने ब्याभिचारयोग और ब्यापारयोग आदि के रूप में योग की विभिन्न प्रजातियाँ विकसित की हैं वास्तव में ये लोग धन्य हैं इसी रूप में सही कम से कम तरक्की तो कर रहे हैं क्योंकि पुराने योगियों को तो तरक्की करनी भी नहीं आती थी उन्हें तो केवल खाली मूली योग की ही जानकारी रही होगी इसीलिए वे बेचारे उतनी तरक्की नहीं कर पाए और दूसरीबात उन्हें उतनी गालियाँ  देना भी नहीं आता होगा इसीलिए वो राजा या राजमंत्री या राजा के कृपा पात्र नहीं बन सके खैर ,योग की महिमा अपरम्पार है किन्तु योग के साथ ऐसा व्यवहार होगा ये उन पवित्र पूर्वजों ने कभी नहीं सोचा होगा !संभवतः इसी लिए कह दिया होगा कि -योगश्चित्त वृत्ति निरोधः !

  संन्यासियों को सब कुछ छोड़ कर केवल भजन करने को शास्त्रों में क्यों कहा गया ? वस्तुतः पहले भी तो वह एक घर में रहते थे बाद में आश्रम में रहने लगे!पहले पत्नी बच्चों के साथ थे बाद में चेला चेलियों से घिरे रहने लगे !धन पहले कमाते थे साधू बनने के बाद भी कमाते हैं जो तब खाते थे वो अब खाते हैं  जैसे वातावरण में पहले रहते थे वैसे वातावरण में साधू बनने के बाद भी  भी रहा करते हैं ! पहले सारा दिन ब्यर्थ के सांसारिक प्रपंच में बीत जाता था साधू बनने के बाद भी दिनचर्या वैसे ही चल रही है चुनाव जिताने के लिए झूठ साँच बोलते घूम रहे हैं !

     कोई व्यक्ति जब अपना पत्नी बच्चों सहित घर बार छोड़कर साधू बनता है तो उसके मन और जीवन में वैराग्य का बदलाव तो आना ही चाहिए यदि ऐसा नहीं हो पाता  है तो केवल कपड़ों का कलर बदलने के लिए गृहस्थी क्यों छोड़ना ?

     क्या इसे ये नहीं कहा जा सकता है कि पत्नी बच्चों के पोषण के भय से भड़भड़ाकर कर भाग खड़े हुए हैं !

    किन्तु इस भगोड़ेपन को वैराग्य या संन्यास क्यों और कैसे कहा जाए जिसमें शास्त्रीय वैराग्य और  संन्यास के लक्षण ही न पाए जाते हों !

     वैसे  भी धन और बासना का परस्पर अद्भुत सम्बन्ध है इसीलिए  बासना से बचने के लिए पुराने साधू संत महिलाओं से मध्यम दूरी  बनाकर रहते थे ऐसा नहीं कि उन्हें महिलाओं से भय होता था अपितु उन्हें अपने मन से भय होता था कि स्त्री पुरुष शरीरों की प्रकृति में अंतर होने के कारण हमारा मन कहीं विकारों में भटक न जाए ! दूसरा खतरा वैरागी मन को धन से होता है क्योंकि जब धन होगा तो जहाँ जहाँ धन लगता है वहाँ वहाँ मन लगता ही है । आप स्वयं सोचिए जब आश्रम नाम का सुन्दर सा भवन होगा उसमें सुन्दर सुन्दर बेड रूम होंगे जिनमें सुन्दर सुंदर बेड पड़े होंगे इस प्रकार से जो साधू जो संत जो महात्मा जो संन्यासी अपनी इच्छाओं को बेड रूम और बेड तक पहुँचने  में नहीं रोक सका वो आगे खाक रोक पाएगा !बिस्तर पर लाल चद्दर बिछा लेने से किसी को संन्यासी कैसे मान लिया जाए ।आपने भी बहुत पुराने संतों के विषय में सुना होगा कि वे पैसे नहीं छूते थे इसका एक मात्र कारण  धन एवं धन से पनपने वाले विकारों से अपने को अलग रखना था !वो बासनात्मक विकारों नहीं फँसना चाहते थे!

 आज जो लोग आशाराम जी जैसे लोगों को दोष देते हैं मैं उससे सहमत नहीं हूँ !अजीब सी बात है लोग ऐसे बाबाओं के आगे सब कुछ तो परोस देते हैं और फिर चाहते हैं कि वो मुख बाँध कर रहे किसी चीज का भोग न करे !ऐसा कैसे सम्भव है ?

     उनके आश्रमों में धन है गाड़ियाँ हैं अच्छा अच्छा खाना पीना है शौक शान का सारा सामान होता है एक महिला को छोड़कर जो आदमी बाबा बना होता है अब  उसके पीछे या चारों ओर महिलाएँ  ही महिलाएँ घेरे होती हैं फिर भी कमी पड़ती है तो समाज समय समय पर उसकी आपूर्ति भिन्न भिन्न रूपों में करता रहता है जैसे -बाबा जी ने गुरुकुल चला दिया तो समाज अपनी बच्चियाँ  भेजने लगा,बाबा जी गरीब कन्याओं की शादी कराने लगे तो लोग अपनी बच्चियाँ ले लेकर जाने लगे!बाबा जी अस्पताल या स्कूल चलाते हैं दवा बनाने बेचने का धंधा कर लेते हैं तो कर्मचारियों के रूप में स्वयमेव सब कुछ उपलब्ध रहता है।साधुओं के साधुत्व को बिगाड़ने में इन सेवा कार्यों का महत्वपूर्ण योगदान है!इनसे सबकुछ मुदा  छिपा चला करता है किसी को कोई शक भी नहीं होता है किन्तु भांडा  फूटता है तो आशाराम जी की तरह एक ही बार में सब कबूलने लगते है कि हमारे साथ ऐसा हुआ था वैसा हुआ था !इन सारे प्रकरणों में अपना कोई दोष ही मानने को तैयार ही नहीं होते हैं दस दस साल पुराने मामले खुल रहे हैं अरे पूछो अभी तक कहाँ थे भाई ?बोले अभी तक तो उन्हीं के साथ थे !!!

 साधुओं को इस तरह के संसाधन उपलब्ध करने में समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग समर्पित है न जाने उसका क्या लोभ है? क्योंकि वह इतना भोला होगा कि इस कलियुग में भी उसे कुछ पता ही नहीं है मैं इससे सहमत नहीं हूँ !ये सब जान बूझ कर हो रहा है और बहुत जगहों पर हो रहा है जो पकड़ जाए सो अपराधी अन्यथा सौ संतों का संत !

    मैं यह भी नहीं कहूँगा कि सब जगहों पर ऐसा ही होता है क्योंकि बहुत आश्रमों में सेवाकार्य भी सफलता एवं सच्चरित्रता पूर्वक संचालित किए जा रहे हैं किन्तु उन्हीं की आड़ लेकर विकारवान बाबा लोग असामाजिक गतिविधियों को भी संचालित कर रहे हैं इससे भी समाज को पूरी तरह सतर्क रहने की आवश्यकता है अपने को सँभाल ले दोष किसी और का क्यों दिया जाए ?

     यदि हम धर्म ग्रन्थ नहीं पढते हैं तो हमसे गलतियाँ होनी स्वाभाविक हैं जैसे -  

     स्मृतियों में स्पष्ट लिखा है कि इन तीन दान देने वालों को भी नरक होता है -

1. जो कोई महात्माओं को स्वर्ण अर्थात धन दान में देता है वह नरक जाता है !

2.जो ब्रह्म चारियों को पान का दान करता  है वह नरक जाता है !

3. जो चोरों को अभय दान देता है  वह नरक जाता है !

यथा-

                 यतये काञ्चनं दत्वा ताम्बूलं ब्रह्म चरिणा।

            चौरेभ्यो अभयं दत्वा दातापि नरकं ब्रजेत्॥ 

                                                                                    -पराशर

       जहाँ तक मेरी निजी धारणा है मैं ऐसे सभी धर्म व्यापारी बाबाओं के आचरणों से आहत हूँ मेरा विश्वास है कि ऐसे सभी अविरक्त महात्माओं से किसी भी रूप में जुड़े रहने वाले किसी भी स्त्री पुरुष को तब तक विश्वसनीय नहीं माना जाना चाहिए जब तक जाँच रिपोर्ट न आ जाए क्योंकि वैराग्य विहीन बाबाओं के आश्रमों में एक रात भी किसी ने क्या सोच कर गुजारी?यह बात मानी जा सकती है कि किसी को शुरू के दो चार दिन  चारित्र्यिक प्रदूषण का शिकार न बनाया गया हो किन्तु वहाँ का वातावरण कैसा है इसका आभास तो प्रारंभ में हो ही जाता है फिर भी वहाँ महीनों या वर्षों बिताना कहाँ तक उचित था?खैर एक शिकायत मुझे मीडिया से भी है कि बिना बैराग्य वाले धनी सभी बाबाओं  में धन का सुख भोगने कि भावना तो आ ही जाती है जो सब में ही है फिर मीडिया का क्रोध केवल आशाराम पर ही क्यों हैं  यदि मीडिया का उद्देश्य वास्तव में धर्म रक्षा है  तो खुल कर एक बार आ जाना चाहिए सामने!
     एक और चिंता कि बात है कि आज तक किसी टी.वी. चैनल पर किसी परिचर्चा में कोई संत नहीं लाया गया जो अपना पक्ष भी रखता ? ये जो आर्टिफिशियल बाबा परिचर्चाओ  में सम्मिलित किए भी जा रहे हैं उनका धर्म से क्या लेना देना? कोई भाजपा का बाबा होता है कोई कांग्रेस या किसी अन्य दल का कुछ लुटे पिटे पत्रकार या वकील रह चुके होते हैं,या कुछ बाबा होने के बाद भी किसी सभा सोसायटी के अध्यक्ष बने फिरते हैं   किन्तु इन बवालियों का मन  भजन में तो  लगता नहीं है इसलिए लाल कपड़ों में शरीर तो लिपेट लिया है किन्तु मन अपनी पुरानी आदतें छोड़ने को तैयार नहीं है आजतक ऐसे सभी असफल आशाराम ही आशाराम की आलोचनाओं में ज्यादा रुचि ले रहे हैं बाकी चरित्रवान संतों  के पास समय  कहाँ है कि वे ऐसे प्रपंचों में फंसें !
 

   इसी प्रकार  चरित्रवान आम स्त्री पुरुषों के पास न तो समय बाबाओं के पीछे पीछे घूमने का  है और न ही उनकी निंदा या समर्थन में साथ देने का | ऐसी  महंगाई में जीवन चला पाना ही कितना कठिन है फिर भले लोगों के पास बबई गिरी के लिए समय कहाँ है !

     अब समय आ गया है जब ऐसी हरकतों पर लगाम लगनी  चाहिए जिससे धर्म  की हानि  संभव हो अन्यथा इन लोगों का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा किन्तु कुछ लोगों की ऐसी हरकतों से सच्चरित्र साधुओं पर भी अंगुलियाँ उठने लगी हैं जो सबसे बड़ा  चिंता का विषय है!
     इन सब बातों के साथ साथ यह स्वीकार करने में भी अब संकोच नहीं  होना चाहिए कि अब समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग सेक्स के प्रति समर्पित हो चुका है जिसमें नेताओं से लेकर बाबाओ तक ने बढचढ कर  भाग ले रखा है| सेक्स के प्रति  समर्पण में स्त्री पुरुषों में लगभग समानता दिखती  है  अगर बाबा दुश्चरित्र हैं तो उनके प्रति समर्पित होने वाली भीड़ का समर्पण भी देखते ही बनता है!
    मलमल बाबा की तथाकथित कृपा लूटने के लिए लालायित गिडगिडा  रहे  भक्तों को देखकर कई बार मैं सोचने लगता हूँ कि आज मलमल दरवार में  बात बात में रोने वाली भक्ताएं कल चिल्लाती घूमेंगी! आखिर इस सच को समाज समझने के लिए तैयार क्यों नहीं है कि अब युग बदल चुका है ये कलियुग है इसका प्रभाव बाबाओं पर भी पड़ा है सदाचार का उपदेश देने वाले बाबा अब दुराचार में जेलों बंद हो रहे हैं इस लिए बहुत संभल कर चलने कि जरुरत है !
      अब समाज की सोच बिलकुल बदल चुकी है आज  सेक्स से जुड़े अधिकांश अपराधों में दोनों तरफ से पहले तो सब कुछ ठीक चलता है किन्तु बाद में जब आपसी असंतोष  पनपता है तब स्त्री निरपराध और पुरुष अपराधी घोषित कर दिया जाता है!
        गैंग रेप के अधिकांश केशों में भी कुछ ऐसा ही घटित होता है किसी सार्वजानिक स्थल पर अपने प्रेमी नाम के सेक्स क्षुधा से पीड़ित लड़के की अश्लील हरकतें  हँस  हँस कर सहने या उसमें साथ देने वाली लड़की को देखकर  देखने वालों का बेचैन होना स्वाभाविक  है इन्हीं दर्शको में  यदि शरारती किस्म के कुछ लड़के एक जैसी मानसिकता के हुए तो ऐसे जोड़ों के पीछे लग जाते हैं और जहाँ एकांत मिला वहीँ उस अकेले प्रेमी नाम के सेक्सालु को पकड़ कर बांध देते हैं क्योंकि वे कई होते हैं और फिर लड़की के साथ करते हैं मनमानी!
     मेट्रो के फुटेज देखने के बाद तो यह और साफ हो चुका है कि प्रेमी जोड़े मेट्रो  में भी ऐसी हरकतें करते हैं जिनके सुधरे बिना  ऐसी दुर्घटनाओं  पर कानून के बल पर लगाम लगा पाना निजी तौर पर हमें दिवा स्वप्न से अधिक कुछ नहीं लगता है !खैर...हमें तो यही कहना है की  सबके  सुधरने पर ही सुधर संभव हो सकता है जादू या किसी भी  प्रकार  के चमत्कार की उम्मीद तो प्रशासन से भी नहीं की जानी चाहिए!  

   



Wednesday, 15 April 2015

प्राइमरी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था से उठ चुका है जनता का विश्वास ! इसे कैसे वापस लाया जाए !

     सरकारी  प्राइमरी स्कूलों की शिक्षा के नाम पर हो रहा है गरीब बच्चों की जिन्दगी के साथ हो रहा है खुला खिलवाड़ !एक शिक्षक सारी कक्षाओं में घूम कर बता आता है राइटिंग आदि लिखने को फिर बैठकर आफिस में करते हैं मीटिंग फिर दूसरा शिक्षक घूम आता है घंटे दो घंटे में बस हो जाती है छुट्टी !क्या ऐसे होती है पढ़ाई !ये रा ष्ट्रिय राजधानी दिल्ली की स्थिति है तो देश की क्या होगी !हमारी बिटिया दिल्ली कृष्णा नगर के   ही  कुछ दिन इसी लापरवाही के कारण स्कूल नहीं भेजी गई तो उसकी
  जो शिक्षक ही कामचोर और लापरवाह होंगे वो कैसे दे सकेंगे बच्चों को ईमानदारी के संस्कार ! शिक्षक बहुत बड़ा सम्मानित पद है किंतु इसका एहसास प्राइमरी स्कूलों के शिक्षकों को बिलकुल भी नहीं है आज सरकारी या निगम स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था की सारे देश में थू थू हो रही है हर कोई एक झटके में न केवल कह देता है कि सरकारी स्कूलों में तो पढ़ाई ही नहीं होती है अपितु गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहता है सरकारी शिक्षक,या सभी प्रकार के कर्मचारी ,विधायक  सांसद मंत्री एवं सभी धनी लोग अपने बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहते सरकारी और निगम स्कूलों में ! फिर भी वहाँ शिक्षा के विज्ञापन के लिए पैसा बहाया जाता है नैतिक स्लोगन लिखवाए जाते हैं आखिर किस लिए फूँका जाता है ये जनता का धन !बच्चे केवल स्लोगन पढ़ करर नहीं सुधर सकते वो तो अपने शिक्षकों के आचार व्यवहार से सीखते हैं !क्या आज सरकारी शिक्षकों में ऐसा कोई पवित्र आचार व्यवहार रहगया है जिससे वे बच्चों को कुछ सिखाने लायक हों इसीलिए बिगड़ रहे हैं बच्चे !बढ़ रहे हैं अपराध भ्रष्टाचार बलात्कार हत्याएँ आदि !क्योंकि संस्कार शून्य लोग शिक्षकों के नाम पर स्कूलों की शोभा बढ़ा रहे हैं ! चूँकि शिक्षाधिकारी केवल मीटिंग करते हैं उनका शिक्षा से कोई लेना देना नहीं होता है और शिक्षक उन्हीं के मीटिंगों के इंतजामों में लगे रहते हैं !
     जो विद्यालय हों ही जनता के लिए किंतु जनता को उन पर भरोस भी न हो तो क्या फायदा उन्हें ढोने से !जनता का पैसा है तो क्या हुआ ?जब शिक्षकों को बच्चों के भविष्य एवं अपने कर्तव्य पालन की चिंता ही न हो  ऐसे शिक्षकों से क्या प्रेरणा लेंगे बच्चे और कैसे सुधरेगा उनका भविष्य ?
    कई बार भीषण शर्दी गर्मी और बरसते पानी में भी सुबह सुबह माता पिता अपने बच्चे तैयार करके स्कूल भेज आते हैं किंतु कई बार ऐसा होता है कि बच्चे पाँच घंटे बैठकर चले आते  हैं स्कूल से जहाँ कोई कक्षा में देखने ही नहीं जाता है उन बच्चों को ! उनके बिगड़ते भविष्य एवं माता पिता की बेबसी को देखकर मैं अक्सर भिन्न भिन्न स्कूलों में चला जाता हूँ नैतिकता का उपदेश करने इतना ही मैं कर भी सकता हूँ अन्यथा वो लोग हमें घुसने भी नहीं देंगे अपने स्कूलों में ! किन्तु मेरी सुनता कौन है !महोदय ! राष्ट्रीय राजधानी में कई जगह तो शिक्षक ही विषय से अनभिज्ञ हैं !
     पाँच दस हजार में प्राइवेट स्कूलों को यदि शिक्षक मिल जाते हैं तो सरकार चाहे तो सरकार को भी मिल सकते हैं उसी सैलरी में भरपूर शिक्षक!फिर सरकार अधिक सैलरी देकर कम शिक्षक क्यों उपलब्ध करा पा  रही है स्कूलों को ? सरकारी प्राइमरी स्कूल के एक शिक्षक की सैलरी में कम से कम चार वो शिक्षक मिल सकते हैं जो प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं जिनकी शिक्षा पर सरकार एवं सरकारी शिक्षक भी इतना भरोसा करते हैं कि अधिकांश लोग अपने बच्चे प्राइवेट स्कूलों में उन्हीं के यहाँ  पढ़ाते हैं ऐसे भरोसेमंद शिक्षक यदि कम सैलरी में मिलते हों तो अधिक सैलरी देकर भी उन शिक्षकों को रखने की सरकार की मजबूरी क्या है जिनकी लापरवाही विश्वविदित हो !जिनसे जनता का विश्वास इतना टूट चुका हो कि हर कोई अपने बच्चे को प्राइवेट में ही पढ़ाना चाहता है जो सरकारी में भी अपने बच्चे पढ़ा रहा है तमन्ना उसकी भी है कि वो भी प्राइवेट में ही पढ़ावे !समाज की ये धारणा है सरकारी स्कूलों के प्रति !फिर सरकार की ऐसी मजबूरी क्या है कि वो ऐसे ही लापरवाह शिक्षकों से चिपकी रहना चाहती है आखिर शिक्षा व्यवस्था को ऐसी गैर जिम्मेदारी से मुक्त करने का क्या कोई विकल्प ही नहीं बचा है !इनके ट्रेंड होने का बच्चों को क्या लाभ ! इनसे तो भले वो अंट्रेंड शिक्षक जिन्होंने जनता का विश्वास तो बना और बचा रखा है !इन्हें तो विश्वास की भी चिंता ही नहीं लगती है !
  बंधुओ !इतनी ही सैलरी में अधिक लोगों की बेरोजगारी दूर की जा सकती है उतने ही धन में स्कूलों को जिम्मेदार और अधिक शिक्षक मिल सकते हैं जो बेरोजगारी का दंश झेलते झेलते पैसे की कीमत समझने लगे होंगे जो बच्चों को आत्मीयता एवं परिश्रम पूर्वक पढ़ाने वाले शिक्षक होंगे क्योंकि उन्हें नौकरी छूट जाने का भय  भी तो होगा !
    कुल मिलाकर वर्तमान समय में भारत सरकार के प्राइमरी स्कूलों से समाज का विश्वास जब इतना टूट चुका है फिर इस शिक्षा व्यवस्था को अकारण ढोने का क्या लाभ !ऊपर से ऐसी शिक्षा की प्रशंसा के लिए इतने इतने महँगे विज्ञापन दिए जा रहे हैं आखिर क्यों ?जनता के पैसे का ये हाल !जहाँ किसी की जवाबदेही ही नहीं है । 
   जब सरकारी विद्यालयों में कोई देखने सुनने वाला ही  नहीं है किसी की किसी भी प्रकार की कोई जिम्मेदारी ही नहीं है।अधिकारियों का काम केवल मीटिंग करना और शिक्षकों का काम उनकी हाँ हुजूरी करना उनके यहाँ परिक्रमा करते रहना बस ! बच्चों का किसी से क्या लेना देना ! बच्चे स्कूलों में जाते हैं भोजन वाले भोजन दे जाते हैं बच्चे खा लेते हैं अध्यापकों को समय मिला तो स्कूलों में  या कक्षाओं में चक्कर लगा गए कुछ राइटिंग वगैरह लिखने को बता गए नहीं समय मिला तो कोई बात नहीं !अभिभावक कुछ कह नहीं सकते अधिकारी कोई आता नहीं है आता भी है तो चाय पानी करके चला जाता है कक्षाओं में गया भी तो चला गया बस ड्यूटी पूरी हो गयी!वापस लौट गया अधिकारी !क्या यही है शिक्षा का अधिकार ?
    कहीं ऐसे चलते हैं स्कूल!क्या ऐसे होती है पढ़ाई!इस विद्यालय में यदि अधिकारी जी के अपने पिता जी का पैसा लगा होता तो क्या अधिकारी महोदय ऐसे ही चला लेते विद्यालय ?
   अधिकांश सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति यह है कि वहॉं शिक्षा के नाम पर केवल खाना पूर्ति हो रही है प्रायः विद्यालय साढ़े सात बजे खुलते हैं किंतु प्रायः आठ सवा आठ बजे तक अध्यापक पहुँच  पाते हैं विद्यालय। आपस में मिलते जुलते एवं आफिस में जाकर उपस्थिति का रजिस्टर लेते देते प्रधानाचार्य जी की खैर कुशल पूछते पूछते बीत जाता है बीत जाता है आधा पौना घंटा,कक्षा में पहुँचते पहुँचते नौ सवा नौ बज ही जाते हैं! बच्चों की किताब खोलकर उन्हें राइटिंग आदि लिखने को या किसी कापी किताब से कोई सवाल लिखने लगाने को बता दिया जाता है।इसी बीच साढ़े नौ बजे लंच हो जाता है जो साढे़ दस से ग्यारह बजे के बीच तक कहीं पूरा हो पाता है मुश्किल से ! इसके बाद बारी बारी से किसी न किसी शिक्षक को प्रतिदिन जरूरी काम लगा करता है और वह निकल जाता है इसीप्रकार बारी बारी से एक आध लोग प्रतिदिन बीमार होने के कारण चले जाते हैं उनको दवा लेने की जल्दी होती है इसलिए वो निकल जाते हैं।बारी बारी से कुछ शिक्षक शिक्षिकाएँ  छुट्टी की घोषणा करने को बैठे रहते हैं किंतु अभिभावकों को पहले ही समझाया जा चुका होता है कि साढ़े बारह बजे छुट्टी होनी है उसके एक मिनट बाद भी आपके बच्चे की हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है!इसलिए अपना बच्चा समय से ले जाना!अभिभावकों को भी चिंता रहती है कि कहीं हमारा बच्चा अकेला न छूट जाए इस बात से भयभीत अभिभावक बारह बजे से ही स्कूल में पहुँचने लगते हैं और अपना अपना बच्चा लेकर चले आते हैं।साढ़े बारह बजते बजते बिरले ही कुछ बच्चे बच जाते हैं बाकी जा चुके होते हैं।
    इस सारी प्रक्रिया में पढ़ने पढ़ाने का समय ही कब होता है?और पढ़ाता कौन है पढ़ता कौन है अब तो बच्चों के रिजल्ट का भी कोई झंझट नहीं है।शिक्षकों को भय किसका है?
     उपर्युक्त इन्हीं सब कारणों से सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चे पढ़ाने वाले अभिभावक को लोग इतनी हिकारत की निगाह से देखने लगते हैं जैसे उसका अपने बच्चे से कोई लगाव ही न हो और वो समाज का सबसे गया गुजरा इंसान हो!सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चे पढ़ाने वाले माता पिता का सामाजिक स्तर इतना गिर चुका होता है कि न वो बच्चे से पूछ पाते हैं कि वहॉं पढ़ाई क्या होती है न शिक्षकों से!दोनों का एक ही जवाब होता है कि यदि पढ़ाना ही था तो प्राइवेट विद्यालय में पढ़ा लेते!इसलिए माता पिता बच्चे को भेज आते हैं ले आते हैं इसके अलावा स्कूल वालों से वो कोई प्रश्न करें उनमें इतना साहस कहॉं होता है?क्या यही है शिक्षा का अधिकार ?
     ऐसी परिस्थिति में शिक्षा का अधिकार जैसा कानून भी आखिर क्या कर लेगा जब शिक्षक लापरवाह होंगे अधिकारी कर्तव्य भ्रष्ट होंगे तो मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री तो स्कूल स्कूल दौड़े नहीं घूमेंगे!अधिकारियों को ही अपना नैतिक दायित्व समझते हुए शक्त  होना पड़ेगा!अन्यथा यदि स्कूलों में पढ़ाई ही नहीं होगी!तो क्या कर लेगा शिक्षा का अधिकार ?
           इस बात के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाई नहीं होती है लापरवाही का आलम यह है कि वहॉं का भोजन करके बच्चे न केवल बीमार होते हैं अपितु कई बार बच्चों के मर जाने तक की दुखद खबरें सुनाई पड़ती हैं!अभी अभी इस तरह दुर्घटनाओं ने तो सारे देश को हिलाकर रख दिया है!यह लगभग सबको पता है सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों और शिक्षकों के बीच कोई संबंध ही नहीं बन पाता है क्योंकि बच्चों और शिक्षकों की मुलाकातें ही इतनी कम हो पाती हैं अन्यथा बच्चे खराब भोजन संबंधी भी अपनी बात अध्यापकों को बता सकते थे!
    इसीलिए किसी से भी पूछ लिया जाए कि वह अपने बच्चे को सरकारी विद्यालय में क्यों नहीं पढ़ाता है वो सच सच बता देगा!आखिर किसी को शौक थोड़ा है कि वो अपने बच्चों को मोटी मोटी फीसें देकर प्राइवेट विद्यालयों  में पढ़ावे!              
      बाहर की बात क्या कही जाए दिल्ली के निगम से लेकर सरकारी प्राथमिक स्कूलों तक में पढ़ाई की यही स्थिति है इस विषय में कोई अधिकारी कर्मचारी नियंत्रण करने को तैयार ही नहीं है किसी की कोई जवाबदेही नहीं  होती है, क्या किसी भी अधिकारी का यह दायित्व नहीं बनता है कि वो अपने शिक्षकों से पूछे कि तुम्हारे स्कूलों का सम्मान प्राइवेट स्कूलों की अपेक्षा दिनों दिन घटता क्यों जा रहा है?किसी भी शिक्षण संस्थान की लोकप्रियता वहॉं के अध्यापकों के बात ब्यवहार और कर्तव्य परायणता पर निर्भर करती है!सरकारी प्राथमिक स्कूलों का सम्मान बढ़ाने की जिम्मेदारी आपकी है यदि घट रहा है तो यह जिम्मेदारी भी आपकी ही है!
     सरकारी शिक्षकों से  यह क्यों  नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर आम जनता का विश्वास आप  क्यों नहीं जीत पा रहे हैं ?प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों की अपेक्षा क्या तुम कम पढ़े लिखे हो या तुम पढ़ा नहीं सकते!या उनसे आपकी शिक्षा कम है या आप ट्रेंड नहीं हैं या आपको सैलरी उनसे कम मिलती है! आखिर स्कूल की ड्यूटी देने और जिम्मेदारी निभाने में लापरवाही क्यों?इसके साथ साथ सरकारी शिक्षकों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि यदि तुम्हारे यहाँ फीस या एडमीशन फीस भी नहीं ली जाती है भोजन भी बँटता है ऊपर से पैसे भी दिए जाते हैं।
    प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों की अपेक्षा आपकी  सैलरी भी कई गुना अधिक होती है यह किस बात की लेते हो तथा यह कहाँ से आती है?श्रीमान जी यह जनता की गाढ़ी कमाई में से टैक्स रूप में प्राप्त की गई धनराशि से पचासों हजार रुपए महीने की सैलरी तुम्हें दी जाती है!फिर भी असक्षम अभिभावक आर्थिक मजबूरी में अपने बच्चे को आपके यहाँ क्यों पढ़ाता है प्रसन्नता से क्यों नहीं?
    आपकी शिक्षा अधिक है आप ट्रेंड भी हैं फिर भी प्राइवेट स्कूलों से आप क्यों पिटते जा रहे हैं! आपकी उच्च शिक्षा एवं ट्रेंड होने का क्या लाभ हुआ समाज एवं सरकार को? सरकारी शिक्षकों से क्या यह भी नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर आप लोगों के अपने बच्चे क्यों नहीं पढ़ते हैं सरकारी स्कूलों में ?यदि वो न मानें तो एक बार इस बात की ईमानदारी पूर्वक जाँच क्यों न करा ली जाए!
       फिर हाल कहा जा सकता है सरकारी स्कूलों में बच्चों की न तो पढ़ाई है और न ही किसी की जिम्मेदारी !भगवान भरोषे चल रहे हैं स्कूल!जनता के नाम पर जनता का पैसा सरकारी शिक्षकों को सरकारें उधर बाँटती जा रही हैं इधर मीडिया वालों को बताती जा रहीं हैं। 
                    करिए   भैया   खूब  प्रचार 
                    यह  है शिक्षा का अधिकार 
                    भोजन   बाँट  रही सरकार
                    सबके  सब   बच्चे  बीमार !
   पहले गृहस्थों को महात्मा एवं नौजवानों को अध्यापक ही संयम और सदाचार पूर्वक सच्चरित्रता की शिक्षा देते थे।साथ ही दुराचरणों की निंदा करते थे।अब निन्दा करने वालों के चारों तरफ   वही सब होता दिख रहा है, निन्दा किसकी कौन और क्यों करे?अध्यापक वर्ग की स्थिति यह है सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती इस विषय में कोई अधिकारी कर्मचारी नियंत्रण करने को तैयार ही नहीं हैं क्या उसका यह दायित्व नहीं बनता!सरकारी शिक्षकों से पूछा जाना चाहिए कि यदि   तुम्हारे यहाँ भोजन भी बँटता है पैसे भी दिए जाते हैं।फीस या एडमीशन फीस भी नहीं ली जाती है और जनता की गाढ़ी कमाई में से टैक्स रूप में प्राप्त की गई धनराशि से सैलरी तुम्हें दी जाती है !उन शिक्षकों से  यह क्यों  नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर आम जनता का विश्वास आप  क्यों नहीं जीत पा रहे हैं ?आखिर वो अपना आदर्श शिक्षकों को न मानें तो किसे मानें!जब शिक्षक ही काम चोर होंगे तो बच्चे कैसे होंगे ईमानदार ? प्राइवेट स्कूलों में हर कोई अपने बच्चे को पढ़ा नहीं सकता सरकारी स्कूलों में यदि पढ़ाई नहीं होगी तो खाली दिमाग कुछ भी कर सकता है!वह सहने के लिए समाज को हमेशा तैयार रहना होगा!इन बच्चों का भविष्य बिगाड़ने वाले शिक्षकों के साथ साथ समाज के वे लोग भी जिम्मेदार हैं जो ऐसा देखते हुए भी सह रहे हैं ।किसी कवि ने लिखा है कि 

    जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।।

  


मनीष सिसोदिया जी ! आपके शिक्षण संस्थानों के शुद्धिकरण की भावना को बधाई !

शिक्षा मंत्री सिसोदिया की छापेमारी में प्रिसिंपल सस्पेंड-एक खबर

    सिसोदिया जी !आप आर्थिक घपले घोटाले तो देखिए ही साथ ही यह भी याद रखिए कि भीषण शर्दी गर्मी और बरसते पानी में भी सुबह सुबह माता पिता अपने बच्चे तैयार करके स्कूल भेज आते हैं किंतु कई बार ऐसा होता है कि बच्चे पाँच घंटे बैठकर चले आते  हैं स्कूल से जहाँ कोई कक्षा में देखने ही नहीं जाता है उन बच्चों को ! उनके बिगड़ते भविष्य एवं माता पिता की बेबसी को देखकर मैं अक्सर भिन्न भिन्न स्कूलों में चला जाता हूँ नैतिकता का उपदेश करने इतना ही मैं कर भी सकता हूँ अन्यथा वो लोग हमें घुसने भी नहीं देंगे अपने स्कूलों में ! किन्तु मेरी सुनता कौन है !महोदय ! राष्ट्रीय राजधानी में कई जगह तो शिक्षक ही विषय से अनभिज्ञ हैं !
     श्रीमानजी ! पाँच दस हजार में प्राइवेट स्कूलों को यदि शिक्षक मिल जाते हैं तो सरकार चाहे तो सरकार को भी मिल सकते हैं उसी सैलरी में भरपूर शिक्षक!फिर सरकार अधिक सैलरी देकर कम शिक्षक क्यों उपलब्ध करा पा  रही है स्कूलों को ? सरकारी प्राइमरी स्कूल के एक शिक्षक की सैलरी में कम से कम चार वो शिक्षक मिल सकते हैं जो प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं जिनकी शिक्षा पर सरकार एवं सरकारी शिक्षक भी इतना भरोसा करते हैं कि अधिकांश लोग अपने बच्चे प्राइवेट स्कूलों में उन्हीं के यहाँ  पढ़ाते हैं ऐसे भरोसेमंद शिक्षक यदि कम सैलरी में मिलते हों तो अधिक सैलरी देकर भी उन शिक्षकों को रखने की सरकार की मजबूरी क्या है जिनकी लापरवाही विश्वविदित हो !जिनसे जनता का विश्वास इतना टूट चुका हो कि हर कोई अपने बच्चे को प्राइवेट में ही पढ़ाना चाहता है जो सरकारी में भी अपने बच्चे पढ़ा रहा है तमन्ना उसकी भी है कि वो भी प्राइवेट में ही पढ़ावे !समाज की ये धारणा है सरकारी स्कूलों के प्रति !फिर सरकार की ऐसी मजबूरी क्या है कि वो ऐसे ही लापरवाह शिक्षकों से चिपकी रहना चाहती है आखिर शिक्षा व्यवस्था को ऐसी गैर जिम्मेदारी से मुक्त करने का क्या कोई विकल्प ही नहीं बचा है !इनके ट्रेंड होने का बच्चों को क्या लाभ ! इनसे तो भले वो अंट्रेंड शिक्षक जिन्होंने जनता का विश्वास तो बना और बचा रखा है !इन्हें तो विश्वास की भी चिंता ही नहीं लगती है !
  बंधुओ !इतनी ही सैलरी में अधिक लोगों की बेरोजगारी दूर की जा सकती है उतने ही धन में स्कूलों को जिम्मेदार और अधिक शिक्षक मिल सकते हैं जो बेरोजगारी का दंश झेलते झेलते पैसे की कीमत समझने लगे होंगे जो बच्चों को आत्मीयता एवं परिश्रम पूर्वक पढ़ाने वाले शिक्षक होंगे क्योंकि उन्हें नौकरी छूट जाने का भय  भी तो होगा !
    कुल मिलाकर वर्तमान समय में भारत सरकार के प्राइमरी स्कूलों से समाज का विश्वास जब इतना टूट चुका है फिर इस शिक्षा व्यवस्था को अकारण ढोने का क्या लाभ !ऊपर से ऐसी शिक्षा की प्रशंसा के लिए इतने इतने महँगे विज्ञापन दिए जा रहे हैं आखिर क्यों ?जनता के पैसे का ये हाल !जहाँ किसी की जवाबदेही ही नहीं है । 
   जब सरकारी विद्यालयों में कोई देखने सुनने वाला ही  नहीं है किसी की किसी भी प्रकार की कोई जिम्मेदारी ही नहीं है।अधिकारियों का काम केवल मीटिंग करना और शिक्षकों का काम उनकी हाँ हुजूरी करना उनके यहाँ परिक्रमा करते रहना बस ! बच्चों का किसी से क्या लेना देना ! बच्चे स्कूलों में जाते हैं भोजन वाले भोजन दे जाते हैं बच्चे खा लेते हैं अध्यापकों को समय मिला तो स्कूलों में  या कक्षाओं में चक्कर लगा गए कुछ राइटिंग वगैरह लिखने को बता गए नहीं समय मिला तो कोई बात नहीं !अभिभावक कुछ कह नहीं सकते अधिकारी कोई आता नहीं है आता भी है तो चाय पानी करके चला जाता है कक्षाओं में गया भी तो चला गया बस ड्यूटी पूरी हो गयी!वापस लौट गया अधिकारी !क्या यही है शिक्षा का अधिकार ?
    कहीं ऐसे चलते हैं स्कूल!क्या ऐसे होती है पढ़ाई!इस विद्यालय में यदि अधिकारी जी के अपने पिता जी का पैसा लगा होता तो क्या अधिकारी महोदय ऐसे ही चला लेते विद्यालय ?
   अधिकांश सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति यह है कि वहॉं शिक्षा के नाम पर केवल खाना पूर्ति हो रही है प्रायः विद्यालय साढ़े सात बजे खुलते हैं किंतु प्रायः आठ सवा आठ बजे तक अध्यापक पहुँच  पाते हैं विद्यालय। आपस में मिलते जुलते एवं आफिस में जाकर उपस्थिति का रजिस्टर लेते देते प्रधानाचार्य जी की खैर कुशल पूछते पूछते बीत जाता है बीत जाता है आधा पौना घंटा,कक्षा में पहुँचते पहुँचते नौ सवा नौ बज ही जाते हैं! बच्चों की किताब खोलकर उन्हें राइटिंग आदि लिखने को या किसी कापी किताब से कोई सवाल लिखने लगाने को बता दिया जाता है।इसी बीच साढ़े नौ बजे लंच हो जाता है जो साढे़ दस से ग्यारह बजे के बीच तक कहीं पूरा हो पाता है मुश्किल से ! इसके बाद बारी बारी से किसी न किसी शिक्षक को प्रतिदिन जरूरी काम लगा करता है और वह निकल जाता है इसीप्रकार बारी बारी से एक आध लोग प्रतिदिन बीमार होने के कारण चले जाते हैं उनको दवा लेने की जल्दी होती है इसलिए वो निकल जाते हैं।बारी बारी से कुछ शिक्षक शिक्षिकाएँ  छुट्टी की घोषणा करने को बैठे रहते हैं किंतु अभिभावकों को पहले ही समझाया जा चुका होता है कि साढ़े बारह बजे छुट्टी होनी है उसके एक मिनट बाद भी आपके बच्चे की हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है!इसलिए अपना बच्चा समय से ले जाना!अभिभावकों को भी चिंता रहती है कि कहीं हमारा बच्चा अकेला न छूट जाए इस बात से भयभीत अभिभावक बारह बजे से ही स्कूल में पहुँचने लगते हैं और अपना अपना बच्चा लेकर चले आते हैं।साढ़े बारह बजते बजते बिरले ही कुछ बच्चे बच जाते हैं बाकी जा चुके होते हैं।
    इस सारी प्रक्रिया में पढ़ने पढ़ाने का समय ही कब होता है?और पढ़ाता कौन है पढ़ता कौन है अब तो बच्चों के रिजल्ट का भी कोई झंझट नहीं है।शिक्षकों को भय किसका है?
     उपर्युक्त इन्हीं सब कारणों से सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चे पढ़ाने वाले अभिभावक को लोग इतनी हिकारत की निगाह से देखने लगते हैं जैसे उसका अपने बच्चे से कोई लगाव ही न हो और वो समाज का सबसे गया गुजरा इंसान हो!सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चे पढ़ाने वाले माता पिता का सामाजिक स्तर इतना गिर चुका होता है कि न वो बच्चे से पूछ पाते हैं कि वहॉं पढ़ाई क्या होती है न शिक्षकों से!दोनों का एक ही जवाब होता है कि यदि पढ़ाना ही था तो प्राइवेट विद्यालय में पढ़ा लेते!इसलिए माता पिता बच्चे को भेज आते हैं ले आते हैं इसके अलावा स्कूल वालों से वो कोई प्रश्न करें उनमें इतना साहस कहॉं होता है?क्या यही है शिक्षा का अधिकार ?
     ऐसी परिस्थिति में शिक्षा का अधिकार जैसा कानून भी आखिर क्या कर लेगा जब शिक्षक लापरवाह होंगे अधिकारी कर्तव्य भ्रष्ट होंगे तो मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री तो स्कूल स्कूल दौड़े नहीं घूमेंगे!अधिकारियों को ही अपना नैतिक दायित्व समझते हुए शक्त  होना पड़ेगा!अन्यथा यदि स्कूलों में पढ़ाई ही नहीं होगी!तो क्या कर लेगा शिक्षा का अधिकार ?
           इस बात के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है कि सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाई नहीं होती है लापरवाही का आलम यह है कि वहॉं का भोजन करके बच्चे न केवल बीमार होते हैं अपितु कई बार बच्चों के मर जाने तक की दुखद खबरें सुनाई पड़ती हैं!अभी अभी इस तरह दुर्घटनाओं ने तो सारे देश को हिलाकर रख दिया है!यह लगभग सबको पता है सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों और शिक्षकों के बीच कोई संबंध ही नहीं बन पाता है क्योंकि बच्चों और शिक्षकों की मुलाकातें ही इतनी कम हो पाती हैं अन्यथा बच्चे खराब भोजन संबंधी भी अपनी बात अध्यापकों को बता सकते थे!
    इसीलिए किसी से भी पूछ लिया जाए कि वह अपने बच्चे को सरकारी विद्यालय में क्यों नहीं पढ़ाता है वो सच सच बता देगा!आखिर किसी को शौक थोड़ा है कि वो अपने बच्चों को मोटी मोटी फीसें देकर प्राइवेट विद्यालयों  में पढ़ावे!             
      बाहर की बात क्या कही जाए दिल्ली के निगम से लेकर सरकारी प्राथमिक स्कूलों तक में पढ़ाई की यही स्थिति है इस विषय में कोई अधिकारी कर्मचारी नियंत्रण करने को तैयार ही नहीं है किसी की कोई जवाबदेही नहीं  होती है, क्या किसी भी अधिकारी का यह दायित्व नहीं बनता है कि वो अपने शिक्षकों से पूछे कि तुम्हारे स्कूलों का सम्मान प्राइवेट स्कूलों की अपेक्षा दिनों दिन घटता क्यों जा रहा है?किसी भी शिक्षण संस्थान की लोकप्रियता वहॉं के अध्यापकों के बात ब्यवहार और कर्तव्य परायणता पर निर्भर करती है!सरकारी प्राथमिक स्कूलों का सम्मान बढ़ाने की जिम्मेदारी आपकी है यदि घट रहा है तो यह जिम्मेदारी भी आपकी ही है!
     सरकारी शिक्षकों से  यह क्यों  नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर आम जनता का विश्वास आप  क्यों नहीं जीत पा रहे हैं ?प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों की अपेक्षा क्या तुम कम पढ़े लिखे हो या तुम पढ़ा नहीं सकते!या उनसे आपकी शिक्षा कम है या आप ट्रेंड नहीं हैं या आपको सैलरी उनसे कम मिलती है! आखिर स्कूल की ड्यूटी देने और जिम्मेदारी निभाने में लापरवाही क्यों?इसके साथ साथ सरकारी शिक्षकों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि यदि तुम्हारे यहाँ फीस या एडमीशन फीस भी नहीं ली जाती है भोजन भी बँटता है ऊपर से पैसे भी दिए जाते हैं।
    प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों की अपेक्षा आपकी  सैलरी भी कई गुना अधिक होती है यह किस बात की लेते हो तथा यह कहाँ से आती है?श्रीमान जी यह जनता की गाढ़ी कमाई में से टैक्स रूप में प्राप्त की गई धनराशि से पचासों हजार रुपए महीने की सैलरी तुम्हें दी जाती है!फिर भी असक्षम अभिभावक आर्थिक मजबूरी में अपने बच्चे को आपके यहाँ क्यों पढ़ाता है प्रसन्नता से क्यों नहीं?
    आपकी शिक्षा अधिक है आप ट्रेंड भी हैं फिर भी प्राइवेट स्कूलों से आप क्यों पिटते जा रहे हैं! आपकी उच्च शिक्षा एवं ट्रेंड होने का क्या लाभ हुआ समाज एवं सरकार को? सरकारी शिक्षकों से क्या यह भी नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर आप लोगों के अपने बच्चे क्यों नहीं पढ़ते हैं सरकारी स्कूलों में ?यदि वो न मानें तो एक बार इस बात की ईमानदारी पूर्वक जाँच क्यों न करा ली जाए!
       फिर हाल कहा जा सकता है सरकारी स्कूलों में बच्चों की न तो पढ़ाई है और न ही किसी की जिम्मेदारी !भगवान भरोषे चल रहे हैं स्कूल!जनता के नाम पर जनता का पैसा सरकारी शिक्षकों को सरकारें उधर बाँटती जा रही हैं इधर मीडिया वालों को बताती जा रहीं हैं। 
                    करिए   भैया   खूब  प्रचार 
                    यह  है शिक्षा का अधिकार 
                    भोजन   बाँट  रही सरकार
                    सबके  सब   बच्चे  बीमार !
   पहले गृहस्थों को महात्मा एवं नौजवानों को अध्यापक ही संयम और सदाचार पूर्वक सच्चरित्रता की शिक्षा देते थे।साथ ही दुराचरणों की निंदा करते थे।अब निन्दा करने वालों के चारों तरफ   वही सब होता दिख रहा है, निन्दा किसकी कौन और क्यों करे?अध्यापक वर्ग की स्थिति यह है सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती इस विषय में कोई अधिकारी कर्मचारी नियंत्रण करने को तैयार ही नहीं हैं क्या उसका यह दायित्व नहीं बनता!सरकारी शिक्षकों से पूछा जाना चाहिए कि यदि   तुम्हारे यहाँ भोजन भी बँटता है पैसे भी दिए जाते हैं।फीस या एडमीशन फीस भी नहीं ली जाती है और जनता की गाढ़ी कमाई में से टैक्स रूप में प्राप्त की गई धनराशि से सैलरी तुम्हें दी जाती है !उन शिक्षकों से  यह क्यों  नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर आम जनता का विश्वास आप  क्यों नहीं जीत पा रहे हैं ?आखिर वो अपना आदर्श शिक्षकों को न मानें तो किसे मानें!जब शिक्षक ही काम चोर होंगे तो बच्चे कैसे होंगे ईमानदार ? प्राइवेट स्कूलों में हर कोई अपने बच्चे को पढ़ा नहीं सकता सरकारी स्कूलों में यदि पढ़ाई नहीं होगी तो खाली दिमाग कुछ भी कर सकता है!वह सहने के लिए समाज को हमेशा तैयार रहना होगा!इन बच्चों का भविष्य बिगाड़ने वाले शिक्षकों के साथ साथ समाज के वे लोग भी जिम्मेदार हैं जो ऐसा देखते हुए भी सह रहे हैं ।किसी कवि ने लिखा है कि 

    जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।।